"दयानन्द सरस्वती": अवतरणों में अंतर

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== समाज सुधार के कार्य ==
महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों को दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया।<ref>[http://www.pressnote.in/chantan-news_321396.html यथार्थ वर्णव्यवस्था और दलितोद्धार में महर्षि दयानन्द का योगदान]</ref> वे 'संन्यासी योद्धा' कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धार के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने [[बाल विवाह]] तथा [[सती प्रथा]] का निषेध किया तथा [[विधवा विवाह]] का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवाद के समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूल थे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मञ्चमंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) दरबार के समय १८७८ में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा [[प्राणायाम]] पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासङ्गिकप्रासंगिक तथा युगानुकूल है। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति, मिथ्या भाषावादि, कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्ष तथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने [[न्याय]] की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रन्थों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया।
 
== स्वराज्य के प्रथम सन्देशवाहक ==
स्वामी दयानन्द सरस्वती को सामान्यत: केवल आर्य समाज के संस्थापक तथा समाज-सुधारक के रूप में ही जाना जाता है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए किये गए प्रयत्नों में उनकी उल्लेखनीय भूमिका की जानकारी बहुत कम लोगों को है। वस्तुस्थिति यह है कि पराधीन [[आर्यावर्त]] (भारत) में यह कहने का साहस सम्भवत: सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही किया था कि "आर्यावर्त (भारत), आर्यावर्तियों (भारतीयों) का है"। हमारे [[भारतीय स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम|प्रथम स्वतन्त्रता समर, सन् १८५७ की क्रान्ति]] की सम्पूर्ण योजना भी स्वामी जी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे। वे अपने [[प्रवचन|प्रवचनों]] में श्रोताओं को प्राय: [[राष्ट्रवाद]] का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। १८५५ में [[हरिद्वार]] में जब [[कुम्भ मेला]] लगा था तो उसमें शामिल होने के लिए स्वामी जी ने [[आबू पर्वत]] से हरिद्वार तक पैदल यात्रा की थी। रास्ते में उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रवचन किए तथा देशवासियों की नब्ज टटोली। उन्होंने यह अनुभव किया कि लोग अब अङ्ग्रेजोंअंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके हैं और देश की स्वतन्त्रता के लिए सङ्घर्षसंघर्ष करने को आतुर हो उठे हैं।
 
=== क्रान्ति की विमर्श ===
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हरिद्वार पहुँच कर वहां एक पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा जमाया। वहीं पर उन्होंने पाँच ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जो आगे चलकर सन् १८५७ की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये पाञ्चपांच व्यक्ति थे [[नाना साहेब]], [[अजीमुल्ला खां]], [[बाला साहब]], [[तात्या टोपे]] तथा [[बाबू कुंवर सिंह]]। बातचीत काफी लम्बी चली और यहीं पर यह तय किया गया कि फिरंगी सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार की जाए और उसके बाद एक निश्चित दिन सम्पूर्ण देश में एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाए। जनसाधारण तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) सैनिकों में इस क्रान्ति की आवाज को पहुञ्चानेपहुंचाने के लिए 'रोटी तथा कमल' की भी योजना यहीं तैयार की गई। इस सम्पूर्ण विचार विमर्श में प्रमुख भूमिका स्वामी दयानन्द सरस्वती की ही थी।
 
विचार विमर्श तथा योजना-निर्धारण के उपरान्त स्वामी जी तो हरिद्वार में ही रुक गए तथा अन्य पाञ्चोंपांचों राष्ट्रीय नेता योजना को यथार्थ रूप देने के लिए अपने-अपने स्थानों पर चले गए। उनके जाने के बाद स्वामी जी ने अपने कुछ विश्वस्त साधु संन्यासियों से सम्पर्क स्थापित किया और उनका एक गुप्त सङ्गठनसंगठन बनाया। इस सङ्गठनसंगठन का मुख्यालय इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में महरौली स्थित योगमाया मन्दिर में बनाया गया। इस मुख्यालय ने स्वाधीनता समर में उल्लेखनीय भूमिका निभायी। स्वामी जी के नेतृत्व में साधुओं ने भी सम्पूर्ण देश में क्रान्ति का अलख जगाया। वे क्रान्तिकारियों के सन्देश एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुञ्चातेपहुंचाते, उन्हें प्रोत्साहित करते और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी हथियार उठाकर अङ्ग्रेजोंअंग्रेजों से सङ्घर्षसंघर्ष करते। सन् १८५७ की क्रान्ति की सम्पूर्ण अवधि में राष्ट्रीय नेता, स्वामी दयानन्द सरस्वती के निरन्तर सम्पर्क में रहे।
 
स्वतन्त्रता-सङ्घर्षसंघर्ष की असफलता पर भी स्वामी जी निराश नहीं थे। उन्हें तो इस बात का पहले से ही आभास था कि केवल एक बार प्रयत्न करने से ही स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। इसके लिए तो सङ्घर्षसंघर्ष की लम्बी प्रक्रिया चलानी होगी। हरिद्वार में ही १८५५ की बैठक में बाबू कुंवर सिंह ने जब अपने इस संघर्ष में सफलता की संभावना के बारे में स्वामी जी से पूछा तो उनका बेबाक उत्तर था "स्वतन्त्रता सङ्घर्षसंघर्ष कभी असफल नहीं होता। भारत धीरे-धीरे एक सौ वर्ष में परतन्त्र बना है। अब इसको स्वतन्त्र होने में भी एक सौ वर्ष लग जाएङ्गे।जाएंगे। इस स्वतन्त्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल प्राणों की आहुतियां डाली जाएङ्गी।जाएंगी।" स्वामी जी की यह भविष्यवाणी कितनी सही निकली, इसे बाद की घटनाओं ने प्रमाणित कर दिया। स्वतन्त्रता-सङ्घर्षसंघर्ष की असफलता के बाद जब तात्या टोपे, नाना साहब तथा अन्य राष्ट्रीय नेता स्वामी जी से मिले तो उन्हें भी उन्होंने निराश न होने तथा उचित समय की प्रतीक्षा करने की ही सलाह दी।
 
१८५७ की क्रान्ति के दो वर्ष बाद स्वामी जी ने स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया और उनसे दीक्षा ली। स्वामी विरजानन्द के आश्रम में रहकर उन्होंने वेदों का अध्ययन किया, उन पर चिन्तन किया और उसके बाद अपने गुरु के निर्देशानुसार वे वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुट गए। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने आर्य समाज की भी स्थापना की और उसके माध्यम से समाज-सुधार के अनेक कार्य किए। छुआछूत, सती प्रथा, बाल विवाह, नर बलि, धार्मिक संकीर्णता तथा अन्धविश्वासों के विरुद्ध उन्होंने जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह, धार्मिक उदारता तथा आपसी भाईचारे का उन्होंने समर्थन किया। इन सबके साथ स्वामी जी लोगों में देशभक्ति की भावना भरने से भी कभी नहीं चूकते थे।
 
प्रारम्भ में अनेक व्यक्तियों ने स्वामी जी के समाज सुधार के कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका विरोध किया। धीरे-धीरे उनके तर्क लोगों की समझ में आने लगे और विरोध कम हुआ। उनकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ने लगी। इससे अङ्ग्रेजअंग्रेज अधिकारियों के मन में यह इच्छा उठी कि अगर इन्हें अङ्ग्रेजीअंग्रेजी सरकार के पक्ष में कर लिया जाए तो सहज ही उनके माध्यम से जनसाधारण में अङ्ग्रेजोंअंग्रेजों को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। इससे पूर्व अङ्ग्रेजअंग्रेज अधिकारी इसी प्रकार से अन्य कुछ धर्मोपदेशकों तथा धर्माधिकारियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपनी तरफ मिला चुके थे। उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती को भी उन्हीं के समान समझा। तद्नुसार एक ईसाई पादरी के माध्यम से स्वामी जी की तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड नार्थब्रुक से मुलाकात करवायी गई। यह मुलाकात मार्च १८७३ में कलकत्ता में हुई।
 
=== अङ्ग्रेजोंअंग्रेजों को तीखा जवाब ===
इधर-उधर की कुछ औपचारिक बातों के उपरान्त लॉर्ड नार्थब्रुक ने विनम्रता से अपनी बात स्वामी जी के सामने रखी- "अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में आप जो ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, क्या उसमें आप अङ्ग्रेजीअंग्रेजी सरकार के कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेङ्गे।सकेंगे।"
 
गर्वनर जनरल की बात सुनकर स्वामी जी सहज ही सब कुछ समझ गए। उन्हें अङ्ग्रेजीअंग्रेजी सरकार की बुद्धि पर तरस भी आया, जो उन्हें ठीक तरह नहीं समझ सकी। उन्होंने निर्भीकता और दृढ़ता से गवर्नर जनरल को उत्तर दिया-
:''मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि राजनीतिक स्तर पर मेरे देशवासियों की निर्बाध प्रगति के लिए तथा संसार की सभ्य जातियों के समुदाय में आर्यावर्त (भारत) को सम्माननीय स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो। सर्वशक्तिशाली परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन मैं यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हों।''
 
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== हत्या का षड्यन्त्र ==
स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही आभास मिलता है कि उसमें निश्चित ही अग्रेजी सरकार का कोई षड्यन्त्र था। स्वामी जी की मृत्यु ३० अक्टूबर १८८३ को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुई थी। उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। यदाकदा महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठकर वहां उनके प्रवचन सुनते। दो-चार बार स्वामी जी भी राज्य महलों में गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए। इससे नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ काञ्चकांच डलवा दिया। थोड़ी ही देर बाद स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसके लिए क्षमा माङ्गी।मांगी। उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पाञ्चपांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे। बाद में जब स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका।
 
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में आशङ्काआशंका यही है कि [[वेश्या]] को उभारने तथा चिकित्सक को बरगलाने का कार्य अङ्ग्रेजीअंग्रेजी सरकार के इशारे पर किसी अङ्ग्रेजअंग्रेज अधिकारी ने ही किया। अन्यथा एक साधारण वेश्या के लिए यह सम्भव नहीं था कि केवल अपने बलबूते पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यक्ति के विरुद्ध ऐसा षड्यन्त्र कर सके। बिना किसी प्रोत्साहन और संरक्षण के चिकित्सक भी ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकता था।
 
== अंतिम शब्द ==
स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द जी का शरीर सन् १८८३ में [[दीवाली|दीपावली]] के दिन पञ्चतत्वपंचतत्व में विलीन हो गया और वे अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धान्त, '''कृण्वन्तो विश्वमार्यम्''' - अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ। उनके अन्तिम शब्द थे - "प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।"
 
== स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार ==
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* [[सरदार वल्लभ भाई पटेल|सरदार पटेल]] के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।
* [[पट्टाभि सीतारमैया]] का विचार था कि [[महात्मा गांधी|गाँधी जी]] राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।
* फ्रेञ्चफ्रेंच लेखक [[रोमां रोलां]] के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।
* अन्य फ्रेञ्चफ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- '''आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।'''
* स्वामी जी को [[बाल गंगाधर तिलक|लोकमान्य तिलक]] ने "[[स्वराज|स्वराज्य]] और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्व्लयमान नक्षत्र थे दयानन्द "
* नेताजी [[सुभाष चन्द्र बोस]] ने "आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता" माना।
* अमरीका की [[हैलीना ब्लावाट्स्की|मदाम ब्लेवेट्स्की]] ने "[[आदि शङ्कराचार्यशंकराचार्य]] के बाद "बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक" माना।
* [[सर सैयद अहमद खाँ|सैयद अहमद खां]] के शब्दों में "स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।"
* [[विनायक दामोदर सावरकर|वीर सावरकर]]  ने कहा महर्षि दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे |
पंक्ति 119:
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* संस्कारविधि
* पंचमहायज्ञविधि
* पञ्चमहायज्ञविधि
* आर्याभिविनय
* गोकरुणानिधि
पंक्ति 126:
* भ्रान्तिनिवारण
* अष्टाध्यायीभाष्य
* वेदांगप्रकाश
* वेदाङ्गप्रकाश
* संस्कृतवाक्यप्रबोध
* व्यवहारभानु