"हिन्दू देवी-देवता": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Hindu deities montage.png|200px|thumb|हिन्दुओं के कुछ प्रमुख देव (ऊपर से) : [[ब्रह्मा]], [[सरस्वती]], [[लक्ष्मी]], [[विष्णु]], [[शिव]], [[दुर्गा]], [[हरिहर]], और [[अर्धनारीश्वर]]]]
हिंदू [[देववाद]] पर वैदिक, पौराणिक, तांत्रिक और लोकधर्म का प्रभाव है। वैदिक धर्म में [[देवता]]ओं के मूर्त रूप की कल्पना मिलती है। वैदिक मान्यता के अनुसार देवता के रूप में मूलशक्ति सृष्टि के विविध उपादानों में संपृक्त रहती है। एक ही चेतना सभी उपादानों में है। यही चेतना या [[अग्नि]] अनेक स्फुर्लिंगों की तरह (नाना देवों के रूप में) एक ही परमात्मा की विभूतियाँ हैं। (''एकोदेव: सर्वभूतेषु गूढ़:'')।
 
== परिचय ==
 
[[चित्र:Hindu deities montage.png|200px|thumb|हिन्दुओं के कुछ प्रमुख देव (ऊपर से) : [[ब्रह्मा]], [[सरस्वती]], [[लक्ष्मी]], [[विष्णु]], [[शिव]], [[दुर्गा]], [[हरिहर]], और [[अर्धनारीश्वर]]]][[वैदिक काल|वैदिक देवताओं]] का वर्गीकरण तीन कोटियों में किया गया है - पृथ्वीस्थानीय, अंतरिक्षस्थानीय और द्युस्थानीय। अग्नि, वायु और सूर्य क्रमश: इन तीन कोटियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हीं त्रिदेवों के आधार पर पहले 33 और बाद को 33 कोटि देवताओं की परिकल्पना की गई है। 33 देवताओं के नाम और रूप में ग्रंथभेद से बड़ा अंतर है। ‘[[शतपथ ब्राह्मण]]’ (4.5.7.2) में 33 देवताओं की सूची अपेक्षाकृत भिन्न है जिनमें 8 वसुओं, 11 रुद्रों, 12 आदित्यों के सिवा आकाश और पृथ्वी गिनाए गए हैं। 33 से अधिक देवताओं की कल्पना भी अति प्राचिन है। ऋग्वेद के दो मंत्रों में (3.9.9 ; 1.52.6) 3339 देवताओं का उल्लेख है। इस प्रकार यद्यपि मूलरूप में वैदिक देववाद [[एकेश्वरवाद]] पर आधारित है, किंतु बाद को विशेष गुणवाचक संज्ञाओं द्वारा इनका इस रूप में विभेदीकरण हो गया कि उन्होंने धीरे धीरे स्वतंत्र चारित्रिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। उनका स्वरूप चरित्र में शुद्ध प्राकृतिक उपादानात्मक न रहकर धीरे धीरे लोक आस्था, मान्यता और परंपरा का आधार लेकर मानवी अथवा अतिमानवी हो गया।
 
वेदोत्तर काल में पौराणिक [[तंत्र साहित्य (भारतीय)|तांत्रिक साहित्य]] और धर्म तथा लोक धर्म का वैदिक देववाद पर इतना प्रभाव पड़ा कि वैदिक देवता परवर्ती काल में अपना स्वरूप और गुण छोड़कर लोकमानस मे सर्वथा भिन्न रूप में ही प्रतिष्ठापित हुए। परवर्ती काल में बहुत से वैदिक देवता गौण पद को प्राप्त हुए तथा नए देवस्वरूपों की कल्पनाएँ भी हुई। इस परिस्थिति से भारतीय देववाद का स्वरूप और महत्व अपेक्षाकृत अधिक व्यापक हो गया।