"उणादि सूत्र": अवतरणों में अंतर

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'''उणादिसूत्र''' का अर्थ है : 'उण' से प्रारंभ होने वाले कृत् [[प्रत्यय|प्रत्ययों]] का ज्ञापन करनेवाले [[सूत्र|सूत्रों]] का समूह। [[नारायण''''कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य भट्ट]]उण्'''' केयह अनुसारउणादि उणादिसूत्रोंका कीप्रारंभिक कुल संख्या 765सूत्र है। यह संख्या [[श्वेतस्वामीशाकटायन]] कीको संख्याउणादिसूत्रों सेका 12कर्ता अधिकमाना है।जाता उणदिसूत्रोंहै केकिन्तु अनेकस्व. प्रसिद्धप्राध्यापक [[टीका]]कारका॰ हुएबा॰ हैं जिनमें [[उज्ज्वलदत्तपाठक]] (इनकाके समयअनुसार, 1250उणादि ई.सूत्रों के लगभगरचयिता मानाशाकटायन जातानहीं है),बल्कि स्वयं [[परमार भोज|भोजपाणिनि]] औरही थे।<ref>[[नारायणhttp://www.transliteral.org/dictionary/%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A8/word भट्टशाकटायन]] आदि प्रमुख हैं। </ref>
 
[[नारायण भट्ट]] के अनुसार उणादिसूत्रों की कुल संख्या 765 है। यह संख्या [[श्वेतस्वामी]] की संख्या से 12 अधिक है। उणदिसूत्रों के अनेक प्रसिद्ध [[टीका]]कार हुए हैं जिनमें [[उज्ज्वलदत्त]] (इनका समय 1250 ई. के लगभग माना जाता है), [[परमार भोज|भोज]] और [[नारायण भट्ट]] आदि प्रमुख हैं।
 
[[पाणिनि]] के समय जो उणादिसूची थी वह कुछ संशोधित रूप में आज भी विद्यमान है। उज्ज्वलदत्त की टीका से युक्त उणादिसूत्र इस समय उपलब्ध हैं। इसका जो वर्तमान रूप है उसमें कुछ बाद के शब्द भी आ गये हैं, जैसे '''दीनार''' (लैटिन- Denarius) जो भारतवर्ष में १०० ई से पूर्व किसी भी स्थिति में नहीं प्रचलित हो सकता था।।
 
== परिचय ==
''''कृवापाजिमिस्वससादिभ्य उण'''' यह उणादि का प्रारंभिक सूत्र है। [[निरुक्त]] में [[यास्क]] ने "नाम" को [[धातु]]ज कहा है और [[शाकटायन]] का उल्लेख किया है। [[शाकटायन]] का इस बात पर विशेष आग्रह था कि नाम धातुज होते हैं। उनके अनुसार व्युत्पन्न एवं अव्युत्पन्न सभी शब्द धातुज हैं और प्रकृति प्रत्ययों के आधार पर उनकी सिद्धि व्युत्पन्न है। अपने इस आग्रह और दृष्टिकोण को सुव्यक्त करने की दृष्टि से उन्होंने "उणादि सूत्रों" का निर्माण किया और सभी शब्दों को धातुज सिद्ध किया। [[महाभाष्य]] और [[काशिका]] द्वारा इसका निर्देश प्राप्त होता है ("बाहुलकं प्रकृतेस्तनुदृष्टे" आदि के द्वारा) और इन उणादिकों की प्रकृति, उनकी स्थिति का संक्षेपत: पूर्ण विवेचन भी हो जाता है।
 
ऐसे शब्दों को भी धातु प्रत्यय द्वारा सिद्ध करने की प्रक्रिया, जो व्युत्पन्न न हों, [[पाणिनि]] के समक्ष भी थी। तभी उन्होंने इस प्रकार के शब्दों के वर्ग किए हैं और उनको मान्यता दी है, जैसे संज्ञाप्रमाण अर्थात् लोकव्यवहार में प्रचलन, यथोपदिष्ट और उणादि आदि। "उणादयो बहुलम्" सूत्रनिर्देश से यह स्पष्ट है कि इनकी स्थिति ठीक नहीं है- कहीं इनकी प्रवृत्ति है अर्थात् धात्वर्थ के साथ सुयोज्यता है, कहीं अप्रवृत्ति अर्थात् अयोग्यता, कहीं किसी प्रकार युक्त होना और कहीं नहीं, कभी कुछ और कभी कुछ। इस "बहुलम्" शब्द की विशेषता आचार्यों के शब्दों में इस प्रकार है
: '''क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचित्भाषा क्वचिदन्यमेव। विधेर्विविधानम् बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधम् बाहुलकं वदन्ति।'''
 
तथा उणादि का कार्यनिर्देश इस प्रकार किया है-
: '''क्वचित् सुयोज्याधात्वर्था क्वाप्ययोज्या उणादिषु। क्वचित् कथंचित् योज्या स्यु: वक्ष्यन्ते तत्र तत्र ते।''' आदि।
 
साथ ही उणादि के विश्लेषण का नियम बताते हुए कहा है-
:'''संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्चत तत: परे। कार्याद्विद्यादनूबन्धमेतच्छज्ञस्त्रमुणादिषु।'''
 
अर्थात् जो संज्ञा सामने आए उसमें पहले कौन सी धातु हो सकती है इसे खोजें, तदनंतर प्रत्यय की खोज करें, फिर जो ह्रस्वत्व-दीर्घत्व आदि विकार हुआ है उसके विचार से अनुबंध लगा लें -- यह उणादि का शास्त्र है। कालांतर में उणादि नियमों के प्रयोग में सावधानी न रखने के कारण यह केवल [[वैयाकरण|वैयाकरणों]] को तोष देनेवाला ही हो सका जिससे इसकी उपयोगिता अपने समग्र रूप में सुव्यक्त न हो सकी।
 
==सन्दर्भ==
{{Reflist}}
 
== इन्हें भी देखें ==
*[[व्याकरण (वेदांग)]]
*[[व्युत्पत्तिशास्त्र]]
*[[शाकटायन]]
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
[[श्रेणी:संस्कृत]]