"गाथा": अवतरणों में अंतर
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गाथ शब्द की उपलब्धि होने पर भी आकारांत शब्द का ही प्रयोग लोकप्रिय है (ऋग्. 9। 99। 4)। गाथा शब्द से बने हुए शब्दों की सत्ता इसके बहुल प्रयोग की सूचिका है। गाथानी एक गीत का नायकत्व करनेवाले व्यक्ति के लिये प्रयुक्त है (ऋग्0 1। 43। 14)। ऋजुगाथ शुद्ध रूप से मंत्रों के गायन करनेवाले के लिये (ऋग. 8। 9। 212) तथा गाथिन केवल गायक के अर्थ में व्यवहृत किया गया है (ऋग्. 5। 44। 5)। यद्यपि इसका पूर्वोक्त सामान्य अर्थ ही बहुश: अभीष्ट है, तथापि ऋग्वेद के इस मंत्र में इसका अपेक्षाकृत अधिक विशिष्ट आशय है, क्योंकि यहाँ यह नाराशंसी तथा रैभी के साथ वर्गीकृत किया गया है:
:''रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी।
▲सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्।।
यह सहवर्गीकरण ऋक संहिता के बाद अन्य वैदिक ग्रंथों में भी बहुश: उपलब्ध होता है (तैत्तिरीय संहिता 7। 5। 11। 2; काठक संहिता 5। 2; ऐतरेय ब्राह्मण 6। 32; कौषीतकि ब्राह्मण 30। 5; शतपथ ब्राह्मण) 11। 5। 6। 8, जहां रैभी नहीं आता तथा गोपथ ब्राह्मण 2। 6। 12) इन तीनों शब्दों के अर्थ के विषय में विद्वानों में मतभेद है। भाष्यकार सायण ने इन तीनों शब्दों को अथर्ववेद के कतिपय मंत्रों के साथ समीकृत किया है। अथर्ववेद के 20वें कांड, 127वें सूक्त का 12वाँ मंत्र गाथा; इसी सूक्त का 1-3 मंत्र नाराशंसी तथा 4-6 मंत्र रैभी बतलाया गया है। इसी समीकरण को डाक्टर ओल्डेनबर्ग ऋग्वेद की दृष्टि में दोषपूर्ण मानते हैं, परंतु डाक्टर ब्लूमफील्ड की दृष्टि में यह समीकरण ऋक संहिता में स्वीकृत किया गया है।
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गाथा की भाषा वैदिक मंत्रों की भाषा से भिन्न है। इसमें वेद के विषम वैयाकरण रूपों का सर्वथा अभाव है तथा पदों का सरलीकरण ही स्फुटततया अभिव्यक्त होता है। गाथाओं के कतिपय उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है :
:''कतरत् त आहराणि दधि मन्था परिश्रुतम।▼
▲कतरत् त आहराणि दधि मन्था परिश्रुतम।
▲जाया पतिं विपृच्छति राष्ट्रे राज्ञ: परीक्षित।।
यह मंत्र प्रसिद्ध कुताप सूक्तों के अंतर्गत आया है, परंतु इसकी शैली तथा वर्ष्य विषय का प्रकार इसे गाथा सिद्ध कर रहे हैं।
[[ऐतरेय ब्राह्मण]] में राजा [[दुष्यंत]] के पुत्र [[भरत]] से संबद्ध गाथा में :
हिरण्येन परीवृतान् कृष्णान् शुक्लदतो मृगान▼
भष्णारे भरतोऽददाच्छतं बद्वानि सप्त च।।▼
भरतस्यैष दौष्यन्तेरग्नि: साची गुणे चित:।▼
▲:''हिरण्येन परीवृतान् कृष्णान् शुक्लदतो मृगान
यस्मिन् सहस्रं ब्राह्मण बद्वशो गा विभेजिरे।। (8। 4)▼
▲:''भष्णारे भरतोऽददाच्छतं बद्वानि सप्त च।।
▲:''भरतस्यैष दौष्यन्तेरग्नि: साची गुणे चित:।
यहाँ ये श्लोक नाम से अभिहित होने पर भी प्राचीन गाथा में हैं जो परंपरा से प्राप्त होती पुराणों तक चली आती है। ऐसी कितनी ही गाथाएँ ब्राह्मण ग्रंथों में उदधृत की गई है।
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