"पृथ्वीराज रासो": अवतरणों में अंतर

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== कथा ==
'पृथ्वीराजरासो'राजपुत्र (राजपूत) की कथा संक्षेप में इस प्रकार है : पृथ्वीराज जिस समय दिल्ली के सिंहासन पर था, [[कन्नौज]] के राजा [[जयचन्द]] ने [[राजसूय यज्ञ]] करने का निश्चय किया और इसी अवसर पर उसने अपनी कन्या [[संयोगिता]] का स्वयंवर भी करने का संकल्प किया। राजसूय का निमंत्रण उसने दूर दूर तक के राजाओं को भेजा और पृथ्वीराज को भी उसमें सम्मिलित होने के लिये आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और उसके सामन्तों को यह बात खली कि बहुराजाओं के होते हुए भी कोई अन्य राजसूय यज्ञ करे और पृथ्वीराज ने जयचंद का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। जयचन्द ने फिर भी राजसूय यज्ञ करना ठानकर यज्ञमण्डप के द्वार पर द्वारपाल के रूप में पृथ्वीराज की एक प्रतिमा स्थापित कर दी। पृथ्वीराज स्वभावत: इस घटना से अपमान समझकर क्षुब्ध हुआ। इसी बीच उसे यह भी समाचार मिला कि जयचंद की कन्या संयोगिता ने पिता के वचनों की उपेक्षा कर पृथ्वीराज को ही पति रूप में वरण करने का संकल्प किया है और जयचंद ने इसपर क्रुद्ध होकर उसे अलग गंगातटवर्ती एक आवास में भिजवा दिया है।
 
इन समाचारों से संतप्त होकर वह राजधानी के बाहर आखेट में अपना समय किसी प्रकार बिता रहा था कि उसकी अनुपस्थिति से लाभ उठाकर उसके मंत्री कैवास ने उसकी एक करनाटी दासी से अनुचित संबंध कर लिया और एक दिन रात को उसके कक्ष में प्रविष्ट हो गया। पट्टराज्ञी को जब यह बात ज्ञात हुई, उसने पृथ्वीराज को तत्काल बुलवा भेजा और पृथ्वीराज रात को ही दो घड़ियों में राजभवन में आ गया। जब उसे उक्त दासी के कक्ष में कैवास को दिखाया गया, उसने रात्रि के अंधकार में ही उन्हें लक्ष्य करके बाण छोड़े। पहला बाण तो चूक गया किंतु दूसरे बाण के लगते ही कैंवास धराशायी हो गया। रातो रात दोनों को एक गड्ढे में गड़वाकर पृथ्वीराज आखेट पर चला गया, फिर दूसरे दिन राजधानी को लौटा। कैंवास की स्त्री ने चंद से अपने मृत पति का शव दिलाने की प्रार्थना की तो चंद ने पृथ्वीराज से यह निवेदन किया। पृथ्वीराज ने चंद का यह अनुरोध इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह उसे अपने साथ ले जाकर कन्नौज दिखाएगा। दोनों मित्र कसकर गले मिलते ओर रोए। पृथ्वीराज ने कहा कि इस अपमानपूर्ण जीवन से मरण अच्छा था और उसके कविमित्र ने उसकी इस भावना का अनुमोदन किया। कैंवास का शव लेकर उसकी विधवा सती हो गई।