"भाषा दर्शन": अवतरणों में अंतर

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जैसे शब्दनिष्पत्तिव्यवस्थानरूप संस्कृतव्याकरण का सुव्यवस्थित रूप पाणिनि से आरम्भ होता है वैसे ही व्याकरणदर्शन का भी स्पष्ट रूप पाणिनि से ही आरम्भ होता है। यद्यपि पाणिनि ने [[अष्टाध्यायी]] की रचना शब्दानुशासन के निमित्त की थी किन्तु अपनी व्याकरणरचनापद्धति के कारण उन्हें अनेक परिभाषा-सूत्रों की रचना करनी पड़ी। अनेक संज्ञाशब्द बनाने पड़े और पारिभाषिक शब्दों के लक्षण देने पड़े। हम देखते हैं कि आचार्य के इसी अवान्तरप्रतिपादन में व्याकरणदर्शन की एक विस्तृत पृष्ठभूमि स्वयं तैयार हो गई। पाणिनि द्वारा प्रयुक्त विभाषा, पदविधि, आदेश, विप्रतिषेध, उपमान, लिङ्ग, क्रियातिपत्ति, कालविभाग, वीप्सा, प्रत्ययलक्षण, भावलक्षण, शब्दार्थप्रकृति जैसे सैकड़ों शब्द इस बात के प्रतीक हैं कि वे उन दिनों के दार्शनिक वादों से पूर्णरूप से अवगत थे और स्वयं उच्चकोटि के दार्शनिक चिन्तक थे। उनके अनेक [[सूत्र]] अपने आप में एक दर्शन हैं। उदाहरण के रूप में हम निम्न सूत्रों पर दृष्टिपात कर सकते हैंः-
 
: ''स्वतन्त्राः कर्ता (अष्टा.1.4.54),
: ''तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात् (अष्टा.1.2.53),
: ''अर्थवदधतुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् (अष्टा.1.2.45),
: ''कर्मणि च येन संस्पर्शात् कर्त्तुः शरीरसुखम् (अष्टा. 3.3.116),
: ''समुच्चये सामान्यवचनस्य (अष्टा. 3.4.5),
: ''तस्य भावस्त्वतलौ (अष्टा. 5.1.119),
: ''प्रकारे गुणवचनस्य (अष्टा. 8.1.112)।
 
सच तो यह है परवर्ती भाषादर्शन चिन्तकों के लिये पाणिनि प्रमाणभूत आचार्य हैं। बाद के वैयाकरणों ने व्याकरण से सम्बद्ध जो कुछ विचार व्यक्त किये हैं उनका अनुमोदन वे किसी न किसी तरह पाणिनि के सूत्रों से करते हैं।