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[[चित्र:Jain meditation.jpg|right|thumb|300px|जैन तपस्वी]]
[[Image:Fire rituals at a Hindu Wedding, Orissa India.jpg|right|thumb|300px|[[अग्नि]] को सर्वश्रेष्ठ तपस्वी माना जाता है। [[हिन्दू]] [[विवाह]] आदि के समय वर-कन्या अग्नि को ही साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करते हैं।]]
'''तपस्''' या '''तप''' का मूल अर्थ था [[प्रकाश]] अथवा प्रज्वलन जो [[सूर्य]] या [[अग्नि]] में स्पष्ट होता है।<ref>[https://books.google.com/books?id=uqlRAAAAcAAJ Monier Williams (1872). A Sanskrit-English Dictionary: Etymologically and philologically arranged. Clarendon Press, Oxford. p. 363.</ref> किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया और किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा।
 
== परिचय ==
कुछ विदेशी विद्वान् (यथा-गेडेन, इंसाइक्लोपीडिया ऑव रेलिजन ऐंड इथिक्स्, जिल्द 2, पृष्ठ 88) तपस्या में निहित विचारों को आर्य और वैदिक न मानकर अवैदिक आदिवासियों की देन मानते हैं। किंतु यह सही नहीं प्रतीत होता। अनार्य और अवैदिक तत्व धीरे-धीरे वैदिक समाज के शूद्र वर्ग में समाहित हो गए, जिन्हें तपस्या का अधिकार प्राचीन धर्म और समाज के नेताओं ने दिया ही नहीं। विपरीत आचरण करने वाले शंबूक जैसे तपस्वी शूद्र तो दंडित भी हुए। यदि तपस् की विचारधारा का प्रारंभ उन अनार्य (शूद्र) तत्वों से हुआ होता तो यह परिस्थिति असंभव होती। वास्तव में तपस् की भावना का विकास चार [[पुरुषार्थ|पुरुषार्थो]] और चार आश्रमों के सिद्धांत के विकास का परिणाम था। ये सभी विचार उत्तर वैदिक युग की ही देन हैं और यदि [[ऋग्वेद]] में तपस् का कोई विशेष उल्लेख न मिले तो इसमें आश्चर्य नहीं। हाँ तपस् का वह स्वरूप, जो तांत्रिक और गुह्यक होता है तथा जिसका उद्देश्य दूसरे को हानि पहुँचाना अथवा दूसरे के आक्रमण से अपने को बचाना होता है, अनार्य तत्वों से शूद्र अवश्य प्रभावित प्रतीत होता है। मूलत: [[मोक्ष]] की प्राप्ति का इच्छुक संन्यासी[[सन्यास|सन्यासी]] ही तपश्चर्या में रत हुआ। ब्राहम्णों और [[उपनिषद|उपनिषदों]] में उसकी चर्चाएँ मिलने लगती हैं और [[ब्रह्म]] की प्राप्ति उसका उद्देश्य हो जाता है। सर्वस्वत्याग उसके लिये आवश्यक माना गया और यह समझा जाने लगा कि संसार में आवागमन के बंधनों से मुक्त होने के लिये [[वैराग्य]] ही नहीं नैतिक जीवन भी आवश्यक है। अत: जीवन के सभी सुखों का त्याग ही नहीं, शरीर को अनेक प्रकार से जलाना (तपस्) अथवा कष्ट देना भी प्रारंभ हो गया।
 
कुछ विदेशी विद्वान् (यथा-गेडेन, इंसाइक्लोपीडिया ऑव रेलिजन ऐंड इथिक्स्, जिल्द 2, पृष्ठ 88) तपस्या में निहित विचारों को आर्य और वैदिक न मानकर अवैदिक आदिवासियों की देन मानते हैं। किंतु यह सही नहीं प्रतीत होता। अनार्य और अवैदिक तत्व धीरे-धीरे वैदिक समाज के शूद्र वर्ग में समाहित हो गए, जिन्हें तपस्या का अधिकार प्राचीन धर्म और समाज के नेताओं ने दिया ही नहीं। विपरीत आचरण करने वाले शंबूक जैसे तपस्वी शूद्र तो दंडित भी हुए। यदि तपस् की विचारधारा का प्रारंभ उन अनार्य (शूद्र) तत्वों से हुआ होता तो यह परिस्थिति असंभव होती।
 
उद्देश्यों की भिन्नता से तपस्या के अनेक प्रकार और रूप माने गए। विद्याध्यायी ब्रह्मचारी, पुत्रकलत्र, धनसंपत्ति तथा ऐहिक सुखों के इच्छुक गृहस्थ, परमात्मा की प्राप्ति, ब्रह्म से लीन और मोक्षलाभ की इच्छा से प्रेरित संन्यासी मनोभिलषित वर अथवा स्त्री चाहनेवाले व्यक्ति, भगवान में लीन भक्त एवं देवीदेवताओं की कृपा चाहनेवाले सर्वसाधारण स्त्रीपुरुष, स्वधर्म और साधारण धर्म का पालन करने वाले साधारण जन आदि अनेक प्रकार के लोग भिन्न भिन्न रूपों में तपस का सिंद्धांत मानते और उसका प्रयोग करते। तपस् की प्रवृति का केंद्र था शरीर को कष्ट देना। उसके जितने ही बहुविध रूप हुए अथवा कठोरता बढ़ी, तपस का उतना ही चरमोत्कर्ष माना गया।
 
उद्देश्यों की भिन्नता से तपस्या के अनेक प्रकार और रूप माने गए। विद्याध्यायी ब्रह्मचारी: पुत्रकलत्र, धनसंपत्ति तथा ऐहिक सुखों के इच्छुक गृहस्थ, परमात्मा की प्राप्ति, ब्रह्म से लीन और मोक्षलाभ की इच्छा से प्रेरित संन्यासी मनोभिलषित वर अथवा स्त्री चाहनेवाले व्यक्ति, भगवान में लीन भक्त एवं देवीदेवताओं की कृपा चाहनेवाले सर्वसाधारण स्त्रीपुरुष, स्वधर्म और साधारण धर्म का पालन करने वाले साधारण जन आदि अनेक प्रकार के लोग भिन्न भिन्न रूपों में तपस का सिंद्धांत मानते और उसका प्रयोग करते। तपस् की प्रवृति का केंद्र था शरीर को कष्ट देना। उसके जितने ही बहुविध रूप हुए अथवा कठोरता बढ़ी, तपस का उतना ही चरमोत्कर्ष माना गया। साधारण तपस्वी वो वत्कलदसन, भूतिशैया, अल्पाहार, जटाजूटधारण, नखवृद्धि, वेदोच्चारण, यज्ञक्रियात्मकता और दयालुता के अभ्यास मात्र तक सीमित रहता था, किंतुकिन्तु उग्र तपस्वी गर्मी की ऋतु में पंचाग्नि (ऊपर से [[सूर्य]] और चारों ओर प्रज्जवलित अग्नि के ताप का सहन), वर्षा में खुलावास, जोड़ेजाड़े में जलनिवास अथवा भीगे कपड़ों को पहिनकर बाहर रहना, तीन समय स्नान, कंदमूलाशन, भिक्षाटन, बस्ती से दूर निवास और शरीर के सभी सुखों को त्याग कर उसे कष्ट देना तपस्या का लक्षण माना जाने लगा। [[शिव]] को प्राप्त करने के लिये [[पार्वती]] की तपस्या ([[कुमारसंभव]], अध्याय 5) इसका प्रमुख उदाहरण है। यही नहीं, एक मुद्रा से, यथा--हाथों को उठाए रखना, चलते रहना अथवा इसी प्रकार के अन्य रूपकों का धारण्धारण- कुछ दिनों अथवा जीवन भर बनाए रखना तम की पराकाष्ठा समझी जाने लगी। आज भी ऐसे अनेक तपस्वी और हठयोगी भारतवर्ष के सभी कोनों, विशेषत: तीर्थों, आश्रमों, नदी के किनारों और पर्वतों की कंदराओं में मिलेंगे। सर्वसाधारण वर्ग और कभी कभी तो सुबोध किंतु विश्वासी और श्रद्धालु समाज भी, ऐसे तपस्वियों का आदर करता रहा है तथा उनमें किसी अतिमानवीय अथवा आध्यात्मिक शक्ति के प्रतिष्ठित होने में विश्वास भी करता रहा है। किंतु समालोचक बुद्धि से युक्त बुद्धिजीवी वर्ग ने उसपर कितनी आस्था रखी है यह कह सकना कठिन है।
 
पाश्चात्य देशों के लोग यह मान लेते हैं कि पौर्वात्यों में कष्टसहन और शारीकिक ताप को अंगीकृत कर लेने की असीम क्षमता है और वे पराधीनता, भौतिक अत्याचार और अन्याय के प्रतिकार में अपने को कष्ट देकर उससे ऊपर उठने अथवा बचने की कोशिश करते हैं। शोपेनहार के मन से इसी कारण पूर्व के देशों में एक निराशावाद और दुखवाद का जन्म हुआ, जिसके परिलक्षण थे संसार का त्याग, संन्यास, साधु जीवन, शरीर को कष्ट देना और इच्छाओं के दमन की अप्राकृतिक और अमनोवैज्ञानिक प्रवृति। किंतु ऐसा लगता है कि ये विचारक भारतीय जीवन के लक्ष्यों में अर्थ काम की सिद्धि के पीछे उस [[प्रवृत्ति]]मूलक मनोवैज्ञानिक और शुद्ध भौतिक विश्लेषण का उतना ध्यान नहीं करते, जितना [[निवृत्ति]]मूलक मोक्ष के भाव और उसकी प्राप्ति के उपायों का। इसी दृष्टि से तप का जो सामाजिक विश्लेषण [[मनुस्मृति]] में मिलता है वह चिंत्य है। तदनुसार (11-56) चातुर्वर्ण्यों का तप [[धर्मशास्त्र]] विहित उनका [[कर्म]]मात्र है, यथा [[ब्राह्मण]] के द्वारा [[ज्ञान]] की प्राप्ति, [[क्षत्रिय]] के द्वारा समाज की रक्षा, [[वैश्य]] के द्वारा [[कृषि]], गोरक्षा और [[वाणिज्य]] तथा [[शूद्र]] के द्वारा द्विजातियों की सेवा। सामाजिक दष्टि से यह [[स्वधर्म]]- अपने कर्तव्यों का पालन - ही सबमें महत्वपूर्ण तप था।
उद्देश्यों की भिन्नता से तपस्या के अनेक प्रकार और रूप माने गए। विद्याध्यायी ब्रह्मचारी: पुत्रकलत्र, धनसंपत्ति तथा ऐहिक सुखों के इच्छुक गृहस्थ, परमात्मा की प्राप्ति, ब्रह्म से लीन और मोक्षलाभ की इच्छा से प्रेरित संन्यासी मनोभिलषित वर अथवा स्त्री चाहनेवाले व्यक्ति, भगवान में लीन भक्त एवं देवीदेवताओं की कृपा चाहनेवाले सर्वसाधारण स्त्रीपुरुष, स्वधर्म और साधारण धर्म का पालन करने वाले साधारण जन आदि अनेक प्रकार के लोग भिन्न भिन्न रूपों में तपस का सिंद्धांत मानते और उसका प्रयोग करते। तपस् की प्रवृति का केंद्र था शरीर को कष्ट देना। उसके जितने ही बहुविध रूप हुए अथवा कठोरता बढ़ी, तपस का उतना ही चरमोत्कर्ष माना गया। साधारण तपस्वी वो वत्कलदसन, भूतिशैया, अल्पाहार, जटाजूटधारण, नखवृद्धि, वेदोच्चारण, यज्ञक्रियात्मकता और दयालुता के अभ्यास मात्र तक सीमित रहता था, किंतु उग्र तपस्वी गर्मी की ऋतु में पंचाग्नि (ऊपर से सूर्य और चारों ओर प्रज्जवलित अग्नि के ताप का सहन), वर्षा में खुलावास, जोड़े में जलनिवास अथवा भीगे कपड़ों को पहिनकर बाहर रहना, तीन समय स्नान, कंदमूलाशन, भिक्षाटन, बस्ती से दूर निवास और शरीर के सभी सुखों को त्याग कर उसे कष्ट देना तपस्या का लक्षण माना जाने लगा। शिव को प्राप्त करने के लिये पार्वती की तपस्या ([[कुमारसंभव]], अध्याय 5) इसका प्रमुख उदाहरण है। यही नहीं, एक मुद्रा से, यथा--हाथों को उठाए रखना, चलते रहना अथवा इसी प्रकार के अन्य रूपकों का धारण्- कुछ दिनों अथवा जीवन भर बनाए रखना तम की पराकाष्ठा समझी जाने लगी। आज भी ऐसे अनेक तपस्वी और हठयोगी भारतवर्ष के सभी कोनों, विशेषत: तीर्थों, आश्रमों, नदी के किनारों और पर्वतों की कंदराओं में मिलेंगे। सर्वसाधारण वर्ग और कभी कभी तो सुबोध किंतु विश्वासी और श्रद्धालु समाज भी, ऐसे तपस्वियों का आदर करता रहा है तथा उनमें किसी अतिमानवीय अथवा आध्यात्मिक शक्ति के प्रतिष्ठित होने में विश्वास भी करता रहा है। किंतु समालोचक बुद्धि से युक्त बुद्धिजीवी वर्ग ने उसपर कितनी आस्था रखी है यह कह सकना कठिन है।
 
पाश्चात्य देशों के लोग यह मान लेते हैं कि पौर्वात्यों में कष्टसहन और शारीकिक ताप को अंगीकृत कर लेने की असीम क्षमता है और वे पराधीनता, भौतिक अत्याचार और अन्याय के प्रतिकार में अपने को कष्ट देकर उससे ऊपर उठने अथवा बचने की कोशिश करते हैं। शोपेनहार के मन से इसी कारण पूर्व के देशों में एक निराशावाद और दुखवाद का जन्म हुआ, जिसके परिलक्षण थे संसार का त्याग, संन्यास, साधु जीवन, शरीर को कष्ट देना और इच्छाओं के दमन की अप्राकृतिक और अमनोवैज्ञानिक प्रवृति। किंतु ऐसा लगता है कि ये विचारक भारतीय जीवन के लक्ष्यों में अर्थ काम की सिद्धि के पीछे उस प्रवृत्तिमूलक मनोवैज्ञानिक और शुद्ध भौतिक विश्लेषण का उतना ध्यान नहीं करते, जितना निवृत्तिमूलक मोक्ष के भाव और उसकी प्राप्ति के उपायों का। इसी दृष्टि से तप का जो सामाजिक विश्लेषण मनुस्मृति में मिलता है वह चिंत्य है। तदनुसार (11-56) चातुर्वर्ण्यों का तम धर्मशास्त्र विहित उनका कर्ममात्र है, यथा ब्राहमण के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति, क्षत्रिय के द्वारा समाज की रक्षा, वैश्य के द्वारा कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य तथा शुद्र के द्वारा द्विजातियों की सेवा। सामाजिक दष्टि से यह स्वधर्म- अपने कर्तव्यों का पालन - ही सबमें महत्वपूर्ण तप था। [[भगवद्गीता]] में (17-14-19) तो तप और संन्यास के दार्शनिक पक्ष का सर्वात्तम स्वरूप दिखाई देता है।है और उसके शरीरिक, वाचिक और मानसिक तथा सात्विक, राजसी और तामसी प्रकार बताए गए हैं। शारीरिक तप देव, द्विज, गुरु और अहिंसा में निहित होता है, वाचिक तप अनुद्वेगकर वाणी, सत्य और प्रियभाषण तथा स्वाध्याय से होता है और मानसिक तप मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह और भावसंशुद्धि से सिद्ध होता है। इसके साथ ही उत्तम तम तो है सात्विक जो श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है। इसके विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जानेवाला राजस तप अथवा मूढ़तावश अपने को अनेक कष्ट देकर दूसरे को कष्ट पहुँचाने के लिये जो भी तप किया जाता है, वह आदर्श नहीं। स्पष्ट है, भारतीय तपस् में जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है और [[निष्काम कर्म]] उसका सबसे बड़ा मार्ग माना गया है।
 
== इन्हें भी देखें ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/तप" से प्राप्त