[[गणित का इतिहास|गणित के इतिहास]] की दृष्टि से यह नाटक इस कारण महत्वपूर्ण है कि इसमें सुबन्धु ने "शून्यबिन्दु" शब्द का प्रयोग किया है, जो दर्शाता है कि (उनके) पहले से ही '''[[शून्य]]''' को एक बिन्दु के रूप में दर्शाया जाता रहा होगा। शून्य के स्वरूप (आकार) के विषय में ऐसा उल्लेख सबसे पहली बार इसी ग्रन्थ में मिलता है।
: ''विधाता विश्व की गणना करते हैं। उनके पास चाँदरूपी सुधाखण्ड है। अन्धकाररूपी स्याही से काला आकाशरूपी मृगचर्म है। गणना करते हुए विधाता को लगता है कि संसार शून्य है। इसमें कुछ नहीं रखा। तब वे सुधाखण्ड की मदद से मृगचर्म पर तारों के रूप में शून्यबिन्दु बना देते हैं। वही तारे उस कालविशेष में प्रकाशित हो रहे थे।