"ब्रजभाषा साहित्य": अवतरणों में अंतर

No edit summary
No edit summary
पंक्ति 1:
[[ब्रजभाषा]] विक्रम की १३वीं शताब्दी से लेकर २०वीं शताब्दी तक [[भारत]] के मध्यदेश की मुख्य साहित्यिक भाषा एवं साथ ही साथ समस्त भारत की साहित्यिक भाषा थी। विभिन्न स्थानीय भाषाई समन्वय के साथ समस्त भारत में विस्तृत रूप से प्रयुक्त होने वाली [[हिन्दी]] का पूर्व रूप यह ‘ब्रजभाषा‘ अपने विशुद्ध रूप में आज भी [[आगरा]], [[धौलपुर]], [[मथुरा]] और [[अलीगढ़]] जिलों में बोली जाती है जिसे हम 'केंद्रीय ब्रजभाषा' के नाम से भी पुकार सकते हैं।
 
ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में [[हिन्दी]]-काव्य की रचना हुई। सभी [[भक्ति काल|भक्त कवियों]], [[रीति काल|रीतिकालीन कवियों]] ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं [[सूरदास]], [[रहीम]], [[रसखान]], [[केशव]], [[घनानन्द]], [[बिहारी]], इत्यादि। वस्तुतः उस काल में हिन्दी का अर्थ ही ब्रजभाषा से लिया जाता था।
 
सामान्य ब्रजभाषा-क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करके एक वृहत्तर क्षेत्र में ब्रजभाषा साहित्य की रचना हुई। इस बात का अनुमान रीतिकाल के कवि आचार्य [[भिखारीदास]] ने किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ब्रजभाषा का परिचय ब्रज से बाहर रहने वाले कवियों से भी मिल सकता है। इस क्षेत्र-विस्तार में [[भक्ति आन्दोलन]] का भी हाथ रहा। [[कृष्ण]]-भक्ति की रचनाओं में एक प्रकार से यह शैली रुढ़ हो गई थी। पं॰ [[विश्वनाथ प्रसाद मिश्र]] ने अनेक प्रदेशों के ब्रज भाषा भक्त-कवियों की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार प्रकट की है-
पंक्ति 7:
 
पश्चिम में [[राजस्थान]] तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा। और भी पश्चिम में [[गुजरात]] और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। [[कच्छ]] के [[महाराव लखपत]] बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था। इस प्रकार मध्यकाल में ब्रजभाषा का प्रसार ब्रज एवं उसके आसपास के प्रदेशों में ही नहीं, पूर्ववर्ती प्रदेशों में भी रहा। [[बंगाल]], [[महाराष्ट्र]], [[गुजरात]], काठियावाड़ एवं कच्छ आदि में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ हुई।
 
 
 
 
 
 
साहित्यिक ब्रजभाषा के सबसे प्राचीनतम उपयोग का प्रमाण महाराष्ट्र में मिलता है। तेरहवीं शताब्दी के अंत में [[महानुभाव सम्प्रदाय]] के सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। [[गोकुल]] में [[बल्लभ सम्प्रदाय]] का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि [[सूरदास]] से आधुनिक काल के [[वियोगी हरि]] तक ब्रजभाषा में प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही। साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारत में हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में [[तंजौर]] और [[केरल]] में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। [[सौराष्ट्र]] व [[कच्छ]] में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही थी। उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज रूपी स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ‘[[ब्रजबुलि]]’ नाम दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर [[मणिपुर]] तक हुआ।
 
साहित्यिक ब्रजभाषा की कविता ही गढ़वाल, कांगड़ा, गुलेर बूंदी, मेवाड़, किशनगढ़ की [[चित्रकारी]] का आधार बनी और कुछ क्षेत्रों में तो चित्रकारों ने कविताएँ भी लिखीं। गढ़वाल के [[मोलाराम]] का नाम उल्लेखनीय है। [[गुरु गोविन्दसिंह]] के दरबार में ब्रजभाषा के कवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग था।
उत्तर भारत के [[संगीत]] में चाहे [[ध्रुपद]], धमार, ख्याल, ठुमरी या दादरे में सर्वत्र हिन्दू-मुसलमान सभी प्रकार के गायकों के द्वारा ब्रजभाषा का ही प्रयोग होता रहा और आज भी जिसे [[हिन्दुस्तानी संगीत]] कहा जाता है, उसके ऊपर ब्रजभाषा ही छायी हुई है और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के कारण सम्भव हुई।
 
उन्नीसवीं शताब्दी तक काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का अक्षुण्ण देशव्यापी वर्चस्व रहा। इस प्रकार लगभग आठ शताब्दी तक बहुत बड़े व्यापक क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करने वाली साहित्यिक भाषा रही।
 
एक प्रकार से ब्रजभाषा ही मुक्तक काव्य भाषा के रूप में उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र मान्य भाषा थी। उसकी विषयवस्तु श्री कृष्ण प्रेम तक ही सीमित नहीं थी, उसमें सगुण-निर्गुण भक्ति की विभिन्न धाराओं की अभिव्यक्ति सहज रूप में हुई और इसी कारण ब्रजभाषा जनसाधारण के कंठ में बस गई। 1814 में एक अंग्रेज़ अधिकारी मेजर टॉमस ने ‘सलेक्शन फ़्रॉम दि पॉपुलर पोयट्री ऑफ़ दि हिन्दूज’ नामक पुस्तक में सिपाहियों से संग्रहीत लोकप्रिय पदों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इस में अधिकतर दोहे, कवित्त और सवैये हैं, जो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों के द्वारा रचित हैं एवं [[केशवदास]] के भी छन्द इस संकलन में हैं।
 
रचना बाहुल्य के आधार पर प्राय: यह समझा जाता है कि ब्रजभाषा काव्य एकांगी या सीमित भावभूमि का काव्य है। ब्रजभाषा काव्य का विषय मूल रूप से शृंगारी चेष्टा-वर्णन तक ही सीमित है। साधारण मनुष्य के दुःख-दर्द या उनके जीवन-संघर्ष का चित्र नहीं है। पर जब हम भक्ति-कालीन काव्य का विस्तृत सर्वेक्षण करते हैं और उत्तर मध्यकाल की नीति-प्रधान रचनाओं में यह संसार बहुत विस्तृत दिखाई पड़ता है। चाहे सगुण भक्त कवि हों अथवा निर्गुण भक्त कवि; आचार्य कवि हों, स्वछन्द कवि या सूक्तिकार - सभी लोक व्यवहार के प्रति बहुत सजग हैं और इन सबकी लौकिक जीवन की समझ बहुत गहरी है।
 
भारतेन्दु की मुकरियों में व्यंग्य रूप में सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया, सामान्य-जीवन के बिम्ब पर आधारित प्रस्तुत मिलती है-
 
: ''सीटी देकर पास बुलावै, रुपया ले तो निकट बिठावै ।
: ''लै भागै मोहि खेलहि खेल, क्यों सखि साजन ना सखि रेल ॥
: ''भीतर-भीतर सब रस चूसै, हंसि-हंसि तन मन धन सब मूसै ।
: ''ज़ाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज़ ॥
 
==ब्रजभाषा का अन्य भाषाओं से सह अस्तित्व==
पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा ,गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था।
 
===सधुक्कड़ी===
संत कवियों के सगुण भक्ति के पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्यभाषा है, पर निर्गुनबानी की भाषा नाथपंथियों द्वारा गृहीत खड़ी बोली या सधुक्कड़ी भाषा है। प्राचीन रचनाओं में ब्रजी और खड़ी बोली के रुपों का सह-अस्तित्व मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पद-काव्यरुप के लिए ब्रजी का प्रयोग रुढ़ होता जा रहा था। [[नाथ सम्प्रदाय|नाथ]] और संत भी गीतों में इसी शैली का प्रयोग करते थे। सैद्धांतिक चर्चा या निर्गुन वाणी सधुक्कड़ी में होती थी।
 
===गुजरात और ब्रजभाषा===
गुजरात की आरंभिक रचनाओं में [[शौरसेनी]] अपभ्रंश की स्पष्ट छाया है। नरसी, केशवदास आदि कवियों की भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी है और उन्होंने ब्रजी में काव्य रचना भी की है। [[हेमचंद्र]] के शौरसेनी के उदाहरणों की भाषा ब्रजभाषा की पूर्वपीठिका है। गुजरात के अनेक कवियों ने ब्रजभाषा अथवा ब्रजी मिश्रित भाषा में कविता की। भालण, केशवदास तथा अरवा आदि कवियों का नाम इस संबंध में उल्लेखनीय है। अष्टछापी कवि [[कृष्णदास]] भी गुजरात के ही थे। गुजरात में ब्रजभाषा कवियों की एक दीर्घ परम्परा है जो बीसवीं सदी तक चली आती है। इस प्रकार ब्रजभाषा, गुजराती कवियों के लिए 'निज-शैली' ही थी।
 
मालवा और गुजरात को एक साथ उल्लेख करने की परम्परा ब्रज के लोकसाहित्य में भी मिलती है।
 
=== बुन्देलखण्ड===
ब्रजभाषा के लिए 'ग्वालियरी' का प्रयोग भी हुआ है। ब्रजभाषा शैली की सीमाएँ इतनी विस्तृत थीं कि ब्रजी और बुन्देली की संरचना प्रायः समान है। साहित्यिक शैली तो दोनों क्षेत्रों की बिल्कुल समान रही। ब्रज और बुन्देलखंड का सांस्कृतिक सम्बंध भी सदा रहा है।
 
===सिन्ध और पंजाब===
सिन्ध और पंजाब में [[गोस्वामी लालजी]] का नाम आता है। इन्होंने १६२६ वि. में गोस्वामी [[विट्ठलनाथ]] का शिष्यत्व स्वीकार किया। सिंध में वैष्णव धर्म का प्रचार ब्रजभाषा में आरम्भ हुआ। लालजी ब्रजभाषा के मर्मज्ञ थे। इस प्रकार सिंध में ब्रजभाषा साहित्य की पर्याप्त उन्नति की।
 
पंजाब में [[गुरु नानक]] ने भी ब्रजभाषा में कविता की। आगे भी कई गुरुओं ने ब्रजभाषा में कविता रची। [[गुरुगोविन्द सिंह]] का ब्रजभाषा-कृतित्व महत्त्वपूर्ण है ही। गुरु दरबारों में व राजदरबारों में भी ब्रजभाषा के कवि रहते थे। इन कवियों में सिक्खों का विशेष स्थान है। सिख संतों ने धार्मिक प्रचार के लिए ब्रजभाषा को भी चुना ।
 
=== बंगाल ===
सार्वदेशिक शौरसेनी के प्रभाव क्षेत्र में बंगाल भी था । बल्कि यों कहना चाहिए कि पूर्वी अपभ्रंश, पश्चिम भारत से ही पूर्व में आई। अवह का प्रयोग मैथिल कोकिल [[विद्यापति]] ने [[कीर्तिलता]] में किया। इसमें मिथिला और ब्रज के रुपों का मिश्रण है। बंगाल के [[सहजिया]]-साहित्य की रचना भी मुख्यतः इसी में हुई है।
 
वैष्णव साधु समाज की जो भाषा बनी उसका नाम ब्रजबुलि है। इसके विकास में मुख्य रुप से ब्रजी और मैथिली का योगदान था। बंगाल के कविवृंद मैथिली, बंगाली और ब्रजभाषा के मेल से घटित ब्रजबुली शैली को अपनाने लगे। इसी भाषा में गोविन्ददास, ज्ञानदास आदि कवियों का साहित्य मिलता है। मैथिली मिश्रित ब्रजी [[असम]] के [[शंकरदेव]] के कंठ से भी फूट पड़ी। बंगाल और [[उत्कल]] के संकीर्तनों की भी यही भाषा बनी।
 
=== महाराष्ट्र ===
ब्रजभाषा शैली का प्रसार महाराष्ट्र तक दिखलाई पड़ता है। सबसे प्राचीन रुप नामदेव की रचनाओं में मिलते हैं। ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास प्रभृति भक्त-संतों की हिंदी रचनाओं की भाषा, ब्रज और दक्खिनी हिंदी है।
 
मुस्लिम काल में भी शाहजी एवं शिवाजी के दरबार में रहने वाले ब्रजभाषा के कवियों का स्थान बना रहा। कवि [[भूषण]] तो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि थे ही।
 
=== दक्षिण भारत===
दक्षिण में खड़ीबोली शैली का ही 'दखनी' नाम से प्रसार हुआ। इन मुस्लिम राज्यों के आश्रित साहित्यकारों ने ग्वालेरी कविता का उल्लेख बड़ी श्रद्धा के साथ किया है। [[तुलसीदास]] के समकालीन [[मुल्ला वजही]] ने सबरस में ग्वालेरी के तीन दोहे उद्धृत किए हैं। ब्रज-शैली के या ब्रज के प्रचलित दोहों का प्रयोग वजही ने बीच-बीच में किया है। दक्खिन क्षेत्र खड़ी बोली शैली के विकास का क्षेत्र था। प्रायः गद्य रचनाओं में हरियाणवी बोली का प्रयोग मिलता है, पद्य रचना में ब्रजभाषा शैली का मिश्रण है। गद्य में लिखित प्रेमगाथाओं के बीच में ब्रजभाषा शैली के दोहे प्रयुक्त मिलते हैं। ब्रजभाषा शैली का संगीत समस्त भारत में प्रसिद्ध था। केरल के महाराजा [[राम वर्मा]], 'स्वाति-तिरुनाल' के नाम से ब्रजभाषा में कविता करते थे।
 
===राजस्थान===
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली को ग्रहण करती हुई, [[पिंगल]] नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ। पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है।
 
[[रासो]] की भाषा को इतिहासकारों ने ब्रज या पिंगल माना है। वास्तव में पिंगल ब्रजभाषा पर आधारित एक काव्य शैली थी, यह जनभाषा नहीं थी। इसमें राजस्थानी और पंजाबी का पुट है। ओजपूर्ण शैली की दृष्टि से प्राकृत या अपभ्रंश रुपों का भी मिश्रण इसमें किया गया है। इस शैली का निर्माण तो प्राकृत पैंगलम ( १२वीं- १३वीं शती ) के समय हो गया था, पर इसका प्रयोग [[चारण]] बहुत पीछे के समय तक करते रहे। पीछे पिंगल शैली भक्ति-साहित्य में संक्रमित हो गई।
 
अतः स्पष्ट हो जाता है कि ब्रजभाषा भाषा व ब्रज शैली के खंड-उपखंड समस्त भारत में बिखरे हुए थे। कहीं इनकी स्थिति सघन थी और कहीं विरल।
 
आधुनिक युग में भारतेन्दु व उनके पिता गिरधरदास ब्रज भाषा में रचना करते थे यहाँ से खड़ीबोली व ब्रजभाषा का मिश्र रूप प्रारम्भ हुआ जो आधुनिक हिन्दी खड़ीबोली की पूर्व भूमिका बना। १८७५ में हरिश्चंद्र चन्द्रिका में [[अमृतसर]] के कवि संतोष सिंह का कवित्त ब्रज मिश्रित हिन्दी का उदाहरण है :
 
: ''हों द्विज विलासी वासी अमृत सरोवर कौ
: ''काशी के निकट तट गंग जन्म पाया है ।
: ''शास्त्र ही पढ़ाया कर प्रीति पिता पंडित ने
: ''पाया कवि पंथ राम कीन्हीं बड़ी दाया है ॥
: ''प्रेम को बढाया अब सीस को नबाया देखो,
: ''मेरे मन भाया कृष्ण पांय पे चढ़ाया है ॥
 
==ब्रजभाषा का गद्य साहित्य ==
प्रायः ब्रजभाषा साहित्य की बात करते समय उसमें गद्य का समावेश नहीं किया जाता। इसका कारण यह नहीं है कि ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। वैष्णवों के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है। छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व बढ़ा। [[लल्लूलाल]] जी ने अपने [[प्रेमसागर]] में ब्रजभाषा से भावित गद्य की रचना की और वास्तव में वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना।
 
[[गुरु गोरखनाथ]] ( १३वीं सदी ) ने सदाचार और धर्म के तत्व की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया और इसी सूत्र से हिन्दी के गद्य-साहित्य की सृष्टि कर प्रथम हिन्दी-गद्य-लेखक के रूप में वे कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए। गुरु गोरखनाथ की पद्य की भाषा में अनेक प्रान्तों के शब्दों का प्रयोग है। किन्तु गद्य की भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है तथा उसमें संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। यथा---
 
: ''सो वह पुरुष संपूर्ण तीर्थ अस्नान करि चुकौ, अरु संपूर्ण पृथ्वी ब्राह्मननि कौ दै चुकौ, अरु सह जग करि चुकौ, अरु देवता सर्व पूजि चुकौ, अरु पितरनि को संतुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्राप्त करि चुकौ, जा मनुष्य के मन छन मात्रा ब्रह्म के विचार बैठो।''
 
गोस्वामी विट्ठलनाथ के पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ ने भी 252 एवं 84 वैष्णवों की वार्ता नामक दो ग्रन्थ रचे। गोस्वामीजी की भाषा ब्रजभाषा व खड़ीबोली का मिश्र रूप है :
 
: ''ऐसो पद श्री आचार्य जी महाप्रभून के आगे सूरदास जी ने गायौ सो सुनि के श्री आचार्य जी महाप्रभून ने कह्यौ जो सूर ह्वै के ऐसो घिघियात काहै को है कछू भगवल्लीला वर्णन करि। तब सूरदास ने कह्यौ जो महाराज हौं तो समझत नाहीं।
 
: ''नन्ददास जी तुलसीदास के छोटे भाई हते। सो बिनकूं नाच तमासा देखबे को तथा गान सुनबे को शोक बहुत हतो।''
 
देव महाकवि थे और साधारण सी बात को भी अत्यन्त अलंकृत शैली में लिखने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। उनकी ब्रज व खड़ीबोली मिश्रित भाषा का उदाहरण प्रस्तुत है -
 
: ''सिध्दि श्री 108 श्री श्री पातसाहि जी श्री दलपति जी अकबर साह जी आम खास में तषत ऊपर विराजमान हो रहे और आम खास भरने लगा है जिसमें तमाम उमराव आय आय कुर्निश बजाय जुहार कर के अपनी अपनी बैठक पर बैठ जाया करे अपनी-अपनी मिसिल से।''
 
ब्रजभाषा के गद्य में कथा-वार्ता का एकदेशीय विकास हुआ था। [[लल्लू लाल]] जी ने [[प्रेमसागर]] की रचना की। वे आगरा के रहने वाले थे, इसलिए उनकी रचना में ब्रजभाषा के शब्दों की भरमार होना स्वाभाविक था। उस समय भाषा का कोई सर्वमान्य आदर्श उनके सामने नहीं था, लल्लूलाल जी ने प्रेम सागर अपनी अनुमानी हिन्दी में बनाई। ये उर्दू के आदर्श को त्याग कर चले, इसलिए आवश्यकता से अधिक ब्रजभाषा के शब्द उनकी रचना में प्रयोग हुए यथा-
 
:''इतना कह महादेव जी गिरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय, न्हिलाय, अति लाड़ प्यार से लगे पार्वती जी को वस्त्रा-'आभूषण पहिराने।''
 
: ''बालों की श्यामता के आगे अमावस्या की ऍंधोरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लख नागिन अपनी केंचुली छोड़ सटक गयी। भौंह की बँकाई निरख धानुष धकधकाने लगा। ऑंखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे।''
 
मुन्शी सदासुख लाल ने धार्मिक कथा का वर्णन किया तो इन्शाअल्ला खाँ ने बहुत ही रोचक और सरल तथा मुहावरेदार ठेठ भाषा में प्रेम-कहानी लिखी, उन दोनों के सामने उर्दू का आदर्श था, इसलिए उनकी भाषा विशेष परिमार्जित और खड़ी बोली के रंग में ढली हुई है, इन्शा की भाषा के दो नमूने देखिए-
 
: ''एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने धयान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले।
 
:''सिर झुका कर नाक रगड़ता हूँ, उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सबको बनाया है और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया।''
 
इस प्रकार पद्य की भाँति ब्रजभाषा का गद्य भी धीरे-धीरे [[खड़ी बोली]] में परिवर्तित होने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से ब्रजभाषा का स्थान खड़ीबोली हिन्दी को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व के साथ साथ अन्य बड़ा कारण था- अंग्रेजों के द्वारा उत्तर भारत में कचहरी भाषा के रूप में उर्दू भाषा को मान्यता देना।
 
इस प्रकार स्वतन्त्रता पश्चात तक हिन्दी का अर्थ ब्रजभाषा ही बना रहा। देश की सांस्कृतिक एकता के लिए ब्रजभाषा एक ज़बर्दस्त कड़ी की भाँति सात शताब्दियों से अधिक समय तक बनी रही और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के विशद व व्यापक सर्वदेशीय प्रभाव के कारण सम्भव हुई है।
 
==इन्हें भी देखें==