"वासवदत्ता": अवतरणों में अंतर

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==शून्यबिन्दु==
[[गणित का इतिहास|गणित के इतिहास]] की दृष्टि से यह नाटक इस कारण महत्वपूर्ण है कि इसमें सुबन्धु ने "शून्यबिन्दु" शब्द का प्रयोग किया है, जो दर्शाता है कि (उनके) पहले से ही '''[[शून्य]]''' को एक बिन्दु के रूप में दर्शाया जाता रहा होगा। शून्य के स्वरूप (आकार) के विषय में ऐसा उल्लेख सबसे पहली बार इसी ग्रन्थ में मिलता है।
: '' विश्वं गणयतो विधातुः शशिकठिनीखण्डेन तमोमषीश्यामेऽजिन इव वियति संसारस्यातिशून्यत्वात् '''शून्यबिन्दव''' इव विततास् तारा व्यराजन्तेति।
: '' मुदितम् इवातिमत्तमातङ्गमण्डलमनोहरगण्डमण्डले, फलितम् इवातिसान्द्रबहलच्छदवितततमालकानने, स्फुरितम् इवातिकान्तकान्ताजनघनतरकेशसंहतौ, मलितम् इवेन्द्रनीलमणिरश्मिभिः, अतिशयमांसलं तमोऽवटतटाटवीषु, साटोपम् अतिस्फुटपाटवोत्कटप्रकटविशङ्कटैकविटपोत्कटविनटितषट्पदालिषु, घनतरघोरं, अतिघस्मरविषधरभोगभासुरं, मदभरमत्तदन्तिदन्तद्युतितर्जनजर्जरम् । ततो निशाकरारम्भसमय इव संकुचत्कुवलयव्याजविरचिताञ्जलिपुटे नमति तमितिमिरे, क्षणेन च सन्ध्याताण्डवडम्बरोच्छलितमहानटजटाजूटकूटकुटिलविवरवर्तिजहनुकन्यावारिधाराबिन्दव इव विकीर्णाः, दुर्धरधरणिभारभुग्नभीमदिङ्मातङ्गमण्डलामुक्तशीकरच्छटा इवातितताः, अतिदवीयोनभस्तलभ्रमणखिन्नदिनकरतुरगविसरवान्तफेनस्तबका इव [विस्तीर्णाः], गगनमहासरःकुमुदकाननसन्देहदायिनः, विश्वं गणयतोविधातुः शशिकमठिनीखण्डेन तमोमषीश्यामेऽजिन इव वियति संसारस्यातिशून्यत्वात् '''शून्यबिन्दव''' इव वितताः, जगत्त्रयविजयनिर्गतस्य कुसुमकेतो रतिकरतलविकीर्णलाजा इव, गुलिकास्त्रगुलिका इव पुष्पधनुषः, वियदम्बुराशिफेनस्तबका इव, रतिविरचिता गगनाङ्गणे आतर्पणपञ्चाङ्गुलय इव, व्योमलक्ष्मीहारमुक्तानिकरा इव, चन्द्रचिताचक्राद् वात्यावेगव्यस्ता कामकीकसखण्डा इव, तिमिरोद्गमधूमधूमलसन्ध्यामलाहितगगनमहास्थलीमहाकटाहभृज्ज्यमानस्फुटितलाजानुकारास् तारा व्यराजन्त । ताभिश् च श्वित्रीव वियद् अशोभत ।
: ''विधाता विश्व की गणना करते हैं। उनके पास चाँदरूपी सुधाखण्ड है। अन्धकाररूपी स्याही से काला आकाशरूपी मृगचर्म है। गणना करते हुए विधाता को लगता है कि संसार शून्य है। इसमें कुछ नहीं रखा। तब वे सुधाखण्ड की मदद से मृगचर्म पर तारों के रूप में शून्यबिन्दु बना देते हैं। वही तारे उस कालविशेष में प्रकाशित हो रहे थे।
 
==सन्दर्भ==