"भारतेन्दु हरिश्चंद्र": अवतरणों में अंतर

छो बॉट: पुनर्प्रेषण ठीक कर रहा है
पंक्ति 248:
: ''यह बात सिद्ध है कि पश्चिमोत्तर देश की कदापि उन्नति नहीं होगी, जब तक यहाँ की स्त्रियों की भी शिक्षा न होगी क्योंकि यदि पुरुष विद्वान होंगे और उनकी स्त्रियाँ मूर्ख तो उनमें आपस में कभी स्नेह न होगा और नित्य कलह होगी।
 
भारतेन्दु ने अपने 'सत्य हरिश्चन्द्र नाटक' का समापन इस [[भरतवाक्य|भरत-वाक्य]] से किया है-
: ''खलगनन सों सज्जन दुखी मत होइ, हरि पद रति रहै।
: ''उपधर्म छूटै सत्व निज भारत गहै, कर-दुःख बहै॥