"महाराजा रणजीत सिंह": अवतरणों में अंतर

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== कश्मीर और कोहिनूर ==
[[चित्र:Sikh Empire tri-lingual.jpg|thumb|right|250px|महाराज रणजीत सिंह का साम्राज्य]]
[[चित्र:Statue of Maharaja Ranjit Singh, Amritsar 01.jpg|right|thumb|300px|अमृतसर में महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा]]
बात सन् 1812 की है। पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का एकछत्र राज्य था। उस समय महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद के शिकंजे से कश्मीर को मुक्त कराने का अभियान शुरू किया था। इस अभियान से भयभीत होकर अतामोहम्मद कश्मीर छोड़कर भाग गया। कश्मीर अभियान के पीछे एक अन्य कारण भी था। अतामोहम्मद ने महमूद शाह द्वारा पराजित शाहशुजा को [[शेरगढ़]] के किले में कैद कर रखा था। उसे कैदखाने से मुक्त कराने के लिए उसकी बेगम वफा बेगम ने लाहौर आकर महाराजा रणजीत सिंह से प्रार्थना की और कहा कि मेहरबानी कर आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इस अहसान के बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा आपको भेंट कर दूंगी। शाहशुजा के कैद हो जाने के बाद वफा बेगम ही उन दिनों अफगानिस्तान की शासिका थी। इसी [[कोहिनूर]] को हड़पने के लालच में भारत पर आक्रमण करने वाले अहमद शाह अब्दाली के पौत्र जमान शाह को स्वयं उसी के भाई महमूद शाह ने कैदखाने में भयंकर यातनाएं देकर उसकी आंखें निकलवा ली थीं।
 
जमान शाह अहमद शाह अब्दाली के बेटे तैमूर शाह का बेटा था, जिसका भाई था महमूद शाह। अस्तु, महाराजा रणजीति सिंह स्वयं चाहते थे कि वे कश्मीर को अतामोहम्मद से मुक्त करवाएं। अत: सुयोग आने पर महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को आजाद करा लिया। उनके दीवान मोहकमचंद ने शेरगढ़ के किले को घेर कर वफा बेगम के पति शाहशुजा को रिहा कर वफा बेगम के पास लाहौर पहुंचा दिया। राजकुमार खड्गसिंह ने उन्हें मुबारक हवेली में ठहराया। पर वफा बेगम अपने वादे के अनुसार कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह को भेंट करने में विलम्ब करती रही। यहां तक कि कई महीने बीत गए। जब महाराजा ने शाहशुजा से कोहिनूर हीरे के बारे में पूछा तो वह और उसकी बेगम दोनों ही बहाने बनाने लगे। जब ज्यादा जोर दिया गया तो उन्होंने एक नकली हीरा महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया, जो जौहरियों के परीक्षण की कसौटी पर नकली साबित हुआ। रणजीत सिंह क्रोध से भर उठे और मुबारक हवेली घेर ली गई। दो दिन तक वहां खाना नहीं दिया गया। वर्ष 1813 की पहली जून थी जब महाराजा रणजीत सिंह शाहशुजा के पास आए और फिर कोहिनूर के विषय में पूछा। धूर्त शाहशुजा ने कोहिनूर अपनी पगड़ी में छिपा रखा था। किसी तरह महाराजा को इसका पता चल गया। अत: उन्होंने शाहशुजा को काबुल की राजगद्दी दिलाने के लिए "गुरुग्रंथ साहब" पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा की। फिर उसे "पगड़ी-बदल भाई" बनाने के लिए उससे पगड़ी बदल कर कोहिनूर प्राप्त कर लिया। पर्दे की ओट में बैठी वफा बेगम महाराजा की चतुराई समझ गईं। अब कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंच गया था और वे संतुष्ट थे कि उन्होंने कश्मीर को आजाद करा लिया था। उनकी इच्छा थी कि वे कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान जगन्नाथ को अर्पित करें। हिन्दू मंदिरों को मनों सोना भेंट करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। [[काशी]] के [[काशी विश्वनाथ मन्दिर|विश्वनाथ मंदिर]] में भी उन्होंने अकूत सोना अर्पित किया था। परंतुपरन्तु जगन्नाथ भगवान (पुरी) तक पहुंचने की उनकी इच्छा कोषाध्यक्ष बेलीराम की कुनीति के कारण पूरी न हो सकी।
 
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् अंग्रेजों ने सन् 1845 में सिखों पर आक्रमण कर दिया। [[फिरोजपुर]] क्षेत्र में सिख सेना वीरतापूर्वक अंग्रेजों का मुकाबला कर रही थी। किन्तु सिख सेना के ही सेनापति लालसिंह ने विश्वासघात किया और मोर्चा छोड़कर लाहौर पलायन कर गया। इस कारण विजय के निकट पहुंचकर भी सिख सेना हार गई। अंग्रेजों ने सिखों से कोहिनूर हीरा ले लिया। साथ ही कश्मीर और हजारा भी सिखों से छीन लिए क्योंकि अंग्रेजों ने डेढ़ करोड़ रुपए का जुर्माना सिखों पर किया था, अर्थाभाव-ग्रस्त सिख किसी तरह केवल 50 लाख रुपए ही दे पाए थे। लार्ड हार्डिंग ने इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया को खुश करने के लिए कोहिनूर हीरा लंदन पहुंचा दिया, जो "[[ईस्ट इंडिया कम्पनी]]" द्वारा [[रानी विक्टोरिया]] को सौंप दिया गया। उन दिनों महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र दिलीप सिंह वहीं थे। कुछ लोगों का कथन है कि दिलीप सिंह से ही अंग्रेजों ने लंदन में कोहिनूर हड़पा था। कोहिनूर को 1 माह 8 दिन तक जौहरियों ने तराशा और फिर उसे रानी विक्टोरिया ने अपने ताज में जड़वा लिया।
 
==सन्दर्भ==