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{{delete|it is copy from http://rachanakar.blogspot.com/2009/11/blog-post_25.html}}'''आत्मा''' या '''आत्मन्''' पद [[भारतीय दर्शन]] के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों (विचार) में से एक है। यह [[उपनिषद|उपनिषदों]] के मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में आता है। जहाँ इससे अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत् से किया गया है जो कि शाश्वत तत्त्व है तथा मृत्यु के पश्चात् भी जिसका विनाश नहीं होता।
 
आत्मा का निरूपण श्रीमद्भगवदगीता या [[गीता]] में किया गया है। आत्मा को [[शस्त्र]] से काटा नहीं जा सकता, [[अग्नि]] उसे जला नहीं सकती, [[जल]] उसे गला नहीं सकता और [[वायु]] उसे सुखा नहीं सकती।<ref>श्रीमद्भगवदगीता, अध्याय 2, श्लोक 23</ref>
जिस प्रकार [[मनुष्य]] पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये [[वस्त्र]] धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है।<ref>श्रीमद्भगवदगीता, अध्याय 2, श्लोक 22</ref>
 
==सन्दर्भ==
प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन की मान्यता है कि यदि आत्मा अविनाशी है तो उसका किसी को कर्ता स्वीकार नहीं किया जा सकता. प्रोफ़ेसर जैन का अभिमत है कि " जीवात्‍मा को अविनाशी, नित्‍य, अज और अव्‍यय समझना चाहिए। जैसे मनुष्‍य जीर्ण वस्‍त्रों का त्‍याग करके नवीन वस्‍त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही यह जीवात्‍मा पुराने शरीरों को छोड़कर नवीन शरीरों को ग्रहण करता है। इसे न तो शस्‍त्र काट सकते है, न अग्‍नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न वायु सुखा सकती है। यह अच्‍छेदय्‌, अदाह्य एवं अशोष्‍य होने के कारण नित्‍य, सर्वगत, स्‍थिर, अचल एवं सनातन है। इस दृष्‍टि से किसी को आत्‍मा का कर्ता स्‍वीकार नहीं कर सकते। यदि आत्‍मा अविनाशी है तो उसके निर्माण या उत्‍पत्ति की कल्‍पना नहीं की जा सकती। यह सम्‍भव नहीं कि कोई वस्‍तु उत्‍पन्‍न तो हो किन्‍तु उसका विनाश न हो। इस कारण जीव ही कर्ता तथा भोक्‍ता है।
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== बाहरी कड़ियाँ ==
सूत्रकाल में ईश्‍वरवाद अत्‍यन्‍त क्षीण प्रायः था। भाष्‍यकारों ने ही ईश्‍वर वाद की स्‍थापना पर विशेष बल दिया। आत्‍मा को ही दो भागों में विभाजित कर दिया गया- जीवात्‍मा एवं परमात्‍मा।
* [http://www.mantra.org.in/Yoga/myweb/Atma_h.htm आत्मा] (भारत विद्या)
 
‘ज्ञानाधिकरणमात्‍मा। सः द्विविधः जीवात्‍मा परमात्‍मा चेति।'1
 
इस दृष्‍टि से आत्‍मा ही केन्‍द्र बिन्‍दु है जिस पर आगे चलकर परमात्‍मा का भव्‍य प्रासाद निर्मित किया गया।
 
आत्‍मा को ही बह्म रूप में स्‍वीकार करने की विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद्‌ युग में मिलती है। ‘प्रज्ञाने ब्रह्म', ‘अहं ब्रह्मास्‍मि', ‘तत्‍वमसि', ‘अयमात्‍मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्‍य इसके प्रमाण है। ब्रह्म प्रकृष्‍ट ज्ञान स्‍वरूप है। यही लक्षण आत्‍मा का है। ‘मैं ब्रह्म हूँ', ‘तू ब्रह्म ही है; ‘मेरी आत्‍मा ही ब्रह्म है' आदि वाक्‍यों में आत्‍मा एवं ब्रह्म पर्याय रूप में प्रयुक्त हैं।
 
आत्‍मा एवं परमात्‍मा का भेद तात्‍विक नहीं है; भाषिक है।"
 
आत्मा और परमात्‍मा दोनो अलग-अलग है
आत्मा रचना है और परमात्मा उसके रचीयता है
इस आधार से दोनो मे पिता-पुत्र क नाता हो जाता है
दोनो क स्वरूप भी एक जैसा ही है।
आत्मा और परमत्मा दोनो के गुन भी समान ही है
आत्म के गुन है घ्यान स्वरूप, प्रेम स्वरूप, पवित्रता स्वरूप, शान्त स्वरूप, सुख स्वरूप, आन्नद स्वरूप, एव शक्ति स्वरूप,
परमत्मा के गुन है ग्यान के सागर, प्रेम के सागर, पवित्रता के सागर, शान्ति के सागर, सुख के सागर, आन्नद के सागर, एव सर्व शाक्तिमान
है
आत्मा जन्म-मरन मै आती है परमात्मा जन्म- मरन मे नहि आते, आत्मा पूरे कल्प मे ८४ जन्मो क पार्ट बजाना होता है
कल्प चार युगो का होता है सतयुग.त्रेता, द्वापुर एव कलयुग
== स्रोत ==
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आत्मा को ८४ जन्म उसके कर्मो के अनुसार मिलते है|अगर किसी आत्मा ने पिछले जन्मो मे श्रेष्ठ कर्म किये है तो उसको सत्युग मे ८ जन्म उसके बाद त्रेता मे १२ द्वापुर मे २१ एवं कलयुग मे ४२ जन्म लेगी।
आत्मा एक सच्चाइ है सबके पास आत्मा है आत्मा के प्र्मुख गुनौ मे से एक " साक्छि होना है।
 
'''सृष्टि का मूल तत्व आत्मा क्या है? क्या ज्ञान है? क्या दोनों एक हैं?'''
 
पार्थ सूर्य ब्रह्माण्ड को, ज्योर्तिमय कर देत
वैसे ही यह आत्मा, क्षेत्र ज्योति भर देत।। 33-13।
आत्मा-जिस प्रकार सूर्य इस सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित करता है अर्थात सूर्य के कारण संसार है, जीवन है आदि उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है।
ज्ञान-जिस प्रकार सूर्य इस सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित करता है अर्थात सूर्य के कारण संसार है, जीवन है आदि उसी प्रकार ज्ञान सम्पूर्ण क्षेत्र को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है।
1. सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है। सृष्टि का मूल तत्व ज्ञान है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है।
2. यह आत्मा सदा नाश रहित है। यह ज्ञान सदा नाश रहित है।
3. आत्मा ने ही सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त किया है। ज्ञान ने ही सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त किया है।
4. सृष्टि में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ आत्मतत्व न हो। सृष्टि में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ ज्ञान न हो।
5. इस अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस अविनाशी ज्ञान का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
6. जीवात्मा इस देह में आत्मा का स्वरूप होने के कारण सदा नित्य है। देह्स्थ ज्ञान इस देह में ज्ञान का स्वरूप होने के कारण सदा नित्य है।
7. इस जीवात्मा के देह मरते रहते हैं। इस देहस्थ ज्ञान के देह मरते रहते हैं।
जब देह मरता है तो समझा जाता है सब कुछ नष्ट हो गया परन्तु ऐसा नहीं होता है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, जो इसे मारने वाला और मरणधर्मा मानता है, वह दोनों नहीं जानते हैं।
8.यह आत्मा न किसी को मारता है, न मरता है। यहज्ञान न किसी को मारता है, न मरता है।
9.आत्मा अक्रिय अर्थात क्रिया रहित है अतः किसी को नहीं मारता। ज्ञान अक्रिय अर्थात क्रिया रहित है अतः किसी को नहीं मारता।
10.आत्मा नित्य अविनाशी है। ज्ञान नित्य अविनाशी है।
11.आत्मा किसी भी काल में नहीं मरता है। ज्ञान किसी भी काल में नहीं मरता है।
12.इस आत्मा का न जन्म है न मरण है। इस ज्ञान का न जन्म है न मरण है।
12.यह आत्मा न जन्म लेता है न किसी को जन्म देता है। यह ज्ञान न जन्म लेता है न किसी को जन्म देता है।
13.आत्मा हर समय नित्य रूप से स्थित है, सनातन है। ज्ञान हर समय नित्य रूप से स्थित है, सनातन है।
13a.आत्मा को कोई नहीं मार सकता केवल इसके देह नष्ट होते हैं।। ज्ञान को कोई नहीं मार सकता। केवल इसके देह नष्ट होते हैं।
14.आत्मा को जो पुरुष नित्य, अजन्मा, अव्यय जानता है, उसे बोध हो जाता है। ज्ञान को जो पुरुष नित्य, अजन्मा, अव्यय जानता है, उसे बोध हो जाता है।
15.जीवात्मा के शरीर उसके वस्त्र हैं, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा पुराने शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है। देहस्थ ज्ञान के शरीर उसके वस्त्र हैं, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार यह ज्ञान पुराने शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है।
16.आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते हैं। ज्ञान को शस्त्र नहीं काट सकते हैं।
16.आत्मा को आग में जलाया नहीं जा सकता. ज्ञान को आग में जलाया नहीं जा सकता.
17.आत्मा को जल गीला नहीं कर सकता. ज्ञान को जल गीला नहीं कर सकता.
18.आत्मा को वायु सुखा नहीं सकती। ज्ञान को वायु सुखा नहीं सकती।
19.आत्मा निर्लेप है, नित्य है, शाश्वत है। ज्ञान निर्लेप है, नित्य है, शाश्वत है।
20.आत्मा को छेदा नहीं जा सकता. ज्ञान को छेदा नहीं जा सकता
21.देहस्थआत्माके शरीर उसके वस्त्र हैं, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार यह ज्ञान पुराने शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है। देहस्थ ज्ञान के शरीर उसके वस्त्र हैं, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार यह ज्ञान पुराने शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है।
22.आत्मा को जलाया नहीं जा सकता. ज्ञान को जलाया नहीं जा सकता.
23.आत्मा को गीला नहीं किया जा सकता. ज्ञान को गीला नहीं किया जा सकता
24.आत्मा को सुखाया नहीं जा सकता. ज्ञान को सुखाया नहीं जा सकता.
25.यह आत्मा अचल है, स्थिर है, सनातन है। यह ज्ञान अचल है, स्थिर है, सनातन है।
26.यह आत्मा व्यक्त नहीं किया जा सकता है। ज्ञान अनुभूति का विषय है
27.आत्मा अनुभूति का विषय है। ज्ञान अनुभूति का विषय है
28.आत्मा का चिन्तन नहीं किया जा सकता. ज्ञान का चिन्तन नहीं किया जा सकता.
29.आत्मा बुद्धि से परे है। ज्ञान बुद्धि से परे है। बुद्धि ज्ञान द्वारा संचालित होती है।
30.आत्मा विकार रहित है। ज्ञान विकार रहित है
31.आत्मा सदा अक्रिय है। ज्ञान सदा अक्रिय है।
32.देह में आत्मा क्रियाशील और मरता जन्म लेता दिखायी देता है। इस देह में ज्ञान क्रियाशील और मरता जन्म लेता दिखायी देता है।
33.आत्मतत्त्व एक आश्चर्य है, आश्चर्य इसे इसलिए कहा है कि अक्रिय होते हुए भी यह सब कुछ करता दिखायी देता है। ज्ञान एक आश्चर्य है, आश्चर्य इसे इसलिए कहा है कि अक्रिय होते हुए भी यह सब कुछ करता दिखायी देता है।
34.आत्मा निराकार है। ज्ञान निराकार है।
35.आत्मा अजन्मा है, फिर भी जन्म लेते हुए, मरते हुए दिखायी देता है।. ज्ञान अजन्मा है, फिर भी जन्म लेते हुए, मरते हुए दिखायी देता है।
36.आत्मा इस देह में अवध्य है। ज्ञान इस देह में अवध्य है।
37.आत्मा को कैसे ही, किसी भी प्रकार, किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता. ज्ञान को कैसे ही, किसी भी प्रकार, किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता.
38.आत्मामरण धर्मा प्राणी अथवा पदार्थ नहीं है। ज्ञान मरण धर्मा प्राणी अथवा पदार्थ नहीं है।
39.आत्मा ही विश्वात्मा है। इस शरीर में आत्मा ही अधिदैव और अधियज्ञ दोनों रूप से प्रतिष्ठित हैं। अधिदैव के रूप में वह कर्ता भोक्ता है तो अधियज्ञ के रूप में दृष्टा है। ज्ञान ही विश्वात्मा है। इस शरीर में ज्ञान ही अधिदैव और अधियज्ञ दोनों रूप से प्रतिष्ठित हैं। अधिदैव के रूप में वह कर्ता भोक्ता है तो अधियज्ञ के रूप में दृष्टा है।
40.आत्मा ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है। ज्ञान ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है।
41.आत्म शक्ति से ही यह सम्पूर्ण जगत चेष्टा करता है श्री ब्रह्मा और श्री हरि विष्णु आत्म शक्ति से ही उत्पत्ति एवं जगत पालन का कार्य करते हैं। ज्ञान शक्ति से ही यह सम्पूर्ण जगत चेष्टा करता है श्री ब्रह्मा और श्री हरि विष्णु ज्ञान शक्ति से ही उत्पत्ति एवं जगत पालन का कार्य करते हैं।
42.आत्मा ही इस सृष्टि का आदि अन्त और मध्य है अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि आत्मा से ही जन्मती है, आत्मा में ही स्थित रहती है और आत्मा में ही ही लय हो जाती है। आत्मा ही सृष्टि का बीज है और सृष्टि का विस्तार भी आत्मा ही है और यह जगत आत्मा का ही रूप है। ज्ञान ही इस सृष्टि का आदि अन्त और मध्य है अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि ज्ञानसे ही जन्मती है, ज्ञानमें ही स्थित रहती है औरज्ञान में ही ही लय हो जाती है। ज्ञानही सृष्टि का बीज है और सृष्टि का विस्तार भी ज्ञान ही है और यह जगत ज्ञान का ही रूप है।
43.आत्मा की ज्ञान शक्ति ही क्रियाशक्ति उत्पन्न करती है। उससे सभी प्रकृति के तत्व बुद्धि मन इन्द्रियाँ अनेकानेक कार्य करने लगती हैं। आत्मा सदा अकर्ता अक्रिय है। ज्ञान की ज्ञान शक्ति ही क्रियाशक्ति उत्पन्न करती है। उससे सभी प्रकृति के तत्व बुद्धि मन इन्द्रियाँ अनेकानेक कार्य करने लगती हैं। ज्ञान सदा अकर्ता अक्रिय है।
44.सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है। असत् जिसे जड़ या माया कहते हैं, यह वास्तव में है ही नहीं। जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तब तक सत् और असत् अलग अलग दिखायी देते हैं। ज्ञान होने पर असत् का लोप हो जाता है वह ब्रह्म में तिरोहित हो जाता है। उस समय न दृष्टा रहता है न दृश्य। केवल आत्मतत्व जो नित्य है, सत्य है, सदा है, वही रहता है। सृष्टि का मूल तत्व ज्ञान है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है। असत् जिसे जड़ या माया कहते हैं, यह वास्तव में है ही नहीं। जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तब तक सत् और असत् अलग अलग दिखायी देते हैं। ज्ञान होने पर असत् का लोप हो जाता है वह ब्रह्म में तिरोहित हो जाता है। उस समय न दृष्टा रहता है न दृश्य। केवल आत्मतत्व जो नित्य है, सत्य है, सदा है, वही रहता है।
45.आत्मा परम बोध है। ज्ञान को प्राप्त होना ही परम बोध है।
46.आत्मा महाबुद्धि है। ज्ञान महाबुद्धि है।
47.आत्मा ही ईश्वर है, वही ब्रह्म, परब्रह्म है परम बोध है, अस्मिता है। ज्ञान ही ईश्वर है, वही ब्रह्म, परब्रह्म है परम बोध है, अस्मिता है।
48.आत्मा ही सत् चित आनन्द है। ज्ञान ही सत् चित आनन्द है।
49.आत्मा आकाश के समान निर्लेप और सूर्य के समान अप्रकाश्य है। ज्ञान आकाश के समान निर्लेप और सूर्य के समान अप्रकाश्य है।
50.सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है। सृष्टि का मूल तत्व ज्ञान है। इस मूल तत्त्व की उपलब्धि परम बोध होने पर ही होती है। ज्ञान ही पूर्णता है।
 
(ref- article of Prof basant joshi)
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://rachanakar.blogspot.com/2009/11/blog-post_25.html प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन का आलेख - आत्‍मा एवं परमात्‍मा का भेद तात्‍विक नहीं है; भाषिक है ]
* [http://www.mantra.org.in/Yoga/myweb/Atma_h.htm आत्मा] (भारत विद्या)
 
[[श्रेणी:दर्शन]]
"https://hi.wikipedia.org/wiki/आत्मा" से प्राप्त