"पालि भाषा का साहित्य": अवतरणों में अंतर

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=== अट्टकथाएँ ===
'''{{मुख्य|अट्टकथा}}'''
इन रचनाओं के पश्चात् अट्ठकथाओं का युग प्रारंभ होता है। श्रुत परंपरानुसार जब महेंद्र और संघमित्रा द्वारा पालि त्रिपिटक [[लंका]] में पहुँचा और बौद्धधर्म का प्रचर बढ़ा, उन मूल ग्रंथों पर सिंहली भाषा में टीका रूप अट्ठकथाएँ लिखी गई। ये अट्ठकथाएँ अब उपलब्ध नहीं है। अनुमानत: इसका कारण उन अट्ठकथाओं की रचना हो जाने से क्रमश: उन मूल अट्ठकथाओं का अध्ययन अध्यापन छूट जाना ही है। इन नई पालि अट्ठकथाओं के कर्ता आचार्य [[बुद्धघोष]] का नाम पालि साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। उन्होंने जिन सिंहली अट्ठकथाओं का उल्लेख किया है तथा जिनके अवतरण अपनी अट्ठकथाओं में लिए हैं, उनमें मुख्य हैं-
:(1) महाअट्ठकथा (सुत्तपिटक पर), (2) महापच्चरी (अभिधम्म पर), (3) कुरुंदी (विनयपिटक पर),
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बाद की तीन रचनाओं के कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं।
 
14वीं शती के पश्चात् पालि-साहित्य-सृजन का क्षेत्र लंका से उठकर [[म्याँआर|ब्रह्मदेश]] में पहुँच गया। यहाँ के साहित्यकारों ने [[अभिधम्म]] को विशेष रूप से अध्ययन का विषय बनाया। 15वीं शती की कुछ रचनाएँ हैं-
14वीं शती के पश्चात् पालि-साहित्य-सृजन का क्षेत्र लंका से उठकर [[म्याँआर|ब्रह्मदेश]] में पहुँच गया। यहाँ के साहित्यकारों ने [[अभिधम्म]] को विशेष रूप से अध्ययन का विषय बनाया। 15वीं शती की कुछ रचनाएँ हैं- अरियवंस कृत मणिसारमंजूसा, मणिदीप और जातक विबोधन, सद्धम्मसिरि कृत नेत्तिभावनी, सीलवंस कृत बुद्धालंकार तथा रट्ठसारकृत जातकों के काव्यात्मक रूपांतर। 16वीं शती में [[सद्धम्मालंकार]] ने पट्ठाण प्रकरण पर पट्ठाणदीपनी नामक टीका लिखी तथा महानाम से आनंदकृत अभिधम्म-मूल-टीका पर मधुसारत्य दीपनी नामक अनुटीका लिखी। 17वीं शती में त्रिपिटकालंकार ने अट्ठसालिनी पर की बीस गाथाओं में वीसतिवण्णणा, सारिपुत्तकृत विनयसंग्रह पर विनयालंकार नामक टीका तथा यसवड्ढनवत्थु इन तीन ग्रंथों की रचना की। त्रिलोकगुरु ने चार ग्रंथ रचे- (1) धातुकथा-टीका-वण्णणा (2) धातुकथा-अनंटीका-वण्णणा (3) यमकवण्णणा और (4) पट्ठाणवण्णणा। सारदस्सी कृत धातुकथायोजना और महाकस्सप कृत अभिधम्मत्थगंठिपद (अभिधर्म के कठिन शब्दों की व्याख्या) इस शती की अन्य दो रचनाएँ हैं। 18वीं शती की ज्ञानामिवंशनामक ब्रह्मदेस के संघराज की तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं- (1) पेटकालंकार-नेत्ति-प्रकरण की टीका, (2) साधुविलासिनी दीर्घनिकाय की कुछ व्याख्या, और (3) राज-धिराजविलासिनी नामक काव्य। 19वीं शती की ब्रह्मदेश की कुछ रचनाएँ हैं- नलाटधातु वंस, संदेस कथा सीमाविवादविनिश्चय आदि। इस शती के छकेसधातुवंस, गंधवंस और सासनवंस नामक रचनाओं का परिचय वंस साहित्य के अंतर्गत दिया गया है। इस शती की अन्य उल्लेखनीय रचना है भिक्षु लेदिसदाव कृत [[अभिधम्मसंग्रह]] की परपत्थदीपनी टीका तथा यमक संबंधी पालि निबंध जो उन्होंने श्रीमती राइस डेविड्ज़ की कुछ शंकाओं के समाधान के लिए लिखा था। पालि-साहित्य-रचना की अविच्छिन्न धारा के प्रमाणस्वरूप 20वीं शती की दो रचनाओं का उल्लेख करना अनुचित न होगा। ये हैं भारतवर्ष में [[भंदत धर्मानंद कोसांबी]] द्वारा रचित [[विसुद्धिमग्गदीपिका]] और [[अभिधम्मत्थसंग्रह]] की नवनीत टीका। इस परिचय के आधार से कहा जा सकता है कि पालिसाहित्य-निर्माण की धारा ढाई हजार वर्ष के पश्चात् भी अभी तक विच्छिन्न नहीं हुई।
*अरियवंस कृत मणिसारमंजूसा,
*मणिदीप और जातक विबोधन,
*सद्धम्मसिरि कृत नेत्तिभावनी,
*सीलवंस कृत बुद्धालंकार तथा
*रट्ठसारकृत जातकों के काव्यात्मक रूपांतर।
 
16वीं शती में [[सद्धम्मालंकार]] ने पट्ठाण प्रकरण पर पट्ठाणदीपनी नामक टीका लिखी तथा महानाम से आनंदकृत अभिधम्म-मूल-टीका पर मधुसारत्य दीपनी नामक अनुटीका लिखी। 17वीं शती में त्रिपिटकालंकार ने अट्ठसालिनी पर की बीस गाथाओं में वीसतिवण्णणा, सारिपुत्तकृत विनयसंग्रह पर विनयालंकार नामक टीका तथा यसवड्ढनवत्थु इन तीन ग्रंथों की रचना की। त्रिलोकगुरु ने चार ग्रंथ रचे-
*(1) धातुकथा-टीका-वण्णणा
*(2) धातुकथा-अनंटीका-वण्णणा
*(3) यमकवण्णणा और
*(4) पट्ठाणवण्णणा।
सारदस्सी कृत धातुकथायोजना और महाकस्सप कृत अभिधम्मत्थगंठिपद (अभिधर्म के कठिन शब्दों की व्याख्या) इस शती की अन्य दो रचनाएँ हैं।
 
18वीं शती की ज्ञानामिवंशनामक ब्रह्मदेस के संघराज की तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-
*(1) पेटकालंकार-नेत्ति-प्रकरण की टीका,
*(2) साधुविलासिनी दीर्घनिकाय की कुछ व्याख्या, और
*(3) राज-धिराजविलासिनी नामक काव्य।
 
19वीं शती की ब्रह्मदेश की कुछ रचनाएँ हैं- नलाटधातु वंस, संदेस कथा सीमाविवादविनिश्चय आदि। इस शती के छकेसधातुवंस, गंधवंस और सासनवंस नामक रचनाओं का परिचय वंस साहित्य के अंतर्गत दिया गया है। इस शती की अन्य उल्लेखनीय रचना है भिक्षु [[लेदिसदाव]] कृत [[अभिधम्मसंग्रह]] की परपत्थदीपनी टीका तथा यमक संबंधी पालि निबंध जो उन्होंने श्रीमती राइस डेविड्ज़ की कुछ शंकाओं के समाधान के लिए लिखा था।
 
पालि-साहित्य-रचना की अविच्छिन्न धारा के प्रमाणस्वरूप 20वीं शती की दो रचनाओं का उल्लेख करना अनुचित न होगा। ये हैं भारतवर्ष में [[भंदत धर्मानंद कोसांबी]] द्वारा रचित [[विसुद्धिमग्गदीपिका]] और [[अभिधम्मत्थसंग्रह]] की नवनीत टीका। इस परिचय के आधार से कहा जा सकता है कि पालिसाहित्य-निर्माण की धारा ढाई हजार वर्ष के पश्चात् भी अभी तक विच्छिन्न नहीं हुई।
 
=== वंस साहित्य ===