"दशनामी सम्प्रदाय": अवतरणों में अंतर

छो 36.253.254.215 (Talk) के संपादनों को हटाकर सत्यम् मिश्र के आखिरी अ...
पंक्ति 3:
 
== परिचय ==
कहते हैं, शंकर ने अपने मत के प्रचारार्थ भारतभ्रमण करते समय चार मठों की स्थापना की थी जिनमें उक्त श्रृंगेरी मठ के अतिरिक्त उत्तर में [[जोशीमठ]], पूर्व में [[गोवर्धन मठ]] तथा पश्चिम में [[शारदामठ]] नामों के थे। इन चारों के पृथक्-पृथक् आचार्य क्रमश: हस्तामलक, त्रोटकाचार्य, पद्मपादाचार्य एवं स्वरूपाचार्य बतलाए जाते हैं और इनकी विभिन्न परंपराओं के ही साथ क्रमश: पुरी, भारती एवं सरस्वती, गिरि पर्वत एवं अरण्य तथा तीर्थ एवं आश्रम जैसे उक्त दशनामों के सबंधित होने की भी चर्चा की जाती है। इन चारों में से श्रृगेरी मठ का क्षेत्र आंध्र, द्रविड़, कर्णाटक एवं केरल प्रदेशों तक सीमित समझा जाता है, इसका तीर्थस्थान रामेश्वरम् है, इसका वेद यजुर्वेद है, महावाक्य "अहंब्रह्मास्मि[[अहं ब्रह्मास्मि]]" है, गोत्र "भूरिवर" है और इसके ब्रह्मचारी "चैतन्य" कहलाते हैं जहाँ जोशी मठ के क्षेत्र में उत्तर के कुरु, पांचाल, कश्मीर, कंबोज एवं तिब्बत आदि आ जाते हैं, इसका तीर्थस्थान बदरिकाश्रम है, वेद अथर्ववेद है, महावाक्य "[[अयमात्मा ब्रह्म]]" है, गोत्र "आनंदवर" है तथा इसके ब्रह्मचारी भी "आनंद" कहे जाते हैं। इसी प्रकार गोवर्धनमठ का क्षेत्र भी अंग, वंग, कलिंग, मगध, उत्कल एवं बर्बर तक विस्तृत है, इसका तीर्थस्थान पुरी है, इसका वेद ऋग्वेद है, महावाक्य "[[प्रज्ञानं ब्रह्म]]" है, गोत्र "भोगवर" है तथा इसके ब्रह्मचारी "प्रकाश" कहे जाते हैं जहाँ शारदामठ का क्षेत्र सिंधु, सौवीर, सैराष्ट्रसौराष्ट्र एवं महाराष्ट्र तक चला जाता है। इसका वेद सामवेद है, महावाक्य "[[तत्वमसि]]" है, गोत्र "कीटवर" है तथा इसके ब्रह्मचारी भी "स्वरूप" कहे जाते हैं जो दूसरों से सर्वथा भिन्न है। दशनामियों की 52 गढ़ियाँ भी प्रसिद्ध हैं जिनमें से 27 गिरियों की, 16 पुरियों की, 4 भारतीयों की, 4 वनों की तथा 1 लामा की कही जाती है और तीर्थों, आश्रमों, सरस्वतियों तथा भारतीयों में से आधे अर्थात् साढ़े तीन "दंडी" और शेष छह "गोसाई" कहे जाते हैं।
 
दशनामी साधुओं के प्रत्येक वर्ग में, उनकी आध्यात्मिक दशा के स्तरभेदानुसार चार कोटियाँ हुआ करती हैं जिन्हें क्रमश: कुटीचक्र, बहूदक, हंस एवं परमहंस कहा जाता है और इनमें से प्रथम दो को कभी-कभी "त्रिदंडी" की भी संज्ञा दी जाती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय वा वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं। उन्हें कतिपय विधियों के अनुसार अनुष्ठान करना पड़ता है और उन्हें बतला दिया जाता है कि तुम्हें गैरिक वस्त्र, विभूति एवं रुद्राक्ष को धारण करना पड़ेगा, शिखासूत्र का परित्याग करना होगा तथा दीक्षामंत्र के प्रति पूर्ण निष्ठा रखनी होगी। संन्यास ग्रहण कर लेने पर वे विरक्त होकर तीर्थभ्रमण करते हैं और कभी-कभी अपने सांप्रदायिक मठों में भी रहा करते हैं। इनके दैनिक आचार संबंधी नियमों में रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना, बस्ती से बाहर निवास करना, अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा ग्रहण करना, केवल पृथ्वी पर ही शयन करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी का ही अभिनंदन करना आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जो दशनामी साधु किसी वैसे मठधारी का चेला बनकर उसका उत्तराधिकारी हो जाता है उसे प्रबंधादि भी करने पड़ते हैं।