"देवीमाहात्म्य": अवतरणों में अंतर

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ब्रह्मोवाच ॥७२॥
 
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वष्‌टकारः स्वरात्मिका ॥७३॥<br /><br />
सुधा त्वं अक्षरे नित्ये तृधा मात्रात्मिका स्थिता ॥७३॥<br /><br />
 
अर्धमात्रा स्थिता नित्या इया अनुच्चारियाविशेषतः ॥७४॥<br /><br />
सुधा त्वं अक्षरे नित्ये तृधा मात्रात्मिका स्थिता ।<br />
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा ॥७४॥<br /><br />
अर्धमात्रा स्थिता नित्या इया अनुच्चारियाविशेषतः ॥७४॥<br /><br />
 
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा ।<br />
(पाठान्तर : ''त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं वेद जननी परा '') <br />
त्वयेतद्धार्यते विश्वं त्वयेतत् सृज्यते जगत ॥७५॥<br /><br />
 
त्वयेतद्धार्यते विश्वं त्वयेतत् सृज्यते जगत ॥७५॥<br /><br />
त्वयेतत् पाल्यते देवी त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥७५॥<br /><br />
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ॥७६॥<br /><br />
 
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ॥७६॥<br /><br />
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥७६॥<br /><br />
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ॥७७॥<br /><br />
 
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ॥७७॥<br /><br />
महामोहा च भवतिभवती महादेवी महेश्वरी ॥७७॥<br /><br />
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्व गुणात्रयविभाविनी ॥७८॥<br /><br />
 
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्व गुणात्रयविभाविनी ॥७८॥<br /><br />
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहारात्रिश्च दारूणा ॥७८॥<br /><br />
त्वं श्रीस्तमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ॥७९॥<br /><br />
 
त्वं श्रीस्तमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ॥७९॥<br /><br />
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ॥७९॥<br /><br />
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिनी तथा ॥८०॥<br /><br />
 
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिनी तथा ॥८०॥<br /><br />
शङ्खिनी चापिनी वाण भूशून्डी परिघआयूधा ॥८०॥<br /><br />
सौम्या सौम्यतराह्‌शेष, सौम्येभ्यस त्वतिसुन्दरी ॥८१॥<br /><br />
 
सौम्या सौम्यतराह्‌शेष, सौम्येभ्यस त्वतिसुन्दरी ॥८१॥<br /><br />
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥८१॥<br /><br />
यच्च किञ्चित् क्वचित् वस्तु सदअसद्वाखिलात्मिके ॥८२॥<br /><br />
 
यच्च किञ्चित् क्वचित् वस्तु सदअसद्वाखिलात्मिके ॥८२॥<br /><br />
तस्य सर्वस्य इया शक्तिः सा त्वं किं स्तुयसे मया ॥८२॥<br /><br />
इया त्वया जगतस्रष्टा जगत् पात्यत्ति इयो जगत् ॥८३॥<br /><br />
 
इया त्वया जगतस्रष्टा जगत् पात्यत्ति इयो जगत् ॥८३॥<br /><br />
सोह्‌पि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुं इहा ईश्वरःईश्वरः॥८३॥<br /><br />
विष्णुः शरीरग्रहणम अहम ईशान एव ॥८४॥<br /><br />
 
विष्णुः शरीरग्रहणम अहम ईशान एव ॥८४॥<br /><br />
कारितास्ते यतोह्‌तस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान भवेत ॥८४॥<br /><br />
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवी संस्तुता ॥८५॥<br /><br />
 
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवी संस्तुता ॥८५॥<br /><br />
मोहऐतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ॥८५॥<br /><br />
प्रवोधं च जगत्स्वामी नियतां अच्युतो लघु ॥८६॥<br /><br />
 
प्रवोधं च जगत्स्वामी नियतां अच्युतो लघु ॥८६॥<br /><br />
वोधश्च क्रियतामस्य हन्तुं एतौ महासुरौ ॥८७॥॥८६॥<br /><br />
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ब्रह्माजी ने कहा ॥७२॥<br /><br />
 
देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा, तुम्हीं वषट्कार (पवित्र आहुति मन्त्र) हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। ॥७३॥<br /><br />
तुम्हीं जीवदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर [[प्रणव]] में अकार, उकार, मकार - इन तीन अक्षरों के रूप में तुम्ही स्थित हो तथा इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो। ॥७४॥॥७३॥<br /><br />
 
तुम्हीं जीवदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर [[प्रणव]] में अकार, उकार, मकार - इन तीन अक्षरों के रूप में तुम्ही स्थित हो तथा इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो। ॥७४॥<br /><br />
 
तथा इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो।<br />
तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री (ऋकवेदोक्त पवित्र [[सावित्री मन्त्र]]), तुम्हीं समस्त देवीदेवताओं की जननी हो।<br />
(पाठान्तर : तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री, तुम्हीं वेद, तुम्हीं आदि जननी हो) ॥७४॥<br /><br />
 
तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो, तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। ॥७५॥<br /><br />
तुम्हीं सबका पालनहार हो, और सदा तुम्ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। ॥७५॥<br /><br />
 
हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो और पालनकाल में स्थितिरूपा हो। ॥७६॥<br /><br />
हे जगन्मयी माँ! तुम कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।हो।॥७६॥<br /><br />
 
तुम्हीं महाविद्या, तुम्हीं महामाया, तुम्हीं महामेधा, तुम्हीं महास्मृति हो ॥७७॥<br /><br />
और आपतुम्हीं महामोहरूपा, महारूपा तथा महासुरी हैं।हो। ॥७७॥<br /><br />
 
तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो।<br />
तुम्हीं सबका पालनहार हो, और सदा तुम्ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।<br />
भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। ॥७८॥<br /><br />
हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो और पालनकाल में स्थितिरूपा हो। ॥७६॥<br /><br />
 
तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। ॥७९॥<br /><br />
हे जगन्मयी माँ! तुम कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो। <br />
लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। ॥७९॥<br /><br />
तुम्हीं महाविद्या, तुम्हीं महामाया, तुम्हीं महामेधा, तुम्हीं महास्मृति हो ॥७७॥<br /><br />
 
तुम खड्गधारिणी, घोर शूलधारिणी, तथा गदा और चक्र धारण करने वाली हो। ॥८०॥<br /><br />
और आप महामोहरूपा, महारूपा तथा महासुरी हैं। <br />
तुम्हींतुम तीनोंशंख गुणोंधारण कोकरने उत्पन्नवाली, धनुष-वाण धारण करने वाली, तथा परिघ नामक अस्त्र सबकीधारण प्रकृतिकरती हो। ॥७८॥॥८०॥<br /><br />
 
तुम सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य और सुन्दर पदार्थ हैं उन सबकी अपेक्षा तुम अधिक सुन्दर हो।<br />
भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। <br />
पर और अपर - सबसे अलग रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। ॥८१॥<br /><br />
तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। ॥७९॥<br /><br />
 
सर्वस्वरूपे देवि ! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उनकी सबकी जो शक्ति है, वह भी तुम्हीं हो<br />
लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। <br />
ऐसी स्थिति में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?॥८२॥<br /><br />
तुम खड्गधारिणी, घोर शूलधारिणी, तथा गदा और चक्र धारण करने वाली हो। ॥८०॥<br /><br />
 
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