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इस प्रकार औदात्य अथवा महत्तत्व ही महाकाव्य का प्राण है।
 
==संस्कृत महाकाव्यों की उत्पत्ति एवं विकास==
संस्कृत महाकाव्य के उद्भव और विकास का निरूपण अधेलिखित है-
 
महाकाव्य के विकास का इतिहास हम दो रूपों में करते हैं। (१) रूपगत विकास, (२) शैलीगत विकास
 
'''रूपगत विकास''' के अन्तर्गत सबसे पहले वैदिक काल आता है जिनमें आख्यान, देवस्तुति, भावप्रधनता इत्यादि आते हैं। वीरमहाकाव्य के अन्तर्गत रामायण, महाभारत एवं आाख्यान तत्त्वों की प्रधनता आती है। लौकिक महाकाव्य में कालिदास एवं परवर्ती काव्यकारों ने भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष की उदात्तता पर बल दिया है।
 
महाकाव्य के '''शैलीगत विकास''' में प्रसादात्मक शैली में रामायण, महाभारत, कालिदास, अश्वघोष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है। अलंकारात्मक शैली, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है। श्लेषात्मक शैली, द्वयर्थक काव्यों में प्राप्त होती है। द्वयर्थक काव्य ध्नंजयकृत- द्विसन्धनकाव्य, कविराजसूरिकृत-राघवपाण्डवीय, राघवचूड़ामणिदीक्षितकृत-राघवायादव- पाण्डवीय।
 
'''महाकाव्यों का उद्भव''' [[ऋग्वेद]] के आख्यान सूक्तों- इन्द्र, वरुण, विष्णु और ऊषा आदि के स्तुतिमंत्रों तथा नराशंसी गाथाओं से हुआ है। ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इन अख्यान आदि का विस्तृत रूप मिलता है। यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में बदल गया। क्रौंचवध से दुःखी मनवाले महाकवि [[वाल्मीकि]] के वाणी से निकला व्याध-शाप (मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम्...) वाल्मीकिकृत रामायण के रूप में आदि काव्य के गौरव को प्राप्त कर लिया तथा इसके प्रणेता वाल्मीकि को आदिकवि का गौरव प्राप्त हुआ। वाल्मीकिकृत रामायण तथा [[रामायण]] के बाद [[वेदव्यास]]कृत [[महाभारत]] भी परवर्ती कवियों का उपजीव्य काव्य बन गये।
 
भारतीय परम्परा [[वेद]] को ही काव्य, शास्त्र आदि का उत्पत्तिस्थल मानती रही है। वैदिक मनीषी की सर्वाधिक मनोहर कल्पनायें ऋग्वेद के उषस् सूक्तों में समस्त काव्यात्मक उन्मेष के साथ निकली हुई है। देवस्तुति के अतिरिक्त नाराशंसियों में भी काव्यात्मक रूप झलकता है। तत्कालीन उदार राजाओं की प्रशंसा में नितान्त अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ नाराशंसी कहलाती है। ऐतरेयब्राह्मण की सप्तम पंचिका में [[शुनःशेप]] आख्यान एवं अष्टम पंचिका में ‘ऐन्दमहाभिषेक’के अनेक अंश सुन्दर काव्य की छटा बखिरते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में काव्यतत्त्वों का अस्तित्त्व तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु महाकाव्य शैली का पूर्ण परिपाक कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। संस्कृत महाकाव्य धरा की मूल उद्गम स्थली आदिकाव्य रामायण ही है, जिसमें महाकाव्य की सभी विशेषताओं का दर्शन हो जाता है। संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों की विकास-परम्परा में संस्कृत व्याकरण के ‘मुनित्रय’ - [[पाणिनि]], [[वररुचि]] तथा [[पतंजलि]] का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। आचार्य [[रुद्रट]] द्वारा रचित ‘[[काव्यालंकार सूत्र]]’ के टीकाकार [[नेमिसाधु]] ने पाणिनि द्वारा रचित महाकाव्य ‘जाम्बवतीजय’ या ‘पातालविजय’ का उल्लेख किया है। पतंजलि के [[महाभाष्य]] (ईस्वी पूर्व द्वितीय शती) में काव्यगुणों से सम्पन्न पद्य उपलब्ध होते हैं। इन सब प्रमाणों के आधर पर महाकाव्य का उदय ईस्वी पूर्व की अष्टम शती में ही पाणिनि द्वारा हो चुका था। सूक्तिग्रन्थों में [[राजशेखर]] ने पाणिनि को ‘व्याकरण’ तथा ‘जाम्बवतीजय’ दोनों का रचयिता माना है-
 
: ''नमःपाणिनये तस्मै यस्मादाविरभूदिह। आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।
 
वररुचि के नाम से भी अनेक श्लोक विभिन्न सुभाषित संग्रहों में प्राप्त होते हैं। पतंजलि ने वररुचि के बनाये गये किसी महाकाव्य (वाररुचं काव्यं) का उल्लेख महाभारत में किया है-
 
: ''यथार्थता कथं नाम्नि या भूद वररुचेरिह। व्यध्त्त कण्ठाभरणं यः सदारोहणप्रियः ॥
 
वररुचि-प्रणीत महाकाव्य का नाम ‘[[कण्ठाभरण]]’ है। वररुचि ने पाणिनि का अनुकरण ‘वार्तिक’ लिखकर ही नहीं किया प्रत्युत काव्यरचना से उसकी पूर्ति की। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में दृष्टांत के रूप में बहुत से श्लोकों या श्लोकखण्डों को उद्धृत किया जिनके अनुशीलन से संस्कृत-काव्यधरा की प्राचीनता सिद्ध होती है। काव्य अपने सुन्दर निर्माण तथा रचना के निमित्त शान्त वातावरण, आर्थिक समृद्धि तथा सामाजिक शान्ति की जितनी अपेक्षा रखता है उतनी ही वह किसी गुणग्राही आश्रयदाता की प्रेरणा की भी। प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में वह युग शकों के भयंकर आक्रमणों से भारतीय जनता, धर्म तथा संस्कृति के रक्षक मालव संवत के ऐतिहासिक संस्थापक शकारि मालवगणाध्यक्ष [[विक्रमादित्य]] का है। इसी युग में [[भारतीय संस्कृति]] के उपासक [[कालिदास]] का काव्याकाश में उदय होता है। कालिदास को वस्तुतः प्रौढ़, परिष्कृत, प्रांजल एवं मनोज्ञ काव्यशैली का प्रवर्तक कहा जा सकता है। कालिदासजी ने जो काव्यादर्श उपस्थित किया वह परकालीन कवियों एवं लेखकों के लिये अनुकरणीय हुए।
 
संस्कृत महाकाव्य को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है-
 
:(१) कालिदास के पहले का समय जिसमें कथानक की प्रधनता रही। रामायण और महाभारत इस समय के आदर्श काव्य हैं।
 
:(२) कालिदास का समय जिसमें आडम्बरों से रहित, सहज एवं सरल ढंग से भाव तथा कला का सुन्दर समन्वय स्थापित करके काव्य की धरा प्रवाहित हुई। जैसे : ‘रघुवंशम्’ और ‘कुमारसंभवम्’ आदि।
 
:(३) कालिदास के बाद का समय जिसमें काव्यलेखन भाषा और भाव की दृष्टि से कठिन होता हुआ दिखाई पड़ता है जिसकी परम्परा [[भारवि]] से प्रारम्भ होकर ‘[[श्रीहर्ष]]’ की रचना तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है और एक वैदग्ध तथा पाण्डित्यपूर्ण परम्परा का निर्माण होता है।
 
विद्वानों ने कालिदास के पूर्ववर्ती कवि व्यास और वाल्मीकि को ऋषिकोटि में माना है। इनकी रचनाओं में सरलता और स्वाभाविकता का पुट है। संस्कृत साहित्याकाश में महाकवि ‘भारवि’ का नाम विशेष उल्लेखनीय रहेगा क्योंकि संस्कृत के महाकाव्यों की परम्परा में समय और कवित्व दोनों दृष्टियों से कालिदास के षद भारवि का प्रमुख स्थान है। इनका एक मात्रा कालजयी महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ है जो अपनी अर्थपूर्ण उक्तियों के लिए विद्वान्मण्डली में लोकप्रिय हो गया। इसके षद उसी स्तर का महत्त्वपूर्ण महाकाव्य माघ का ‘शिशुपालवध्म्’ है। संस्कृत-महाकाव्यों की परम्परा में कालक्रम के अनुसार सबसे अन्तिम और महत्त्वपूर्ण काव्य बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखा गया महाकवि श्रीहर्ष का ‘नैषधीयचरितम्’ है। इन्होंने अपने महाकाव्य को तत्कालीन समाज में प्रचलित परम्परा के अनुरूप ही आगे बढ़ाया और उस शैली के विकास को चरम तक पहुँचा दिया।
 
संक्षेप में महाकाव्य के विकास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि आरम्भिक युग में नैसर्गिकता का ही काव्य में मूल्य था, वही गुण आदर की दृष्टि से देखा जाता था। कालान्तर में कवियों ने अपने काव्य में अक्षराडम्बर तथा अंलकारविन्यास की ओर दृष्टिपात किया और उन्हें ही काव्य का जीवन मानने लगे।
 
== संस्कृत के महाकाव्य ==