"पृथ्वीराज रासो": अवतरणों में अंतर

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== काव्यगत विशेषताएँ ==
“पृथ्वीराज रासो” हिन्दी का प्रथम [[महाकाव्य]] माना जाता है। 'पृथ्वीराजरासो'यह [[वीर रस]] का [[हिंदी]] का सर्वश्रेष्ठ काव्य है। हिंदी साहित्य में वीर चरित्रों की जैसी विशद कल्पना इस काव्य में मिली वैसी बाद में कभी नहीं दिखाई पड़ी। पाठक रचना भर में उत्साह की एक उमड़ती हुई सरिता में बहता चलता है। कन्नौज युद्ध के पूर्व संयोगिता के अनुराग और विरह तथा उक्त युद्ध के अनंतरअनन्तर पृथ्वीराज संयोगिता के मिलन और केलि विलास के जो चित्र रचना में मिलते हैं, वे अत्यन्त आकर्षक हैं। अन्य रसों का भी इस महाकाव्य में अभाव नहीं है। रचना का वर्णनवैभव असाधारण है; [[नायक नायिका भेद|नायक-नायिका]] के [[संभोग]] समय का [[षड्ऋतु वर्णन]] कहीं -कहीं पर संश्लिष्ट प्रकृतिचित्रण के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। भाषाशैली सर्वत्र प्रभावपूर्ण है और वर्ण्य विषय के अनुरूप बदलती रहती है।
 
महाकाव्य होते हुए भी पृथ्वीराजरासो में प्रबन्ध-निर्वाह का अभाव है। यह भारतीय जीवन की झाँकी नहीं प्रस्तुत कर पाता। इसकी कथा कहीं-कहीं चंद और उसकी पत्नी के बाद-विवाद के रूप में तथा कहीं शुक-शुकी के संवाद के रूप में चलती है। इस ग्रन्थ में शृंगार तथा वीर रस की प्रधानता है। शृंगार के हाव-भाव को प्रकृति के उद्दीपन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। युद्ध क्षेत्र का वर्णन बड़े ही कौशल के साथ किया गया है। [[उपमा अलंकार|उपमा]], [[रूप्करूपक अलंकार|रूपक]], [[उत्प्रेक्षा अलंकार|उत्प्रेक्षा]] आदि अलंकारों का प्रयोग भी अधिक हुआ है।
 
नाना प्रकार की भाषाएँ इस ग्रन्थ में मिलती हैं। बहुत से शब्द तो ऐसे मिलते है जो उस समय के लिखे ही नहीं जान पड़ते। कुछ विद्वान इसके शुक-शुकी-संवाद को ही ग्रन्थ का मूल समझते हैं, शेष को अप्रमाणिक। [[हजारी प्रसाद द्विवेदी]] इसे अर्धप्रमाणिक रचना माना है। उनका कहना है-