"कर्नाटक संगीत": अवतरणों में अंतर

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== इतिहास ==
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|भारतीय संगीत के विकास के दौरान हिन्‍दुस्‍तानी और कर्नाटक संगीत के रूप में दो उप भिन्‍न-भिन्‍न शैलियां विकसित हुई जिसका उल्‍लेख 14 वीं शताब्‍दी ई.प. में पाल शासन काल के दौरान संगीतकारों द्वारा लिखित ‘संगीत सुधाकर’ में पहली बार कर्नाट‍क और हिन्‍दुस्‍तानी शब्‍दों के रूप में किया गया है । हिन्‍दुस्‍तानी और कर्नाटक की दो भिन्‍न-भिन्‍न प्रणालियां, मुस्लिमों के आगमन के बाद प्रचलन में आई, विशेष रूप से दिल्‍ली के मुग़ल शासकों के शासन के दौरान । संगीत की दोनों ही पद्धतियॉं एक समान मूल स्रोत से फली-फूलीं। हालांकि भारत के उत्‍तरी भाग के भारतीय संगीत में फारसी और अरबी संगीतकारों के संगीत की कुछ विशेषताओं को शामिल किया गया है जिसने दिल्‍ली के मुगल शासकों के न्‍यायालयों को सुशोधित किया और दक्षिण के संगीत का विकास उसके अपने मूल स्रोत के अनुसार जारी रहा । तथापि उत्‍तर और दक्षिण की दोनों पद्धतियों के मूलभूत पहलू वैसे ही रहे ।
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|यह कहा जाता है कि दक्षिण भारतीय संगीत, जैसा कि वह आज जाना जाता है, मध्‍यकाल में यादवों की राजधानी देवगिरि में फला-फूला और मुसलमानों द्वारा आक्रमण और नगर की लूटपाट के बाद नगर का सम्‍पूर्ण सांस्‍कृतिक जीवन विजयनगर के  कृष्‍णादेव राय के शासन के अधीन विजयनगर के कर्नाटक साम्राज्‍य में संरक्षण प्राप्‍त हुआ। उसके बाद, दक्षिण भारत का संगीत कर्नाटक संगीत के नाम से जाना जाने लगा।
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|वर्ष 1484 में पुरन्‍दरदास के आगमन से कर्नाटक संगीत के विकास में एक अत्‍यंत महत्‍त्‍वपूर्ण घटना घटी । उन्‍होंने कला में पूर्ण व्‍यवस्‍था और शुद्धीकरण के जरिए यह कार्य किया । यह स्थिति आज तक वैसी ही बनी हुई है । उन्‍हें ‘कर्नाटक संगीत का पितामह कहा जाना ठीक ही है । वह न केवल एक रचनाकार थे बल्कि सर्वोच्‍च कोटि के लक्षणकार भी थे । दक्षिण भारतीय संगीत, जैसा कि वह अब है, भावी पीढी के लिए उनका  यह एक विशुद्ध उपहार है । उन्‍होंने संगीत शिक्षा के लिए बुनियादी पैमाने के रूप में मलावागोवला पैमाना लागू किया । उन्‍होंने संगीत सीखने वालों के लिए पाठों की एक श्रृंखला के एक भाग के रूप में श्रेणीबद्ध अभ्‍यास भी तैयार किया । संगीत शिक्षण में यह पद्धति‍ आज भी विद्यमान है । पूरंदरदास द्वारा रचित स्‍वरावालिस, जनता वारिसस, सुलदी सप्‍त ताल, अलंकार और गीतम कला में निपुणता के लिए आधार बनाते हैं । संरचनात्‍मक शैलियों में अनेक लक्ष्‍य गीतम और लक्षणा गीतम, ताना वर्नम, तिल्‍लाना, सुलादी, उगभोग, वृत्‍त नम और कीर्तन उन्‍हीं की देन है । उनके कीर्तनों को दसरा पद अथवा देवर्नम के रूप में जाना जाता है ।
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== इन्हें भी देखें ==
*[[कर्नाटक संगीत की शब्दावली]]