"नरदेव विद्यालंकार": अवतरणों में अंतर

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हिंदी शिक्षा संघ की स्थापना से पूर्व, दक्षिण अफ्रीका में हिंदी के प्रचार–प्रसार का कार्य मुख्य रूप से सामुदायिक संस्थाओं की थी। 1860 में [[गिरमिटिया]] मज़दूरों के आगमन के समय से धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम इस प्रयोजन के लिए उपयोगी और अनौपचारिक मंच प्रदान करते थे। यद्यपि ये प्रवासी [[भोजपुरी]] का प्रयोग करते थे, परन्तु उनकी हार्दिक इच्छा थी कि वे मानक हिन्दी ([[खड़ी बोली]]) का प्रयोग करें। अतः अपने धर्म, परम्परा और संस्कृति के संरक्षण के लिए और हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा सुनियोजित प्रयास की आवश्यकता सबको महसूस होती रहती थी।
 
सदी के प्रारम्भ में हिन्दी के प्रचार–प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान करने वालों में भारत से आए प्रवासी संन्यासी [[स्वामी शंकरानंदशंकरानन्द]] थे। उसके पश्चात एक बंधुआ मजदूर के पुत्र [[भवानी दयाल सन्यासी|भवानी दयाल]] का नाम आता है, जिन्होंने [[नैटाल]] और [[ट्रांसवाल]] में स्थानीय संस्थाओं का सहयोग प्राप्त किया और उन्हें देश भर में हिंदी भाषा के प्रचार के लिए प्रोत्साहित किया।
 
[[काका कालेलकर]] ने हिन्दी भाषा को एक नए प्रकार की [[हिन्दुस्तानी]] का रूप प्रदान करने के लिए सन् 1940 के आस पास जो आन्दोलन चलाया था, उसके साथ श्री नरदेव विद्यालंकार भी जुड़ गए थे। सन् 1947 में उनके द्वारा लिखित पुस्तक '''राष्ट्रभाषा का सरल व्याकरण''', [[राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा]] से प्रकाशित हुआ। इसकी वर्तनी काका कालेलकर समिति के अनुरूप थी। अहिन्दी प्रान्तों के लिए हिन्दी भाषा का व्याकरण उपलब्ध कराने की दृष्टि से इस व्याकरण की रचना की गई थी। लेखक नरदेवजी ने अपने उक्त मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि कि “हिन्दी में तो छोटी-बड़ी व्याकरण की कई पुस्तकें हैं, परन्तु समस्त अहिन्दी प्रांतों के लिए हिन्दी भाषा में राष्ट्र-भाषा हिन्दी का कोई अच्छा व्याकरण तैयार नहीं हुआ है।"<ref>[https://books.google.co.in/books?id=cjilBQAAQBAJ&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false हिन्दी व्याकरण] (डॉ राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी)</ref>