"ज्ञानेश्वर": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
Hemant Shesh (वार्ता | योगदान) No edit summary टैग: 2017 स्रोत संपादन |
Hemant Shesh (वार्ता | योगदान) छोNo edit summary टैग: 2017 स्रोत संपादन |
||
पंक्ति 18:
|footnotes=
}}
'''संत ज्ञानेश्वर''' [[महाराष्ट्र]] तेरहवीं सदी के एक महान [[सन्त]] थे
== जीवनी ==
पंक्ति 25:
पिता की छत्रछाया से वंचित से अनाथ भाई-बहन जनापवाद के कठोर आघात सहते हुए शुद्धिपत्र की प्राप्ति के लिये उस समय के सुप्रसिद्ध धर्मक्षेत्र [[पैठण|पैठन]] में आ पहुँचे। ज्ञानदेव ने यहाँ ब्राह्मणों के समक्ष [[भैंसा|भैंसे]] के मुख से [[वेद|वेदोच्चारण]] कराया। इनके इस अलौकिक चमत्कार से प्रभावित हो पैठन (पैठण) के प्रमुख विद्वानों ने ज्ञानदेवादि चारों को शके १२०९ (सन् १२८७) में 'शुद्धिपत्र' प्रदान कर दिया।
उक्त शुद्धिपत्र को लेकर ये चारों [[प्रवरा नदी]] के किनारे बसे नेवासे ग्राम में पहुँचे। ज्ञानदेव के ज्येष्ठ भ्राता निवृत्तिनाथ के [[नाथ संप्रदाय]] के गहनीनाथ से उपदेश मिला था। इन्होंने उस आध्यात्मिक धरोहर को ज्ञानदेव के द्वारा अपनी छोटी बहन मुक्ताबाई तक बराबर पहुँचा दिया। इस प्रकार परमार्थमार्ग में कृतार्थ एवं सामाजिक दृष्टि से पुनीत ज्ञानदेव ने आबालवृद्धों को अध्यात्म का सरल परिचय प्राप्त कराने के उद्देश्य से [[श्रीमद्भगवद्गीता]] पर [[मराठी]] में टीका लिखी। इसी का नाम है '''भावार्थदीपिका''' अथवा '''[[ज्ञानेश्वरी]]'''। इस ग्रंथ की पूर्णता
उन दिनों के लगभग सारे धर्म ग्रंथ [[संस्कृत]] में होते थे और आम जनता संस्कृत नहीं जानती थी अस्तु तेजस्वी बालक ज्ञानेश्वर ने केवल १५ वर्ष की उम्र में ही [[गीता]] पर मराठी में 'ज्ञानेश्वरी'नामक गीता-भाष्य की रचना करके मराठी जनता की उनकी अपनी भाषा में जैसे ज्ञान की झोली ही खोल दी।
इस ग्रंथ की समाप्ति के उपरांत ज्ञानेश्वर ने अपने राजनीतिक सिद्धांतों की स्वतंत्र विवेचना करनेवाले '[[अमृतानुभव]]' नामक दूसरे ग्रंथ का निर्माण किया। इस ग्रंथ के पूर्ण होने के बाद ये चारों भाई-बहन [[आलंदी]] नामक स्थान पर आ पहुँचे। यहाँ से इन्होंने [[योगिराज चांगदेव]] को ६५ ओवियों (पदों) में जो पत्र लिखा वह महाराष्ट्र में '[[चांगदेव पासष्ठी]]' नाम से विख्यात है।
पंक्ति 34:
ज्ञानदेव जब [[तीर्थ]]यात्रा के उद्देश्य से आलंदी से चले उस समय इनके साथ इनके भाई, बहन, दादी, तथा विसोवा खेचर, गोरा कुम्हार आदि अनेक समकालीन [[संत]] थे। विशेषतया नामदेव तथा ज्ञानदेव के आपसी संबंध इतने अधिक स्नेहपूर्ण थे कि ऐसा लगता था मानो इस तीर्थयात्रा के बहाने ज्ञान और कर्म साकार रूप धारण कर एकरूप हो गए हों। तीर्थयात्रा से लौटते हुए ज्ञानदेव [[पंढरपुर]] मार्ग से आलंदी आ पहुँचे। विद्वानों का अनुमान हैं कि ज्ञानदेव ने इसी काल में अपने '[[अभंग|अभंगों]]' की रचना की होगी।
बालक से लेकर वृद्धों तक को [[भक्ति]]मार्ग का परिचय कराकर भागवत धर्म की पुन:स्थापना करने बाद ज्ञानदेव ने आलंदी ग्राम में जीवित समाधि लेने का निश्चय किया। मात्र २१ वर्ष की उम्र में वह इस नश्वर संसार का परित्यागकर समाधिस्थ माधिस्त हो गये। ज्ञानदेव -के समाधिग्रहण का वृत्तांत संत नामदेव ने अत्यंत हृदयस्पर्शों शब्दों में लिखा है। अपने गुरु निवृत्तिनाथ को अंतिम वंदन कर ज्ञानदेव स्थितप्रज्ञ के सम-ान समाधिमंदिर में जा बैठे। तदुपरांत स्वयं निवृत्तिनाथ -ने समाधिमंदिर की द्वारशिला बंद कर दी।
==कृतियाँ==
ज्ञानेश्वर जी की लिखी 'ज्ञानेश्वरी', 'अमृतानुभव', 'चांगदेव पासष्ठी' तथा 'अभंग' जैसी
अपने अभंगों में ज्ञानेश्वर ने तत्वचर्चा की गहराइयों को न नापते हुए अधिकार वाणी से साधारण जनता को आचारधर्म की शिक्षा दी है। फल यह हुआ कि बालकों से वृद्धों तक के मन पर यह अभंगवाणी पूर्ण रूप से प्रतिबिंबित हुई। गुरुकृपा, नामस्मरण और सत्संग ये परमार्थपथ की तीन सीढ़ियाँ हैं, जिनका दिग्दर्शन संत ज्ञानेश्वर ने कराया है।
|