"पंडित भगवद्दत्त": अवतरणों में अंतर

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==जीवनी==
पंडित भगवद्दत्त का जन्म [[अमृतसर]] ([[पंजाब]]) में श्री कुंदनलाल तथा श्रीमती हरदेवी के घर में हुआ था। [[आर्य समाज|आर्य समाजी]] परिवार होने के कारण भगवद्दत्त जी का [[संस्कृत]] से बहुत प्रेम था। अतः कक्षा 12 तक [[विज्ञान]] के छात्र रहने के बाद उन्होंने 1915 में डी.ए.वी. कालिज, [[लाहौर]] से संस्कृत एवं [[दर्शनशास्त्र]] में बी.ए. किया।
इसके बाद भगवद्दत्त जी की इच्छा [[वेद|वेदों]] के अध्ययन की थी। अतः वे लाहौर के डी.ए.वी. कालिज के अनुसंधान विभाग में काम करने लगे। उनकी लगन देखकर विद्यालय के प्रबंधकों ने छह वर्ष बाद उन्हें वहीं विभागाध्यक्ष बना दिया। अगले 13 वर्ष में उन्होंने लगभग 7,000 हस्तलिखित ग्रंथों का संग्रह तथा अध्ययन कर उनमें से कई उपयोगी ग्रंथों का सम्पादन व पुनर्प्रकाशन कियकिया<ref name="वेद ऋषि">{{cite web | title=पण्डित भगवद्दत्त जी रिसर्च स्कॉलर - | website=वेद ऋषि | url=https://www.vedrishi.com/book/pandit-bhagvaddatt-ji-research-scholar/ | language=हिन्दी भाषा | accessdate=०२ अप्रैल २०२०}}</ref>; पर किसी सैद्धांतिक कारण से उनका तालमेल अनुसंधान विभाग में कार्यरत पंडित विश्वबन्धु से नहीं हो सका। अतः भगवद्दत्त जी डी.ए.वी कालिज की सेवा से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से अध्ययन में लग गये।
 
[[नारी शिक्षा]] के समर्थक भगवद्दत्त जी ने अपनी पत्नी सत्यवती को पढ़ने के लिए प्रेरित किया और वह शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली पंजाब की प्रथम महिला बनीं। उनके पुत्र सत्यश्रवा भी संस्कृत विद्वान हैं, उन्होंने अपने पिताजी के अनेक ग्रंथों का [[अंग्रेजी]] में अनुवाद कर प्रकाशित किया है। [[भारत का विभाजन|देश विभाजन]] के बाद [[दिल्ली]] आते समय दुर्भाग्यवश वे अपने विशाल ग्रन्थ-संग्रह का कुछ ही भाग साथ ला सके। दिल्ली में भी वे सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे।
 
अनेक भारतीय तथा विदेशी विद्वानों ने उनकी खोज व विद्वत्ता को सराहा है। उनका परस्पर पत्र-व्यवहार भी चलता था; पर उन्हें इस बात का दुख था कि कई विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में बिना नामोल्लेख उन निष्कर्षों को लिखा है, जिनकी खोज भगवद्दत्त जी ने की थी। पंडित [[राहुल सांकृत्यायन]] ने [[लाहौर]] में उनके साथ रहकर अनेक वर्ष अनुसंधानअनुसन्धान कार्य किया था। उन्होंने स्वीकार किया है कि ऐतिहासिक अनुसंधान की प्रेरणा उन्हें भगवद्दत्त जी से ही मिली।
 
भगवद्दत्त जी एक पंजाबी व्यापारी की तरह ढीला पाजामा, कमीज, सफेद पगड़ी, कानों में स्वर्ण कुंडल आदि पहनते थे; पर जब वे संस्कृत में तर्कपूर्ण ढंग से धाराप्रवाह बोलना आरम्भ करते थे, तो सब उनकी विद्वत्ता का लोहा मान जाते थे। 22 नवम्बर, 1968 को दिल्ली में ही उनका देहान्त हुआ।<ref>[https://www.vskgujarat.com/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5/ वेदों के ज्ञाता, इतिहासज्ञ '''पंडित भगवद्दत्त''']</ref>
 
==सन्दर्भ==
{{टिप्पणीसूची}}
 
[[श्रेणी:संस्कृत विद्वान]]
 
==कृतियाँ==