"देवीमाहात्म्य": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Devimahatmya Sanskrit MS Nepal 11c.jpg|right|thumb|300px|ताड़पत्र पर भूजीमोल लिपि में लिखी देवीमाहात्म्य की सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि]]
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इस रचना का विशेष संदेश है कि विकास-विरोधी दुष्ट अतिवादी शक्तियों को सारे सभ्य लोगों कि सम्मिलित शक्ति "सर्वदेवशरीजम" ही परास्त कर सकती है, जो रास्ट्रीय एकता का प्रतीक है। इस प्रकार आर्यशक्ति अजय है। इसमे गमन (इसका भेदन) दुष्कर है। इसलिए यह 'दुर्गा' है। यह [[अतिवादी|अतिवादियों]] के ऊपर संतुलन - शक्ति (stogun) सभ्यता के विकास
== परिचय ==
[[चित्र:Durga Mahisasuramardini.JPG|right|thumb|300px|'महिषासुरमर्दिनी' के रूप में चित्रित देवी दुर्गा]]
सुरथ नाम के एक राजा का राज्य छिन जाने और जान पर संकट आ जाने पर वह राजा भाग कर जंगल चला जाता है! ज्ञानी राजा को अपनी परिस्थति का सही ज्ञान है। वह निश्चित रूप से समझता है कि उसे पुनः अपना राज्य अथवा कोई सम्पति वापस नहीं मिलने वाली है! किन्तु फिर भी उसे बार-बार उन्ही वस्तुओं, व्यक्तियों और खजाने अदि की चिंता सताती रहती है। राजा जिसे निरर्थक समझता है और मुक्त रहना चाहता है, उसके विपरीत उसका मन उसके ज्ञान की अवहेलना कर बस उन्ही बस्तुओ की ओर खीचा जाता है| ज्ञानी राजा सुरथ अपनी असाधारण शंका को लेकर परम ज्ञानी मेघा ऋषि के पास जाते है। ऋषि उन्हें बताते है की वह विशेष शक्ति भगवन की क्रियाशील शक्तितर से परे महामाया है जो सारे संसार को जोड़ती है, पूरी सृष्टि को संचालित, संघृत और नियंत्रित करती है। सारे जीव-जन्तु उसी की प्रेरणा से कार्य करते हैं |
यही महामाया शक्ति सृष्टि की तीन अवस्थाओं का तीन रूपों में संचालन करती है। सृष्टि, अवस्थाओं का लगातार परिवर्तन है। परिवर्तन का मापक, काल (समय) है। बिना काल के परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए पहली अवस्था में यही (काल की) महाकाली शक्ति के रूप में महामाया सृष्टि को गति देती है। परिवर्तन की निरंतरता में काल के किसी विशेष बिन्दु पर सृष्टि का एक स्वरूप और केवल एक वही स्वरूप बनता है| उसका संघारण और संपोषण वह महालक्ष्मी के रूप में करती है। सृष्टि की तीसरी अवस्था विकास की अग्रिम अवस्था है, जब चेतना का बहुआयामी विकास होता है। इस अवस्था का संचालन और नियंन्त्रण महासरस्वती के रूप में वह करती है।
सृष्टि की इन्ही तीन अवस्थाओं को सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य रूप में प्रस्तुत किया गया है| पहली अवस्था में सृष्टि रचना के कर्ता ब्रम्हा को मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस मार लाना चाहते थे| क्रमश: तमोगुणी और रजोगुणी ये दोनों अतिवादी शक्तियाँ विकास के लिए संकट है| ब्रह्म ने महामाया से रक्षा की गुहार की| महामाया की प्रेरणा से विष्णु योग्निन्द्रा त्याग कर आए और राक्षसों को मार डाला| ब्रह्म की सृष्टि-रचना का कार्य आगे बढ़ जाता है। दूसरी अवस्था सभ्यता की प्रारंभिक अवस्था-गंगा सिन्धु के मैदान की तत्कालीन जंगली अवस्था का प्रतीकात्मक वर्णन है। जानवरों से शारीरिक बल में अपेक्षाकृत कमजोर मानव समूह -आर्यशक्ति को विना विकसित हथियार के केवल बुद्दि विवेक के बल पर जंगली भैंसे ([[महिषासुर]]) आदि भयानक जंगली जानवरों के बीच से अपनी सभ्यता की गाड़ी आगे निकलने की चुनोती थी, जिसमे वह सफल हुई। तीसरी अवस्था सभ्यता की विकसित अवस्था है, जहाँ आर्यशक्ति को शुंभ और निशुंभ के रूप में दो अतिवादी शक्तियों रजोगुण और तमोगुण अथवा प्रगतिवादी और प्रतक्रियावादी शक्तियों का सामना सदा करना पड़ता है।
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://sanskritdocuments.org/all_sa/durga700_sa.html '''दुर्गा सप्तशती''' का मूल पाठ]
* [http://www.gitapress.org/books/paath/118/durga_saptashati.pdf '''दुर्गासप्तशती''' (सचित्र, हिन्दी अनुवाद एवं पाठ-विधि सहित; [[गीता प्रेस]], गोरखपुर)
* [http://sanskritdocuments.org/all_sa/durga700_meaning_sa.html '''दुर्गा सप्तशती ''' का अंग्रेजी अनुवाद]
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