"नाट्य शास्त्र": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Bharatanatyam 6.jpg|right|thumb|250px|भरतनाट्यम आदि भारतीय शास्त्रीय नृत्य, नाट्यशास्त्र से प्रेरित हैं।]]
नाट्यशास्त्र (भारतीय) नाट्य और नृत्त, दृश्य काव्य के ये दो भेद हैं। नट नटी द्वारा किसी अवस्थाविशेष की अनुकृति नाट्य है - 'नाट्यते अभिनयत्वेन रूप्यते- इति नाट्यम्'। ताल और लय की संगति से अनुबद्ध अनुकृत को नृत्त कहते हैं। ये दोनों ही अभिनय के विषय हैं और ललित कला के अंतर्गत माने जाते हैं। नाट्य के प्रमुख अंग चार हैं - वाचिक, सात्विक, आंगिक और आहार्य। उक्ति-प्रत्युक्ति की यथावत् अनुकृति वाचिक अभिनय का विषय है। भावों का यथावत् प्रदर्शन सात्विक अभिनय है। भावप्रदर्शन के लिए हाथ, पैर, नेत्र, भ्रू, एवं कटि, मुख, मस्तक आदि अंगों की विविध चेष्टाओं की अनुकृति आंगिक अभिनय है। देशविदेश के अनुरूप वेशभूषा, चालढाल, रहन सहन और बोली की अनुकृति आहार्य अभिनय का विषय है। चतुर्विध अभिनय के सहायक नृत्य, गीत, वाद्य एवं गति, वृत्ति, प्रवृत्ति और आसन का अनुसंधान भी नाट्य के अंतर्गत है। इस प्रकार अभिनय के विविध अंग एवं उपांगों के स्वरूप और प्रयोग के आकारप्रकार का विवरण प्रस्तुत कर तत्संबंधी नियम तथा व्यवहार को निर्धारित करनेवाला शास्त्र 'नाट्यशास्त्र' है। अभिनय के अनुरूप स्थान को नाट्यगृह कहते हैं जिसके प्रकार, निर्माण एवं साजसज्जा के नियमों का प्रतिपादन भी नाट्यशास्त्र का ही विषय है। विविध श्रेणी के अभिनेता एवं अभिनेत्री के व्यवहार, परस्पर संलाप और अभिनय के निर्देशन एवं निर्देशक के कर्तव्यों का विवरण भी नाट्यशास्त्र की व्यापक परिधि में समाविष्ट है। इसका मुख्य उद्देश्य ऐहिक जीवन की नाना वेदनाओं से परिश्रांत जनता का मनोरंजन है - यह देव, दानव एवं मानव समाज के लिए आमोद प्रमोद का सरल साधन है। यह नयनों की तृप्ति करनेवाला एवं भावोद्रेक का परिमार्जन कर प्रेक्षकवर्ग का आह्लादित करनेवाला मनोरम अनुसंधान है - यह जातिभेद, वर्गभेद, वयोभेद आदि नैसर्गिक एवं सामाजिक विभेदों से निरपेक्ष, भिन्न रुचि की जनता का सामान्य रूप से समाराधन करनेवाला एक कांत, 'चाक्षुषक्रतु' है। इसके प्रवर्तक स्वयं प्रजापति हैं जिन्होंने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्वांगिरस से रस का परिग्रह कर सार्ववर्णिक पंचम वेद का प्रादुर्भाव किया। उमा महादेव ने सुप्रीत हो लोकानुरंजन के हेतु लास्य एवं तांडव का सहयोग देकर इसे उपकृत किया है। वस्तुत: ऐसा कोई शास्त्र, कोई शिल्प, न कोई विद्या और न कोई कला ऐसी है जिसका प्रतिनिधित्व नाट्यशास्त्र में न हो। इस तरह अनुपम दिव्यता से अनुप्राणित नाट्यशास्त्र में न हो। इस तरह अनुपम दिव्यता से अनुप्राणित नाट्यशास्त्र के अधिष्ठाता देव की भी कल्पना, इतर वेद एवं वेदांगों के अधिष्ठाताओं की भाँति, की गई है जिसके स्वरूप का उल्लेख 'नृसिंहप्रासाद' नामक ग्रंथ में मिलता है।
:''नाट्यशास्त्रमिदं रम्यं मृगवक्त्रं जटाधरम्। अक्षसूत्रं त्रिशूलं च विभ्रार्णाच त्रिलोचनम्।''
नाट्य संबंधी नियमों की संहिता का नाम 'नाट्यशास्त्र' है। भारतीय परंपरा के अनुसार नाट्यशास्त्र के आद्य रचयिता स्वयं [[प्रजापति]] माने गए हैं और उसे 'नाट्यवेद' कहकर नाट्यकला को विशिष्ट सम्मान प्रदान किया गया है।
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==भरतमुनि का नाट्यशास्त्र==
इस ग्रंथ में [[प्रत्यभिज्ञा दर्शन]] की छाप है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में स्वीकृत ३६ मूल तत्वों के प्रतीक स्वरूप नाट्यशास्त्र में ३६ अध्याय हैं। पहले अध्याय में नाट्योत्पत्ति, दूसरे में मंडपविधान देने के पश्चात् अगले तीन अध्यायों में
यह ग्रंथ मुख्यत: दो
वस्तुत: यह ग्रंथ नाट्यसंविधान तथा रससिद्धांत की मौलिक संहिता है। इसकी मान्यता इतनी अधिक है कि इसके वाक्य 'भरतसूत्र' कहे जाते हैं। सदियों से इसे आर्ष सम्मान प्राप्त है। इस ग्रंथ में मूलत: १२,००० पद्य तथा कुछ गद्यांश भी था, इसी कारण इसे '
==टीकाएँ==
नाट्यशास्त्र पर अनेक व्याख्याएँ लिखी गईं और भरतसूत्रों के व्याख्याता अपने अपने
== सन्दर्भ ==
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