"समानता": अवतरणों में अंतर

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== आर्थिक और सामाजिक समानता==
आर्थिक और सामाजिक समानता की अभिधारणा का अर्थ अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग है। आर्थिक समानता से प्रारंभिक उदारवादियों का तात्पर्य केवल यह था कि हर व्यक्ति को, उसकी पारिवारिक या आर्थिक स्थिति चाहे जो हो, अपना धंधा और [[पेशा]] चुनने का अधिकार है और प्रत्येक व्यक्ति को अनुबंध[[अनुबन्ध]] करने की स्वतंत्रता है, ताकि जहाँ तक अनुबंधात्मक दायित्वों का संबंध है, देश के हर व्यक्ति के साथ समान व्यवहार हो सके। धीरे-धीरे स्थिति इस अभिधारणा की दिशा में बदलने लगी कि प्रत्येक को पूर्ण मानव प्राणी के रूप में जीने का समान अवसर प्राप्त हो। (इसमें कोई संदेह नहीं कि यह बदलाव एक हद तक पूँजीवाद की उस समाजवादी और मार्क्सवादी मीमांसा का परिणाम था जिसे सकारात्मक उदारवाद के प्रादुर्भाव से पहले अधिकाधिक स्वीकृति प्राप्त होती जा रही थी और जिसके कारण ही शायद 1917 की रूसी क्रांति हुई उस मीमांसा की स्वीकृति का एक और कारण यह था उसमें आर्थिक समानता पर जोर दिया गया, जिसकी परिभाषा सबके लिए लगभग समान आर्थिक स्थितियों के रूप में की गई।)
 
धीरे-धीरे यह समझा और स्वीकार किया जाने लगा कि समानता का मतलब यह होना चाहिए कि समाज में कोई भी इतना गरीब न हो कि उसके पास बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन न हों और मानसिक तथा शारीरिक विकास के लिए उसे प्राथमिक अवसर सुलभ न हों। रूसो के शब्दों में कहें तो ‘समानता''समानता से हमारा मतलब यह नहीं होना चाहिए प्रत्येक व्यक्ति को बिल्कुल बराबरी की सत्ता और धन प्राप्त होना चाहिए, बल्कि उसका मतलब यह होना चाहिए कि कोई भी नागरिक इतना धनवान न हो कि वह दूसरों को खरीद ले और किसी भी नागरिक को इतना निर्धन न होना चाहिए कि वह बिकने के लिए मजबूर हो जाए।’जाए।'''<ref>रूसो, सोशल कॉन्ट्रैक्ट, जॉर्ज ऐलन एंड अनविन, लंदन, 1924</ref>
 
एच. जे. लास्की ने आर्थिक समानता की सकारात्मक उदारवादी अभिधारणा को परिष्कृत रूप प्रदान किया और समानता का अर्थ जिनके बिना जीवन निरर्थक है उन सभी चीजों की उपलब्धता करायी। उन्होंने कहा कि बुनियादी आवश्यकता की वस्तुएँ तो परिमाण और किस्म के किसी भेद के बिना सभी के लिए सुलभ होनी चाहिए। सभी मनुष्यों को आवश्यक भोजन और आवास सुलभ होना चाहिए। उन्होंने बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति को अवसर की समानता की पूर्व-शर्त माना और उस आर्थिक समानता के लिए आर्थिक असमानता की अति को कम करने की हिमायत की (चाहे यह काम क्रमिक कर-वृद्धि के जरिए किया जाए या गरीबों के लिए राज्य -प्रवर्तित कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से। लास्की जैसे सकारात्मक उदारवादी-चिंतकों और केंस जैसे अर्थशास्त्रियों के प्रभाव के अधीन कल्याणकारी-राज्य की स्थापना के फलस्वरूप ही मिली-जुली अर्थव्यवस्था, विभेदकारी करारोपण आदि की नीतियाँ अपनाई गईं और न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करते हुए मजदूरियों का नियमन और अभिवृद्धि की गई। इन तमाम नीतियों का उद्देश्य अमीरों से पैसा लेकर गरीबों के कल्याण में लगाना था। सकारात्मक उदारवादियों और केंस धारा के अर्थशास्त्रियों का दावा है कि इसने पूंजीवाद को हमेशा के लिए कल्याणकारी व्यवस्था में बदल दिया, गरीबी और आर्थिक असमानता को मिटाने के लिए बहुत-कुछ किया और सभी नागरिकों को आर्थिक समानता की दृष्टि से समान धरातल पर खड़ा कर दिया। महान अर्थशास्त्री जॉन गैलब्रेथ ने तो यहाँ तक दावा किया है कि इसने पश्चिमी दुनिया में आर्थिक असमानता को दशकों के लिए एक बेमानी मसाला बना दिया। पिछले कुछ दशकों के दौरान और खासतौर से 1980 वाले दशक से नव-उदारवादी चिंतन का, जो पुराने क्लासिकी और आरंभिक उदारवादी चिंतन के ही समान है, जोर काफी बढ़ गया है और वह प्रगति की सुई को इस अर्थ में खींच कर पीछे ले आया है कि सकारात्मक उदारवादी कल्याणकारी विचारों से मेल खाते दिखाई देने वाले किसी भी विचार को वे वामपंथी समाजवादी और मार्क्सवादी करार दे देते हैं और इसलिए विश्व-भर में नव-उदारवाद-प्रधान नीति की स्थापनाओं के लिए आँख की किरकिरी बन जाता है।)
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'''सामाजिक समानता''' का मतलब है रंग, लिंग, जाति, लैंगिक प्रवृत्ति आदि के आधार पर भेद -भाव की अनुपस्थिति, समानता के कानूनी, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं से भिन्न, वर्षों से यह महसूस किया जाता रहा है कि बाकी के जो भेद-भाव कुछ समाजों में हजारों साल से विद्यमान रहे हैं उन्हें राजनीतिक और कानूनी अधिकारों आर्थिक विकास और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन की तीव्र प्रगति के बल पर भी कमजोर करना कठिन है। स्त्रियों को इंगलैंड में 1920 वाले दशक में जाकर मताधिकार प्राप्त हुआ। दक्षिण अफ्रीका और संयुक्त राज्य अमेरीका के कुछ हिस्सों में चंद दशक पहले तक कालों को अपने ही देश में बहुत सारे क्षेत्रों से अलग रखा जाता था। कई देशों में मेहतरों को समाज से दूर पृथक्कृत गंदे स्थानों में रहने को मजबूर होना पड़ता है, जिसका कारण न राजनीतिक होता है और न आर्थिक बल्कि होता है सामाजिक मानसिकता। आज भी भारत में ऐसे गाँव हैं जहाँ निचली जातियों के लोगों के साथ ऊपरी जाति के लोग जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं और यदि उनमें से कोई अपनी सूझ-बूझ से धनवान या शक्तिशाली बन जाता है तो भी उसके साथ उसकी जाति के अन्य लोगों से भिन्न व्यवहार नहीं किया जाता है।
 
==नव-उदारवादी चिन्तन==
उधरइधर नव-उदारवादी चिंतन - खासतौर से [[मिल्टन फ्रइडमेन]] और [[एफ.ए. हेक]] द्वारा प्रतिपादित नव-उदारवादी चिंतन - समानता के संबंध में बिल्कुल अलग राग अलापता है। वह मानता है कि समानता और स्वतंत्रता मूलतः एक-दूसरे के विरुद्ध हैं और इसलिए स्वतंत्रता के हक में असमानता को सहन करना चाहिए और आज दुनिया भर में नीति-निर्धारण में - खासतौर से [[अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष]] और [[विश्व बैंक]] के नीति-निर्धारण में इस विचार का जबर्दस्त बोलबाला है।
 
नव-उदारवादी यह भी मानते हैं कि असमानता को सहन करना अंततः संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए अधिकतम लाभदायक सिद्ध होगा, क्योंकि उसके फलस्वरूप निजी आर्थिक गतिविधियों की अभिवृद्धि होगी।) इस चिंतन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
 
*(१) स्वतंत्रता प्राकृतिक है और असमानता भी। इसलिए यह प्रकृति का विधान है कि स्वतंत्रता और समानता परस्पर संगत नहीं है।