"विकृतिविज्ञान": अवतरणों में अंतर
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ये हेतुकीकारक जिस प्रकार से विकृतियों को उत्पन्न करते हैं, उसको रोगजनन (Pathogenesis) कहते हैं। रोगकारक हेतुओं से शरीर के विभिन्न अंगों में जो अस्वस्थ अवस्थाएँ या स्थित्यंतर उत्पन्न होते हैं, उनको विकृतियाँ (Morbidity) कहते हैं तथा इन विकृतियों से युक्त धातु अंग या आशय के विवरण को विकृत शरीर (Morbid Anatomy) तथा इन विकृतियों के शास्त्र को '''विकृति विज्ञान''' या '''पैथालॉजी''' (Pathology) कहते हैं।
विकृतिविज्ञान का मुख्य उद्देश्य विविध रोगकारकों से विभिन्न अंगो में जो विविध विकृतियाँ उत्पन्न होती है, उनका कार्यकारण भाव (cause and effect) प्रदर्शित करना है। उन विकृतियों के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपों का विवरण देना और उनके आधार पर विविध व्याधियों से उत्पन्न होनेवाले लक्षणों का स्पष्टीकरण देना ही विकृतिविज्ञान का मुख्य उद्देश्य है। यह उद्देश्य विविध व्याधियों से मृत व्यक्तियों के संपूर्ण इतिहास के साथ, मरणोत्तर परीक्षण से उनके शरीर के विभिन्न धात्वाशयादि अंगों के भीतर पाए जानेवाली विकृतियों, का मेल किए बिना सिद्ध नहीं हो सकता।▼
==विकृतिविज्ञान का इतिहास एवं विकास==
16 वीं - 17 वीं शताब्दी में पाश्चात्य देशों में विकृति विज्ञान के लिए शवपरीक्षण का प्रारंभ किया गया। मोरगाग्नि (Morgagni) ने सन् 1761 में उसके पूर्व किए गए सैकड़ों शवपरीक्षणों की छानवीन कर, उनमें से सात सौ शवपरीक्षणों के वृत्तांत को बृहद् संग्रह ग्रंथ के तीन भागों में प्रकाशित किया। रोगियों के विभिन्न अंगों में पाए गए चिह्नों और लक्षणों का संबंध उनके शवों के भीतर पाई गई रचनात्म्क विकृतियों के साथ कहाँ तक बैठता है इसकी चर्चा इस ग्रथ में की गई है। इसके पश्चात् ही विकृतिविज्ञान (Pathology) को स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त हुआ। रूडॉल्फ फिखों (Rudolf Virchow) ने 19वीं शताब्दी में शरीरगत विकृतियों के परीक्षण में [[सूक्ष्मदर्शी]] यंत्र का उपयोग आरंभ किया और [[कोशिकीय विकृतिविज्ञान]] (Cellular Pathology) पर अपना ग्रंथ 1846 ई. में प्रकाशित किया। इस ग्रंथ ने रोगों के स्वरूप की तथा उनके अभ्यस के लिए कौन-कोन से साधन प्रयुक्त होने चाहिए और प्रयुक्त हो सकते हैं, इनके संबंध की कल्पना में क्रांति पैदा की तथा विकृति विज्ञान को, जो पहले रोगनिदान के अंतर्गत एक छोटा सा विषय था, [[निदान]] का एक उत्तम अधिष्ठान बना दिया।
==विकृतियाँ==
शरीर के अंगों में होनेवाली विकृतियाँ अव्यक्त होते हुए भी प्रतिक्रिया (Reaction), सूजन (Inflammation), जीर्णोद्धार (Repair), वृद्धि में बाधा (Disturbance in growth), अपजनन (Degeneration), अर्बुद (Tumour) इत्यादि कुछ
===विकृति और रोग में भेद===▼
▲विकृतिविज्ञान का मुख्य उद्देश्य विविध रोगकारकों से विभिन्न अंगो में जो विविध विकृतियाँ उत्पन्न होती है, उनका कार्यकारण भाव प्रदर्शित करना है। उन विकृतियों के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपों का विवरण देना और उनके आधार पर विविध व्याधियों से उत्पन्न होनेवाले लक्षणों का स्पष्टीकरण देना ही विकृतिविज्ञान का मुख्य उद्देश्य है। यह उद्देश्य विविध व्याधियों से मृत व्यक्तियों के संपूर्ण इतिहास के साथ, मरणोत्तर परीक्षण से उनके शरीर के विभिन्न धात्वाशयादि अंगों के भीतर पाए जानेवाली विकृतियों, का मेल किए बिना सिद्ध नहीं हो सकता।
विकृतियों में शरीर के विभिन्न अंगों की वैषम्यावस्था पर तथा उनके रचनात्मक और स्वरुपात्मक (morphological and structural) परिवर्तनों पर जोर दिया जाता है और रोगों में उनके कार्यात्मक (functional) परिवर्तनों पर जोर दिया जाता है। सारांश में विकृतियों का उल्लेख विभिन्न अंगों से संबंधित होता है और रोग का उल्लेख अधिकतर लक्षणों से संबंधित होता है। शरीर में विकृतियों के स्वरूप में रोग बहुत पहले से रहता है। केवल वह बहुत सूक्ष्म होने से इंद्रियग्राह्य कम होकर बुद्धिग्राह्य अधिक होता है।
==शाखाएँ==
▲==विकृति और रोग में भेद==
==सामान्य विकृतिविज्ञान==
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