"विद्यापति": अवतरणों में अंतर

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कुछ आलोचक उन्हें भक्त भी मानते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि [[निम्बार्क]] द्वारा प्रतिपादित [[द्वैताद्वैत]] सि़द्धान्त के अनुरूप रागानुगाभक्ति का दर्शन इनके पदों में होता है और उनके पदों में राधाकृष्ण की लीलाओं के वर्णन भक्ति-भावना के परिप्रेक्ष्य में देखे जाने चाहिए। डॉ ग्रियर्सन भी इसी मत की ही तरह लिखते हैं- विद्यापति के पद लगभग सब के सब वैष्णव पद या भजन है और सभी हिन्दु बिना किसी काम-भावना का अनुभव किए विद्यापति की पदावली के पदों का गुणगान करते हैं। श्री नगेन्द्र नाथ गुप्त ने तो उन्हें भक्त प्रतिपादित करते हुए विद्यापति के पदों को शुद्ध अध्यात्मभाव से युक्त बताया है। डॉ जनार्दन मिश्र ने विद्यापति की पदावली को आध्यात्मिक विचार तथा दार्शनिक गूढ रहस्यों से परिपूर्ण माना। डॉ [[श्यामसुन्दर दास]] के अनुसार हिन्दी के वैष्णव साहित्य के प्रथम कवि मैथिल कोकिल विद्यापति हैं। उनकी रचनाएं राधा और कृष्ण के पवित्र प्रेम से ओतपोत हैं।
 
कुछ आलोचकों का कहना है कि विद्यापति ने पदावली की रचना [[वैष्णव सम्प्रदाय|वैष्णव साहित्य]] के रूप में की है। कवि [[गीतगोविन्दम्गीतगोविन्द]] की भाँति उनकी पदावली में राधा-कृष्ण की प्रेममयी मूर्ति की झांकी दृष्टिगोचर होती है। उन्होंने अपने इष्ट की उपासना सामाजिक रूप में की है। इस दृष्टिकोण से उन्होंने विद्यापति के उन पदों को उद्धृत किया है जो विद्यापति ने राधा, कृष्ण, गणेश, शिव आदि की वन्दना के लिए लिखे हैं। राधा की वन्दना-विषयक एक पद देखिए-
 
: ''देखदेख राधा-रूप अपार।
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विद्यापति के अनेक पदों से यह स्पष्ट है कि विद्यापति वास्तव में कोई वैष्णव नहीं थे, केवल परम्परा के अनुसार ही उन्होंने ग्रंथ के आरम्भ में [[गणेश]] आदि की वन्दना की हैं। उनके पदों को भी दो भागों में बांट सकते हैं। 1-राधाकृष्ण विषयक, 2 शिवगौरी सम्बन्धी। राधा कृष्ण सम्बन्धी पदों में भक्ति-भावना की उदात्तता एवं गम्भीरता का अभाव हैं तथा इन पदों में वासना की गन्ध साफ दिखाई देती है। धार्मिकता, दार्शनिकता या आध्यात्मिकता को खोजना असम्भव है। शिव-गौरी सम्बन्धी पदों में वासना का रंग नहीं है तथा इन्हें भक्ति की कोटि में रखा जा सकता है। <ref>डॉ गणपति चन्द्र गुप्त, हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, पृ80</ref>10
 
राधा कृष्ण विषयक पदों में विद्यापति ने लौकिक प्रेम का ही वर्णन किया है। राधा और कृष्ण साधारण स्त्रीपुरुष की ही तरह परस्पर प्रेम करते प्रतीत होते हैं तथा भक्ति की मात्रा न के बराबर है। इस तरह कहा जा सकता है कि विद्यापति श्रृंगारीशृंगारी कवि हैं उनके पदों में माधुर्य पग पग पर देखा जा सकता हैं।उन्होंनेहैं। उन्होंने राधाकृष्ण के नामों का प्रयोग आराधना के लिए नहीं किया है अपितु साधारण नायक के रूप मे पेश किया है तथा विद्यापति का लक्ष्य पदावली में श्रृंगार निरूपण करना है। कवि के काव्य का मूल स्थायी भाव श्रृंगार ही है। राज्याश्रित रहते हुए उन्होंने राजा की प्रसन्नता में श्रृंगारपरकशृंगारपरक रचनाएं ही कीं, इसमें सन्देह नहीं।<ref>डॉ राम खिलावन पाण्डे, हिन्दी साहित्य का नया इतिहास, पृ34 </ref> 11 इसके अतिरिक्त विद्यापति के समय में भक्ति की तुलना में श्रृंगारिकशृंगारिक रचना का महत्व अधिक था। [[जयदेव]] की [[गीतगोविन्द]] जैसी रचनाएं इसी कोटि की है।
 
== प्रमुख रचनाएँ ==