"अश्वमेध यज्ञ": अवतरणों में अंतर

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== महत्व ==
अश्वमेध एक प्रतीकात्मक 'योग' है जिसके प्रत्येक अंश का गूढ़ रहस्य है। [[ऐतरेय ब्राह्मण]] में अश्वमेधयागी प्राचीन चक्रवर्ती नरेशों का बड़ा ही महत्वशाली ऐतिहासिक निर्देश है। ऐतिहासिक काल में भी वैदिकधर्मानुयायी राजाओं ने अश्वमेध का विधान बड़े ही उत्साह के साथ किया। राजा [[दशरथ]] तथा [[युधिष्ठिर]] के अश्वमेध प्राचीन काल में संपन्न हुए कहे जाते हैं। द्वितीय शती ई.पू. में शुंगवंशी ब्राह्मणनरेश [[पुष्ययमित्र]] ने दो बार अश्वमेध किया था, जिसमें महाभाष्यकर [[पतञ्जलि]] स्वयं उपस्थित थे (''इह पुष्यमित्रं याजयामः'')। गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने भी चौथी सदी ई. में अश्वमेध किया था जिसका परिचय उनकी अश्वमेधीय मुद्राओं से मिलता है। दक्षिण के सतवाहन, चालुक्य और यादव नरेशों ने भी यह परम्परा जारी रखी। इस परम्परा के पोषक सबसे अंतिम राजा [[जयपुर]] के महाराजा [[जय सिंह द्वितीय|सवाई जयसिंह]] प्रतीत होते हैं, जिनके द्वारा किये अश्वमेध यज्ञ का वर्णन [[श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि|श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि]] ने "ईश्वरविलास महाकाव्य" में तथा महानन्द पाठक ने अपनी "अश्वमेधपद्धति" में (जो किसी राजेन्द्र वर्मा की आज्ञा से संकलित अपने विषय की अत्यंत विस्तृत पुस्तक है) में किया है। युधिष्ठिर के अश्वमेध का विस्तृत रोचक वर्णन "जैमिनि अश्वमेध" में मिलता है।
 
==सन्दर्भ==