"हिन्दी प्रदीप": अवतरणों में अंतर

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हिंदी प्रदीप में बहुत ही खरी बातें प्रकाशित होती थी। 1909 अप्रैल के चौथे अंक में माधव शुक्ल ने 'बम क्या है' नामक कविता लिखी जो अंग्रेज सरकार को नागवार लगी और उन्होंने पत्रिका पर तीन हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया। उस समय भट्ट जी के पास भोजन तक के पैसे नहीं थे, जमानत कहां से भरते। विवश होकर उन्हें पत्रिका बंद करनी पड़ी। <ref>[http://www.jagran.com/uttar-pradesh/allahabad-city-11418974.html बालकृष्ण के 'प्रदीप' से परिष्कृत हुई हिंदी] (दैनिक जागरण)</ref>
 
हिन्‍दी प्रदीप लगभग 33 वर्ष तक प्रकाशित होता रहा और प्रकाशन की सम्पूर्ण अवधि तक पं. भट्ट जी ही संपदकसंपादक बने रहे। तत्‍कालीन विषम परिस्थितियों में इतनी लम्बी अवधि तक पत्र का प्रकाशन स्‍वयं में एक उपलब्धि थी। यह भारतेन्‍दु युग के सर्वाधिक दीर्घजीवी पत्रों में से एक था।
 
हिन्‍दी प्रदीप एक साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक और संस्‍कृतिकसांस्‍कृतिक मासिक पत्रथा।पत्र था। इसमें राजनैतिक वयस्‍कता थी,थी। समाज के प्रति दायित्‍व-बोध प्रचुर मात्रा में था। राजनैतिक वयस्‍कता की परिपक्‍वता की झलक हिन्‍दी प्रदीप में प्रकाशित विभिन्‍न नाटकों और संपादकीय अग्रलेखों से स्‍पष्‍ट होती थी। [[पुस्‍तक समीक्षा]] प्रकाशन की पहल हिन्‍दी प्रदीप ने ही की थी।
 
भट्ट जी ने पत्रकारिता का प्रारम्भिक ज्ञान [[रमानन्द चट्टोपाध्याय]] से प्राप्‍त किया था जो [[कायस्थ पाठशाला, प्रयाग]] के प्रिंसिपल थे। भट्ट जी इसी कालिजकॉलेज में [[संस्कृत]] के शिक्षक नियुक्‍त हुए। प्रिंसिपल रहते हुए ही श्री चट्टोपाध्‍याय अंग्रेजी मासिक [[माडर्न रिव्‍यू]] का सम्पादन किया करते थे।
 
14 मार्च 1878 को [[वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट]] परित हुआ जिसके तहत भारतीय प्रेस की स्‍वतंत्रता समाप्‍त कर दी गई। इस अधिनियम की निर्भीक व तीखी आलोचना कर ‘हिन्‍दी प्रदीप’ ने संपूर्ण भारतीय पत्रकारिता का मार्गदर्शन किया था। हिन्‍दी प्रदीप में ‘हम चुप न रहें’ शीर्षक से अग्रलेख प्रकाशित हुआ था जिसमें पाठकों से इस ऐक्‍टएक्‍ट के विरुद्ध आन्दोलन करने का आग्रह किया गया था। तत्‍पश्‍चात अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने अधिनियम का विरोध किया और परिणामस्‍वरूप लॉर्ड रिपन को 19 जनवरी 1882 को यह एक्‍ट वापिसवापस लेना पड़ा।
 
[[देवनागरी]] लिपि को न्‍यायालय-लिपि और कार्यालय-लिपि की मान्‍यता प्रदान कराने की दिशा में हिन्‍दी प्रदीप का बहुमूल्‍य योगदान रहा है। अपने प्रकाशन के दसवें माह से ही इस पत्र ने इस विषय में जोरदार आन्दोलन किया और सम्पूर्ण हिन्‍दी भाषी जनता को जागरूक किया। भट्ट जी ने हिन्‍दी प्रदीप के माध्‍यम से 1878 में कहा था, ‘खैर हिन्‍दी भाषा का प्रचार न हो सके तो नागरी अक्षरों का बरताव ही सरकारी कामों में हो, तब भी हम लोग अपने को कृतार्थ मानें।’ 1896-97 के दौरान हिन्‍दी प्रदीप ने देशी अक्षर अर्थात देवनागरी लिपि और हिन्‍दी भाषा का संयुक्‍त प्रश्‍न खड़ा कर दिया। उस समय कहा गया था कि हमारे अक्षर और हमारी भाषा अदालतों में पदास्‍थापित नहीं हैं।