"किलाबंदी": अवतरणों में अंतर
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[[स्विटजरलैंड]] की सीमा से इंग्लिश चैनल तक की 600 मील की दूरी में दो प्रकार की खाइयाँ एक दूसरे के सम्मुख थीं। दिसंबर 1914 से मार्च 1918 तक की अवधि में ये लहरदार खाइयाँ किसी भी एक स्थान पर 10 मील से अधिक की दूरी तक नहीं हटी थीं, सिवा एक स्थान के जिसे जर्मनों ने स्वेच्छा से छोड़ दिया था ताकि अपनी पंक्तियों को एक सीध में कर लें। प्रथम विश्वयुद्ध के समय कुछ आधुनिक किले जर्मनों की गोलाबारी को सभी प्रकार झेल गए। साथ ही, इनमें सैनिकों की भी अधिक आवश्यकता नहीं पड़ी। इस अनुभव से फ्रांसीसियों को माजिनोलाइन नामक किलेबंदी के निर्माण के लिए प्रेरित किया जो जर्मनों के आक्रमण से स्थायी रूप से रक्षा कर सके। पूर्व में जो गोलाकार किलाबंदी की व्यवस्था होती थी इस आधुनिक किलाबंदी में भी लक्षित थी, परंतु इसकी मुख्य विशेषता रेखावत् मोर्चाबंदी की व्यवस्था ही थी। सेनाओं की दृष्टि से माजिनो लाइन गत मोर्चाबंदी व्यवस्था से कहीं श्रेयस्कर थी। इसमें कंकड़ इत्यादि भी काफी मोटा लगाया गया था और इसकी तोपें भी विशालकाय थीं। साथ ही इसमें वातानुकूलित भाग भी सेनाओं के लिए थे और कहा जाता हैं कि यह किसी भी आधुनिक नगर में क म आरामदेह न थी। इसमें मनोरंजन के स्थानों, रहने के लिए मकानों, खाद्य-भंडार-गृह और भूमिगत रेल की पटरियों की भी व्यवस्था थीं। गहराई में कुछ ऐसे सुदृढ़ स्थान भी बना दिए गए थे जहाँ आवश्यकता पड़ने पर रेल द्वारा सेना जा सकती थी।
जर्मनों ने भी 1936 में राइनलैंड की किलाबंदी सीगाफ्रड लाइन द्वारा की। इस रेखा में लोहे तथा कंकड़ से रक्षात्मक स्थान बनाए गए थे और उन स्थानों के आगे जर्मनों की पूरी सीमा तक कंकड़ तथा लोहे के अवरोधक स्थान भी बना दिए गए थे। रूस ने पोलैंड के विरुद्ध जो किलाबंदी की
इन नवीन गढ़बंदियों में कई बातें ध्यान में रखी गई थीं। लोहे तथा कंकड़ के अवरोधक टैंकों की गति को रोकने के लिए ही नही अपितु जलमग्न क्षेत्रों तथा जंगलों में भी पहँचने के मार्गों का सरण्मािन् करने के लिए प्रयोग में लाया गया था। वायुयानों के आक्रमण से रक्षा करना भी आवश्यक समझा गया था। इसके लिये विस्तृत टेलीफोन व्यवस्था, सर्चलाइट तथा भारी तोपों को लगाने का प्रबंध किया गया था। वायुयानों द्वारा न देख जाने तथा शत्रुओं की स्थलसेना को धोखा देने के लिए छिपने की व्यवस्था करना भी महत्वपूर्ण माना गया। मित्रराष्ट्रों ने समझा था कि उनको किलेबंदी की यह व्यवस्था शत्रुओं के आक्रमण को रोकने और झेलने में समर्थ होगी किंतु वे अपनी इस योजना में पूर्णत: असफल रहे।
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गुहात्मक मैदानी मोर्चाबंदी के विरुद्ध अमरीका ने मनुष्यों के स्थान पर यंत्रों का हर संभव साधन से प्रयोग की विधि अपनाई। इससे कभी कभी वायुयानों और साथ ही नौसेना द्वारा उस क्षेत्र पर बमवर्षा कुछ दिनों अथवा कुछ सप्ताह तक की जाती थी। एक बार थलसेना लड़ते लड़ते समुद्र तट तक पहुँच जाती तो वह अपने साथ तोपखाना तथा टैंक भी वहाँ तक ले जाती और दोनों की सयुंक्त शक्ति से शत्रु के मैदानी मोर्चाबंदी के स्थानों पर बमवर्षा की जाती। शत्रु इस बमवर्षा के कारण अपनी गुहारूपी खाइयों से निकलकर भागते। इसी समय पैदल सेना जंगली क्षेत्रों से होती इन गुफाओं से निकले शत्रुओं को घेरती आती और उन्हे नष्ट कर देती। इस विधि से शत्रुओं को नष्ट करने के बावजूद जापानी सैनिक अपनी गुफारूपी खाइयों से नहीं निकले। तब अमरीकियों ने टैंकों द्वारा उन खाइयों पर अग्निवर्षा की और उनके प्रवेशद्वार उड़ा दिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध में मैदानी मोर्चाबंदी का क्रम इस प्रकार होता था : रक्षार्थ एक स्थान चुना जाता था, खाइयाँ तथा शरणस्थान बनाए जाते थे, फिर सुरंगें लगाकर तथा काँटेदार तार खींचकर शत्रु का मार्ग अवरुद्ध किया जाता था। रक्षात्मक स्थलयुद्ध में ये सब कार्य एक साथ किए जाते थे। मध्य से एक ऐंटी-टैंक खाई भी जाती थी। इस खाई के लगभग 600 गज पीछे रक्षक दल खड़ा होता था जिसमें राइलफलधारी तथा उनके पीछे तोपची खाइयों में खड़े हो जाते थे। इतनी दूरी पर इसलिए खड़े होते थे जिससे मशीनगन तथा छोटी मार्टर बंदूकों द्वारा उन शत्रुओं पर अग्निवर्षा कर सकें जो ऐंटी-टैंक खाई के उस और लगाए गए अवरोधक स्थानों पर आकर अटक गई हों। ऐंटी-टैंक खाई के बाद काँटेदार तार और मुख्य सुरंगें लगाई जाती थीं। इन सुरंगों के बाद फिर काँटेदार तार तथा सुरंगें
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह निष्कर्ष निकला कि स्थायी किलाबंदी धन तथा परिश्रम की दृष्टि से ठीक नहीं है; शत्रु की गति में विलंब अन्य साधनों से भी कराया जा सकता है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि इसका महत्व बिल्कुल ही खत्म हो गया। अणुबम के आक्रमण में सेनाओं को मिट्टी के टीलों या कंकड़ के रक्षक स्थानों में आना ही होगा। नदी के किनारे या पहाड़ी दर्रों के निकट इन स्थायी गढ़ों का उपयोग अब भी लाभदायक है। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि आधुनिक तृतीय आयोमात्मक युद्ध में स्थायी दुर्गो की उपयोगिता नष्ट हो गई है।
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