"दण्डनीति": अवतरणों में अंतर

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'''दण्ड''', [[राजा]] के लिए निर्दिष्ट चार [[उपाय (राजनय)|उपायों]] (साम, दान, दण्ड, भेद) में से एक है। प्राचीन [[भारतीय संस्कृति]] में '''दण्ड''' (punishment) के सभी पक्षों पर गहनता से विचार हुआ है। दण्ड देने का अधिकार [[राजा]] का था किन्तु राजव्यवस्था के लिए नियुक्त अन्य अधिकारी भी दण्ड दे सकते थे। दण्ड के अलावा [[प्रायश्चित]] की भी व्यवस्था थी। जहाँ दण्ड, राजा के द्वारा दिया जाता था, प्रायश्चित व्यक्ति अपनी इच्छा और विचार से करता था।
 
प्राचीन भारत में राजा को यह निर्देशित था कि [[दण्ड]] द्वारा वह बाह्य तथा अभ्यान्तरिक शत्रुओं का दमन करे। दण्ड नीति का पालन करने वाला व्यक्ति देवताओं से भी पूज्य हो जाता है तथा दण्ड न देने वाले व्यक्ति की प्रसंशा तक नहीं होती है। [[मत्स्य पुराण]] में यह उल्लेख आया है कि दण्ड देने के कारण ही [[इन्द्र]], [[सूर्य]], [[चन्द्र]], [[विष्णु]] एवं अन्य देवताओं की पूजा सभी लोग करते हैं।<ref>[[मत्स्यपुराण]], अध्याय २२४</ref> दण्ड ही एक ऐसा माध्यम है जो अभिमान से उन्मत्त लोगों को वश में करके उन्हें उसका फल चखाता है। इसलिए दण्ड के द्वारा दुर्जन व्यक्ति को वश में करने तथा दण्ड की महिमा को केवल बुद्धिमान लोग ही जानते हैं। चार उपायों में दण्ड को सर्वोत्तम बताया गया हैं।
 
'नीति' शब्द [[संस्कृत]] के 'नी' धातु से निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ नेतृत्व करना अथवा प्राप्त करना हैं। इसी से 'नय' (तर्कशास्त्र) और '[[न्याय]]' (निष्पक्ष निर्णय) शब्द की व्युत्पत्ति हुई हैं। [[कामन्दक]] ने दण्डनीति का लक्षण देते हुए इसकी व्याख्या ‘नयानान्रीतिरुच्यते' (नयन करने से नीति कही जाती है। किये हैं। आजकल की सरल परिभाषा में नीति वह शास्त्र है- जो शुद्ध-अशुद्ध, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ के आधार पर मानव चरित्र का विवेचन करता हैं। सामादि चतुष्टय उपायों में दण्ड का स्थान अन्तिम हैं। राजशास्त्र प्रेणताओं ने अपने ग्रन्थों में शासक को यह निर्देश दिया है कि जब शान्ति के तीनों उपाय विफल हो जाते हैं तब उसे अन्तिम उपाय दण्ड का आश्रय लेना चाहिए।<ref>विष्णुधर्मसूत्र ३/८८, याज्ञवल्क्य स्मृति १/१३/३४५</ref> लालची, क्रूर, आश्रय प्राप्त शत्रु, दुःख देने पर ही संशय छोड़कर वश में आते है। जिसे स्वयं [[लक्ष्मी]] प्राप्त है उसे [[दान]] देने से क्या फल होगा? अर्थात् दुर्जन व्यक्ति के लिए साम नीति का फल शून्य होता हैं। ये सामनीति को मात्र भय का कारण मानते हैं। अतः उन लोगों के लिए दण्ड नीति का आश्रय लेना श्रेयष्कर है।<ref>मत्स्यपुरण १४८/६३-७४</ref> यही कारण है कि विद्वान व्यक्ति दण्ड की प्रसंशा करते हैं। इसी कारण इसे चार उपायों में सर्वोत्तम बताया गया हैं।<ref>[[महाभारत]] शान्तिपर्व १४०/८-९</ref> [[कौटिल्य]] अपने [[अर्थशास्त्र (ग्रन्थ)|अर्थशास्त्र]] में दण्ड की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि तीक्ष्ण, उत्साही, व्यसनी तथा दुर्ग आदि से युक्त शक्तिशाली शत्रु को गूढ़ पुरूष शस्त्र, अग्नि द्वारा मार डाले।<ref>अर्थशास्त्त्र ९/६/६२-६५</ref> इस प्रकार शत्रु के द्वारा किये जाने वाले अपकार हेतु, उसे आक्रान्त करने के लिए जिन उपायों का आश्रय लिया जाता है उसे दण्डोपाय कहते हैं। [[कामन्दक]] ने भी अपने [[नीतिसार]] में दण्ड के तीन भेद स्वीकार करते हुए कहा है कि शत्रु का [[धन]] हरण कर लेना, शारीरिक| कष्ट देना तथा उसका बध कर देना ही दण्ड के तीन भेद हैं। इसके अतिरिक्त अन्य दो प्रकार का भेद बताते हुए 'प्रकाश दण्ड' और 'अप्रकाश दण्ड' का उल्लेख करते हैं। इस सम्बन्ध में उनका विचार है कि प्रजाद्वेषी पुरुष और शत्रु पर प्रकाश (प्रकट) दण्ड का प्रयोग करना चाहिए। जिन दण्डों को देने से प्रजा उत्तेजित हो उस दण्ड को अप्रकाश दण्ड या गुप्त रीति से देना चाहिए।<ref>[[कामन्दक]] [[नीतिसार]] १७/९-१२</ref> [[शुक्राचार्य|शुक्र]] ने भी दण्ड को उसी समय आचरण करने का आदेश देते हैं जिस समय उसे प्राणों का संसय न हो।<ref>[[शुक्रनीति]] ४/१/३४-३५</ref>
 
==सन्दर्भ==
{{टिप्पणीसूची}}
 
==इन्हें भी देखें==