"युधिष्ठिर मीमांसक": अवतरणों में अंतर
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परिस्थितिवश दिसम्बर 1925 में पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु तथा पं॰ शंकरदेव 12-13 विद्यार्थियों को लेकर [[काशी]] चले गए। यहाँ एक किराये के मकान में इन विद्यार्थियों का अध्ययन चलता रहा। लगभग ढ़ाई वर्ष के पश्चात् घटनाओं में कुछ परिवर्तन आया जिसके कारण जिज्ञासुजी इनमें से 8-9 छात्रों को लेकर पुनः अमृतसर आ गए। कागज के सुप्रसिद्ध व्यापारी अमृतसर निवासी श्री रामलाल कपूर के सुपुत्रों ने अपने स्वर्गीय पिता की स्मृति में वैदिक साहित्य के प्रकाशन एवं प्रचार की दृष्टि से श्री [[रामलाल कपूर ट्रस्ट]] की स्थापना की थी और इसी महत्त्वपूर्ण कार्य के संचालन हेतु उन्होंने श्री जिज्ञासु को अमृतसर बुलाया था। लगभग साढ़े तीन वर्ष अमृतसर में युधिष्ठिरजी का अध्ययन चलता रहा। कुछ समय बाद जिज्ञासुजी कुछ छात्रों को लेकर पुनः काशी लौटे। उनका इस बार के काशी आगमन का प्रयोजन [[मीमांसा]] दर्शन का स्वयं अध्ययन करने तथा अपने छात्रों को भी इस दर्शन के गम्भीर अध्ययन का अवसर प्रदान कराना था। फलतः युधिष्ठिरजी ने काशी रहकर महामहोपाध्याय पं॰ चिन्न स्वामी शास्त्री तथा पं पट्टाभिराम शास्त्री जैसे मीमांसकों से इस शास्त्र का गहन अनुशीलन किया तथा गुरुजनों के कृपा प्रसाद से इस शुष्क तथा दुरूह विषय पर अधिकार प्राप्त करने में सफल रहे।
मीमांसा का अध्ययन करने के पश्चात् युधिष्ठिरजी अपने गुरु पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु के साथ 1935 में [[लाहौर]] लौटे और [[रावी नदी]] के पार बारहदरी के निकट रामलाल कपूर के परिवार में आश्रम का संचालन करने लगे। भारत-विभाजन तक विरजानन्दाश्रम यहीं पर रहा। 1947 में जब लाहौर [[पाकिस्तान]] में चला गया, तो जिज्ञासुजी भारत आ गए। 1950 में उन्होंने काशी में पुनः [[पाणिनी महाविद्यालय]] की स्थापना की और रामलाल कपूर ट्रस्ट के कार्य को व्यवस्थित किया। पं॰ युधिष्ठिर भी कभी काशी, तो कभी दिल्ली अथवा अजमेर में रहते हुए ट्रस्ट के कामों मे अपना सहयोग देते रहे। उनका सारस्वत सत्र निरन्तर चलता रहा। दिल्ली तथा अजमेर में रहकर उन्होंने ‘‘भारतीय प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान’’ के माध्यम से स्व ग्रन्थों का लेखन व प्रकाशन किया। इस बीच वे 1959-1960 में [[टंकारा]] स्थित दयानन्द जन्मस्थान स्मारक ट्रस्ट के अन्तर्गत अनुसंधान विभाग के अध्यक्ष भी रहे। 1967 से
== कार्य ==
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