"तमिल साहित्य": अवतरणों में अंतर

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इसी शीर्षक के पुस्तक के लिए देखें [[तमिल साहित्य का इतिहास:मिनाक्षी सुंदरम|तमिल साहित्य का इतिहास (पुस्तक)]]
 
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[[तमिल भाषा]] का साहित्य अत्यन्त पुराना है। [[भारत]] में [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] के अलावा तमिल का साहित्य ही सबसे प्राचीन साहित्य है। अन्य भाषाओं की तरह इसे भी सामाजिक आवश्यकताओं ने जन्म दिया है। <ref>Hart, George L. (1975). The poems of ancient Tamil : their milieu and their Sanskrit counterparts. Berkeley: University of California Press. ISBN 0-520-02672-1.</ref>
 
==संगम साहित्य==
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ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर ईसा के पश्चात दूसरी शताब्दी तक (लगभग) लिखे गए [[तमिल साहित्य]] को [[संगम साहित्य]] कहते हैं। [[लोककथा]]ओं के अनुसार [[तमिल]] शासकों ने कुछ समयान्तरालों की अवधि में सम्मेलनों का आयोजन किया जिसमें लेखक अपने ज्ञान की चर्चा तर्क-वितर्क के रूप में करते थे। ऐसा करने से तमिल साहत्य का उत्तरोत्तर विकास हुआ। संगम साहित्य के अन्तर्गत ४७३ कवियों द्वारा रचित २३८१ पद्य हैं। इन कवियों में से कोई १०२ कवि अनाम हैं।
 
दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास के लिये संगम साहित्य की उपयोगिता अनन्य है। इस साहित्य में उस समय के तीन राजवंशों का उल्लेख मिलता है : [[चोल राजवंश|चोल]], [[चेर राजवंश|चेर]] और [[पाण्ड्य राजवंश|पाण्ड्य]]। संगम तमिल कवियों का संघ था जो पाण्ड्य शासको के संरक्षण में हुए थे। कुल तीन संगमों का जिक्र हुआ है।प्रथम संगम [[मदुरई|मदुरा]] में [[अगस्त्य|अगस्त्य ऋषि]] के अध्यक्षता में हुआ था।
 
== नैनार और आलवार साहित्य ==
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== आधुनिककालीन साहित्य ==
[[हिन्दी]] में [[भारतेन्दु हरिश्चंद्र|भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] की भाँति '''तमिल साहित्य''' में [[सुब्रह्मण्य भारती]] (1882-1921) ने ‘निजभाषा-उन्नति’ के मूलमन्त्र के साथ नवजागरण का शंखनाद किया था। भारतेन्दु के समान ही भारती कविता, निबन्ध, गद्यकाव्य, पत्रकारिता, अनुवाद आदि साहित्य की प्रत्येक विधा के पुरोधा रहे। उनकी पहली कहानी ‘छठा भाग’ [[अस्पृश्यता|अछूतों]] के जीवन पर केन्द्रित है। विदेशी सत्ता से देश को स्वाधीन करने के संकल्प के साथ दलितों को उत्पीड़न से मुक्त करने का आह्वान इस कहानी में मुखरित है; फिर भी यह कहानी स्वयं उनके दावे के अनुसार कहानी के अभिलक्षणों पर खरी नहीं उतर पायी। इसके बाद तमिल कहानी की बागडोर [[सुब्रह्मण्य भारती|भारती]] के ही साथी [[व. वे. सु. अय्यर]] के हाथों आयी। उनकी कहानी ‘अरशभरत्तिन् कदै’ (पीपलदादा की कथा) इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है कि अय्यर कहानी की निश्चित एवं विशिष्ट रूप-कल्पना के प्रति सचेत थे।
 
तीस और चालीस के दशक राष्ट्रीय चेतना और सृजनात्मक प्रतिभा की दृष्टि से तमिल साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में एक लघु नवजागरण काल के रूप में उभरे। इस युग में [[संगीत]], [[नृत्य]] और [[साहित्य]] के क्षेत्र में सृजनात्मक प्रतिभा की धनी अनेक विभूतियों का प्रादुर्भाव हुआ। साहित्य के क्षेत्र में सिरमौर माने जानेवाले [[पुदुमैपित्तन]] (1906-1948) ने एक छोटे-से अरसे में सौ से अधिक कहानियाँ रच डालीं- कथ्य और शिल्प, मुहावरा और प्रवाह, तकनीक और शैली हर लिहाज से उत्कृष्ट कहानियाँ। साथ ही यह भी सच है कि पुदुमैपित्तन के सम्पूर्ण लेखन में कड़ुवाहट और निराशावाद का अन्त:स्वर सुनाई देता है।