"रूसो": अवतरणों में अंतर
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अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) |
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रूसो सामान्य संकल्प (जनरल विल) और सबके संकल्प (विल ऑव ऑल) में अंतर बताता है। सबका संकल्प विशेष संकल्पों (पर्टिकुलर विल्स) का योग मात्र है जो व्यक्तिगत हितों के ही स्तर पर रह जाता है। सामान्य संकल्प सदैव स्वार्थरहित तथा सामान्य हित के लिए होता है। कभी कभी रूसो बहुमत को ही सामान्य संकल्प कह देता है। वह यह भी कहता है कि परस्पर विरोधी विचारों के टकराने से जो अवशेष रहता है वही सामान्य संकल्प है। कितु ये बातें उसकी मूल धारणा के विरुद्ध हैं।
सामाजिक प्रसंविदा का सिद्धांत स्वतंत्रता का विरोधाभास उत्पन्न करता है। रूसो के अनुसार सामान्य संकल्प स्थायी अविभाज्य तथा अदेय है। वह नित्य सत्य है। व्यक्ति का हित उसी से संनिहित है। चूंकि मनुष्य को अपने हित के विरुद्ध कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं हो सकती, इसलिए जो व्यक्ति सामान्य संकल्प का विरोध करता है वह वास्तव में आत्मद्रोही है। सामान्य संकल्प का मूर्तरूप होने के नाते राज्य उसे सच्चे अर्थ में "स्वतंत्र' होने के लिए बाध्य कर सकता है। दंड भी स्वतंत्रता का ही रूप है। इस प्रकार यह Êसद्धांत स्वतंत्रता के नाम पर अधिनायकवाद का पोषक बन जाता है। रूसो स्वयं अधिनायकवाद का समर्थक है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वह कहता है कि संप्रभु समाज की मान्य प्रथाओं का उल्लंघन नहीं कर सकता। सामाजिक हित के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता
राज्य के लिए रूसो विधायकों (लेजिस्लेटर्स) को आवश्यक
रूसो संसदीय प्रतिनिधित्व को सामान्य संकल्प के प्रतिकूल बताता है। वह प्रत्यक्ष जनतंत्र के पक्ष में है जो केवल उसकी जन्मभूमि जिनीवा जैसे छोटे राज्य में ही संभव है। राष्ट्रसंघ की संभावना मानते हुए भी रूसो राष्ट्रराज्य को ही विशेष महत्व देता है। जब तक सत्ता जनता के हाथ में है, सरकार का स्वरूप गौण है। सरकार केवल जनता के हित का साधन है। अत: उसे किसी भी समय बदला जा सकता है। गायर्के (Gierke) ने इसे "नित्यक्रांति (permanent revolution) का सिद्धांत कहा है। रूसो सरकार के दो अंशों की चर्चा करता है : व्यवस्थापिका तथा कार्यकारिणी। व्यवस्थापिका को वह श्रेष्ठ बताता है, क्योंकि सामान्य संकल्प उसी के द्वारा व्यक्त होता है। राजनीतिक दल सामान्य संकल्प की अभिव्यक्ति में बाधक होते हैं। अत: रूसो उनके विरुद्ध है। एक समिति अर्थ में धर्म को वह राज्य के लिए उपयोगी बताता है। समाज की सुव्यवस्था के लिए राज्य को धर्म के कुछ सिसद्धांतों को निर्दिष्ट कर देना चाहिए और जनता को उन्हें मानने के लिए बाध्य करना चाहिए।
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