"भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान": अवतरणों में अंतर

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==स्थापना==
इसकी स्थापना 6 जुलाई, 1917 को [[पूना]] में भी श्री [[रामाकृष्णरामकृष्ण गोपाल भांडारकर]] की स्मृति में की गई थी। श्री भांडारकर [[भारत]] में प्राच्य विद्या के सुप्रसिद्ध अग्रगामी नेताओं में से एक थे। स्थापना के दिन ही रामकृष्ण भांडारकर ने अपनी पुस्तकों और शोध संबंधी पत्रिकाओं का वृहत् पुस्तकालय संस्थान को अर्पित कर दिया और एक वर्ष बाद बंबई (अब [[महाराष्ट्र]]) की सरकार ने [[संस्कृत]] और [[प्राकृत]] के बीस हजार से भी अधिक हस्तलिखित ग्रंथों का अपना बहुमूल्य संग्रह संस्थान को दे देने का निश्चय किया। इसके सिवा उसने बंबई संस्कृत तथा प्राकृत ग्रंथमाला के प्रबंध का भार भी संस्थान को सौंप दिया। (इस ग्रंथमाला का आरंभ सन् 1868 में किया गया था) यह बहुमूल्य परिसंपत्ति पाकर इस नवस्थापित संस्थान ने कई शैक्षिक योजनाएँ आरंभ करने का निश्चय किया। सन् 1919 में उसने पूना में प्रथम सर्वभारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन का आयोजन किया। उसने अपनी ओर से भी एक प्राच्य ग्रंथमाला का आरंभ किया। अप्रैल, 1919 में उसने महाभारत का सटिप्पण संस्करण प्रकाशित करने का काम हाथ में लिया और उसी वर्ष उसने अपने शोध संबंधी पत्र "ऐनल्स" का प्रथमांक प्रकाशित किया। युवकों को वैज्ञानिक अनुसंधान की विधियों में प्रशिक्षित करने के लिए संस्थान ने एक स्नातकोत्तर और गवेषणा विभाग की स्थापना की।
 
==विभाग==