"प्रातिशाख्य": अवतरणों में अंतर
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=== कात्यायनाचार्य कृत वाजसनेयि प्रतिशाख्य ===
इसका संबंध शुक्ल यजुर्वेद से है। यह सूत्रशैली में निर्मित है। इसमें आठ अध्याय हैं। प्रातिशाख्यीय विषय के साथ इसमें पदों के स्वर का विधान (अध्याय 2 तथा 6) और पदपाठ में अवग्रह के नियम (अध्याय 5) विशेष रूप से दिए गए हैं। इस प्रातिशाख्य का एक वैशिष्ट्य यह भी है कि इसमें पाणिनि की घु, घ जैसी संज्ञाओं के समान 'सिम्' (उसमानाक्ष), 'जित्' (क, ख, च, छ आदि) आदि अनेक कृत्रिम संज्ञाएँ दी हुई हैं। इसके 'तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' (1/134) आदि अनेक सूत्र पाणिनि के सूत्रों से अभिन्न हैं। अन्य अनेक प्राचीन आचार्यों के साथ साथ इनमें शौनक आचार्य का भी उल्लेख है। इसपर भी अन्य टीकाओं के साथ साथ उवट की प्राचीन व्याख्या प्रसिद्ध है। इसका प्रोफेसर ए. वेवर (A. Waber) का जर्मन भाषा में
=== तैत्तिरीय प्रातिशाख्य ===
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