"पारसी रंगमंच": अवतरणों में अंतर

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== पारसी रंगमंच की प्रमुख विशेषताएँ ==
पारसी रंगमंच की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
पारसी रंगमंच की चार प्रमुख विशेषताएँ हैं। पहला, [[पर्दा|पर्दों]] का नायाब प्रयोग। मंच पर हर दृश्य के लिए अलग अलग पर्दे प्रयोग में लाए जाते हैं ताकि दृश्यों में गहराई और विश्वसनीयता लाई जा सके। आजकल फिल्मों में अलग अलग लोकेशन दिखाए जाते हैं। पारसी रंगमंच में ये काम पर्दों के सहारे होता है। इसलिए पारसी रंगमंच की मंच सज्जा का विधान बड़ा ही जटिल होता है। दूसरी खासियत उनमें संगीत, नृत्य और गायन का प्रयोग है। पारसी नाटकों में नृत्य और गायन का यही मेल हिंदी फिल्मों में गया। इसी वजह से भारतीय फिल्में पश्चिमी फिल्मों से अलग होने लगीं। तीसरी खूबी वस्त्र सज्जा यानी कॉस्ट्यूम है। पारसी रंगमच पर अभिनेता (या अभिनेत्री) जो कपड़े पहनते हैं उसमें रंगों और अलंकरण का खास ध्यान रखा जाता है। चूंकि दर्शक बहुत पीछे तक बैठे होतें हैं इसलिए उनको ध्यान में ऱखते हुए वस्त्रों और पात्रों के अलंकरण में रंगों की बहुतयात होती है। पारसी रंगमंच की चौथी बड़ी खूबी लंबे संवाद हैं। पारसी नाटकों के संवाद ऊंची आवाज में बोले जाते हैं इसलिए संवादों में अतिनाटकीयता भी रहती है।
*(१) '''[[पर्दा|पर्दों]] का नायाब प्रयोग''' : मंच पर हर दृश्य के लिए अलग अलग पर्दे प्रयोग में लाए जाते हैं ताकि दृश्यों में गहराई और विश्वसनीयता लाई जा सके। आजकल फिल्मों में अलग अलग लोकेशन दिखाए जाते हैं। पारसी रंगमंच में ये काम पर्दों के सहारे होता है। इसलिए पारसी रंगमंच की मंच सज्जा का विधान बड़ा ही जटिल होता है।
 
*(२) '''संगीत, नृत्य और गायन का प्रयोग''' : पारसी नाटकों में [[नृत्य]] और [[गायन]] का यही मेल हिंदी फिल्मों में गया। इसी वजह से भारतीय फिल्में पश्चिमी फिल्मों से अलग होने लगीं।
पारसी थियेटर में गाना एक अहम तत्व था और इसमें अभिनेता अपनी गूढ़ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए गाने का सहारा लेते थे। पारसी थियेटर में एक अभिनेता के लिए एक अच्छा गायक होना बेहतर माना जाता था क्योंकि आधी कहानी गानों में ही चलती थी। पारसी थियेटर का ही प्रभाव है कि आज हमारे हिन्दी फिल्मों में गाने का भरपूर प्रयोग किया जाता है। गानों के बगैर आज भारतीय दर्शक फिल्म को अधूरा मानते हैं। हमारी आधुनिक हिन्दी फिल्में पश्चिम के रिएलिज्म से प्रभावित दिखने लगी है लेकिन आज भी यह पारसी थियेटर की, गाना गाकर बात कहने की परंपरा को कायम रखे हुए है। हिन्दी फिल्मों की सफलता के लिए पासपोर्ट बन चुके ‘आइटम सॉन्ग’ की जड़ें दरअसल पारसी थियेटर तक जाती है और आज भले ही सिनेमा और रंगमंच से इस प्राचीन शैली के अभिनय के तत्व गायब हो गये हों लेकिन इस नाट्य शैली के गाने गाकर अपनी भावनाओं से दर्शकों को उद्वेलित करने की अदा आज भी कायम है।
 
*(३) '''वस्त्र सज्जा (कॉस्ट्यूम)''' : पारसी रंगमच पर अभिनेता (या अभिनेत्री) जो कपड़े पहनते हैं उसमें रंगों और अलंकरण का खास ध्यान रखा जाता है। चूंकि दर्शक बहुत पीछे तक बैठे होतें हैं इसलिए उनको ध्यान में ऱखते हुए वस्त्रों और पात्रों के अलंकरण में रंगों की बहुतयात होती है।
 
*(४) '''लम्बे संवाद''' : पारसी नाटकों के संवाद ऊंची आवाज में बोले जाते हैं, इसलिए संवादों में अतिनाटकीयता भी रहती है।
 
पारसी थियेटर में गाना एक अहम तत्व था और इसमें अभिनेता अपनी गूढ़ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए गाने का सहारा लेते थे। पारसी थियेटर में एक अभिनेता के लिए एक अच्छा गायक होना बेहतर माना जाता था क्योंकि आधी कहानी गानों में ही चलती थी। पारसी थियेटर का ही प्रभाव है कि आज हमारे हिन्दी फिल्मों में गाने का भरपूर प्रयोग किया जाता है। गानों के बगैर आज भारतीय दर्शक फिल्म को अधूरा मानते हैं। हमारी आधुनिक हिन्दी फिल्में पश्चिम के रिएलिज्म से प्रभावित दिखने लगी है लेकिन आज भी यह पारसी थियेटर की, गाना गाकर बात कहने की परंपरापरम्परा को कायम रखे हुए है। हिन्दी फिल्मों की सफलता के लिए पासपोर्ट बन चुके ‘आइटम सॉन्ग’ की जड़ें दरअसल पारसी थियेटर तक जाती है और आज भले ही सिनेमा और रंगमंच से इस प्राचीन शैली के अभिनय के तत्व गायब हो गये हों लेकिन इस नाट्य शैली के गाने गाकर अपनी भावनाओं से दर्शकों को उद्वेलित करने की अदा आज भी कायम है।
 
==सन्दर्भ==