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== परिचय ==
जो साधक द्वैतभावना का सर्वथा निराकरण कर देता है और उपास्य देवता की सत्ता में अपनी सत्ता डुबा कर अद्वैतानन्द का आस्वादन करता है, वह [[तन्त्र|तांत्रिक भाषा]] में 'दिव्य' कहलाता है और उसकी मानसिक दशा 'दिव्यभाव' कहलाती है। '''कौलाचार''', तांत्रिक आचारों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि यह पूर्ण अद्वैत भावना में रमनेवाले दिव्य साधक के द्वारा ही पूर्णत: गम्य और अनुसरणीय होता है। किन्हीं आचार्यों की सम्मति में '''समयाचार''' ही श्रेष्ठ, विशुद्ध तांत्रिक आचार है तथा कौलाचार उससे भिन्न तांत्रिक मार्ग है। [[शंकराचार्य]] तथा उनके अनुयायी समयाचार के अनुयायी थे तो [[अभिनवगुप्त]] तथा गौडीयशाक्त कौलाचार के अनुवर्ती थे। समयमार्ग में अंतर्योग (हृदयस्थ उपासना) का महत्व है, तो कौल मत में बहिर्योग का। पंच मकार- मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन दोनों में ही आचारों में उपासना के मुख्य साधन हैं। अंतर केवल यह है कि समय मार्गीसमयमार्गी इन पदार्थों का प्रत्यक्ष प्रयोग न करके इनके स्थान पर इनके प्रतिनिधिभूत अन्य वस्तुओं (जिन्हें तांत्रिक ग्रथों में अनुकल्प कहा जाता है) का प्रयोग करता है; कौल इन वस्तुओं का ही अपनी पूजा में उपयोग करता है।
 
[[सौंदर्य लहरी]] के भाष्यकार [[लक्ष्मीधर]] ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों के दो अवांतर भेदों का निर्देश किया है। उनके अनुसार पूर्वकौल [[श्री चक्र]] के भीतर स्थित [[योनि]] की पूजा करते हैं; उत्तरकौल सुंदरी तरुणी के प्रत्यक्ष [[योनि]] के पूजक हैं और अन्य मकारों का भी प्रत्यक्ष प्रयोग करते हैं। उत्तरकौलों के इन कुत्सापूर्ण अनुष्ठानों के कारण कौलाचार [[वामाचार]] के नाम से अभिहित होने लगा और जनसाधारण की विरक्ति तथा अवहेलना का भाजन बना। कौलाचार के इस उत्तरकालीन रूप पर तिब्बती तंत्रों का प्रभाव बहुश: लक्षित होता है। गंधर्वतंत्र, तारातंत्र, रुद्रयामल तथा विष्णायामल के कथानानुसार इस पूजा प्रकार का प्रचार [[महाचीन]] ([[तिब्बत]]) से लाकर वसिष्ठ ने [[कामरूप]] में किया। प्राचीनकाल में [[असम]] तथा [[तिब्बत]] का परस्पर धार्मिक आदान प्रदान भी होता रहा। इससे इस मत की पुष्टि के लिये आधार प्राप्त होता है।
 
== सन्दर्भ ग्रन्थ ==