"किलाबंदी": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Fortyfikacje.jpg|right|thumb|300px|बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में किलेबन्दी का चित्रात्मक वर्णन]]
'''दुर्गबन्दी''' या '''किलाबंदी''' (fortification) शत्रु के प्रतिरोध और उससे रक्षा करने की व्यवस्था का नाम होता है। इसके अन्तर्गत वे सभी सैनिक निर्माण और उपकरण आते हैं जो अपने बचाव के लिए उपयोग किए जाते हैं (न कि आक्रमण के लिए)। वर्तमान समय में किलाबन्दी [[सैन्य इंजीनियरी]] के अन्तर्गत आती है। यह दो प्रकार की होती है: स्थायी और अस्थायी। स्थायी किलेबंदी के लिए दृढ़ दुर्गों का निर्माण, जिनमें सुरक्षा के साधन उपलब्ध हो, आवश्यक है। अस्थायी मैदानी किलाबंदी की आवश्यकता ऐसे अवसरों पर पड़ती है जब स्थायी किले को छोड़कर सेनाएँ रणक्षेत्र में आमने सामने खड़ी होती हैं। मैदानी किलाबंदी में अक्सर बड़े-बड़े पेड़ों को गिराकर तथा बड़ी बड़ी चट्टानों एवं अन्य साधनों की सहायता से शत्रु के मार्ग में रूकावट डालने का प्रयत्न किया जाता है।
 
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह निष्कर्ष निकला कि स्थायी किलाबंदी धन तथा परिश्रम की दृष्टि से ठीक नहीं है; शत्रु की गति में विलंब अन्य साधनों से भी कराया जा सकता है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि इसका महत्व बिल्कुल ही खत्म हो गया। [[अणुबम]] के आक्रमण में सेनाओं को मिट्टी के टीलों या कंकड़ के रक्षक स्थानों में आना ही होगा। नदी के किनारे या पहाड़ी दर्रों के निकट इन स्थायी गढ़ों का उपयोग अब भी लाभदायक है। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि आधुनिक तृतीय आयोमात्मक युद्ध में स्थायी दुर्गो की उपयोगिता नष्ट हो गई है।
 
== इतिहास ==
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[[द्वितीय विश्वयुद्ध]] में मैदानी मोर्चाबंदी का क्रम इस प्रकार होता था : रक्षार्थ एक स्थान चुना जाता था, खाइयाँ तथा शरणस्थान बनाए जाते थे, फिर सुरंगें लगाकर तथा काँटेदार तार खींचकर शत्रु का मार्ग अवरुद्ध किया जाता था। रक्षात्मक स्थलयुद्ध में ये सब कार्य एक साथ किए जाते थे। मध्य से एक ऐंटी-टैंक खाई भी जाती थी। इस खाई के लगभग 600 गज पीछे रक्षक दल खड़ा होता था जिसमें राइलफलधारी तथा उनके पीछे तोपची खाइयों में खड़े हो जाते थे। इतनी दूरी पर इसलिए खड़े होते थे जिससे मशीनगन तथा छोटी मार्टर बंदूकों द्वारा उन शत्रुओं पर अग्निवर्षा कर सकें जो ऐंटी-टैंक खाई के उस और लगाए गए अवरोधक स्थानों पर आकर अटक गई हों। ऐंटी-टैंक खाई के बाद काँटेदार तार और मुख्य सुरंगें लगाई जाती थीं। इन सुरंगों के बाद फिर काँटेदार तार तथा सुरंगें और इसके बाद भी काँटेदार तार तथा सुरंगें रखी जातीं थीं। रक्षार्थ चुने गए स्थान तथा अवरोधक क्षेत्र में परस्पर 400 से 600 गज तक की दूरी रखी जाती थी। इस मैदानी किलाबंदी से यह लाभ था कि खाइयों में छिपे रहकर भी रक्षक दल को अपने अस्त्र शस्त्र प्रयुक्त करने की हर प्रकार से संभावना थी। अवरोधक भी, विशेषकर सुरंगें, शत्रुओं की आधारशक्ति टैंको को रोकने में बड़ी प्रभावकारी सिद्ध होती थीं।
 
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह निष्कर्ष निकला कि स्थायी किलाबंदी धन तथा परिश्रम की दृष्टि से ठीक नहीं है; शत्रु की गति में विलंब अन्य साधनों से भी कराया जा सकता है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि इसका महत्व बिल्कुल ही खत्म हो गया। [[अणुबम]] के आक्रमण में सेनाओं को मिट्टी के टीलों या कंकड़ के रक्षक स्थानों में आना ही होगा। नदी के किनारे या पहाड़ी दर्रों के निकट इन स्थायी गढ़ों का उपयोग अब भी लाभदायक है। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि आधुनिक तृतीय आयोमात्मक युद्ध में स्थायी दुर्गो की उपयोगिता नष्ट हो गई है।
 
== इन्हें भी देखिये ==
* [[किला]]
 
== संदर्भ ग्रंथ ==
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* विलियम ए. मिशेल: आउटलाइंस ऑव द वर्ल्ड्‌ स मिलिट्री हिस्ट्री;
* बी. एच. लिडेल हार्ट: द डेसिसिव वार्स ऑव हिस्ट्री।
 
== इन्हें भी देखिये ==
* [[दुर्ग]]
 
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://shabdbraham.com/ShabdB/archive/v2/i5/sbd-V2-i5-sn9.pdf आचार्य कौटिल्य द्वारा वर्णित दुर्ग व्यवस्था]
 
[[श्रेणी:सैन्यविज्ञान]]