"सांख्यकारिका": अवतरणों में अंतर

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==प्रमुख विवेचनीय विषय==
सर्वप्रथम ईश्वरकृष्ण ने मंगल के साथ-साथ शास्त्रारम्भ के प्रयोजन की सूचना दी है कि आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीनों दुःखों का एकान्त परिहार प्राणिमात्र का इष्ट है। दुःखों का यह परिहार दृश्ट (लौकिक) एवं आनुश्रविक (वैदिक) उपायों से सम्भव नहीं है, कारण कि दृश्ट कारणों से सर्वथा कार्य होते नहीं तथा आनुश्रविक (वैदिक यज्ञादि) उपायों से होने योग्य दुःख निवृत्ति एकान्त हो ही नहीं सकती। दुःख की एकान्त निवृत्ति तो केवल ‘व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञान’ से हो सकती है, वही इस शास्त्र में प्रतिपादित है।
#[[सत्कार्यवाद|दुःखत्रय]] तथा उनका अपघात
 
# प्रमाण-विवेचन
व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ- ये तीनों शब्द इस शास्त्र में विशेष महत्वशाली हैं। इनके महत्व काे जानने के लिए इस शास्त्र के मेरुदण्ड [[सत्कार्यवाद]] को समझना परमावश्यक
#[[सत्कार्यवाद]]
है। सांख्यदर्शन का ‘सत्कार्यवाद’ उसका अत्यन्त प्रसिद्ध तथा अन्य दर्शनों से भिन्न सिद्धान्त है। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य उत्पन्न होने के पूर्व अव्यक्त रुप से अपने कारण में वर्तमान रहता है। इस सत्कार्यवाद सिद्धान्त काे सांख्यदर्शन ने अनेक तर्कों और युक्तियों से सिद्ध करने का प्रयास किया है। सत्कार्यवाद की सिद्धि के 5 हेतु (साधक) हैं- असद्करणात् , उपदान ग्रहणात् , सर्वसंभवाभावात् , शक्तस्य शक्यकरणात् , कारणाभावात् ।
 
साङ्ख्यदर्शन के जिन पच्चीस तत्त्वों का वर्णन किया है वे इस प्रकार हैं -
: ''प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः।
: ''तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि॥
 
# [[सत्कार्यवाद|दुःखत्रय]] तथा उनका अपघात -- त्रिविध दुःख : आध्यात्मिक , आधिदैविक , और आधिभौतिक ।
# प्रमाण-विवेचन -- त्रिविध : प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्तवाक्य
# [[सत्कार्यवाद]]
# गुण विवेचन
# प्रकृति स्वरूप तथा उसके अस्तित्व की सिद्धि -- प्रकृति उसे कहा है जिससे कोई अन्य तत्त्व उत्पन्न होता है, जो स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होती।
# पुरुष स्वरूप, पुरूष के अस्तित्व की सिद्धि तथा पुरुष बहुत्व
# सृष्टि प्रक्रिया
# लिंगलिङ्ग शरीर की अवधारणा
# प्रत्यय सर्ग की अवधारणा
 
प्रकृति और पुरुष का संयोग पंगु और अंधे व्यक्ति के समान है (पङ्गु-अन्धवत्)।
 
प्रकृति के अन्य नाम हैं- अव्यक्त और अप्रधान। प्रकृति के अस्तित्व की सिद्धि के 5 तर्क हैं। प्रकृति की दो अवस्थाएँ हैं - साम्यावस्था तथा वैषम्यावस्था। प्रकृति की व्याख्या ३ गुणों ( सत्व गुण, रजोगुण, तमोगुण) के माध्यम से की गयी है।
 
महत् , अहंकार, पञ्च तन्मात्राएँ ( कुल 7 ) पदार्थ प्रकृति और विकृति दोनो माने जाते हैं। विकृतियाँ सोलह हैं (एकादश इन्द्रिय + पञ्च महाभूत) ।
 
सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष न तो प्रकृति है न विकृति।
 
बुद्धि की प्रकृति है - मूल प्रकृति। बुद्धि की विकृति है - महत् (अहंकार)। अहंकार ३ प्रकार का होता है - सात्विक, राजसिक, तामसिक। सात्विक अहंकार से एकादश इन्द्रियो की उत्पत्ति होती है। पञ्च तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श , रूप, रस, गंध) से पञ्चमहाभूत ( आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी) उत्पन्न होते हैं।
प्रत्ययसर्ग मूल रूप से 4 प्रकार का हैं- विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि, सिद्धि। प्रत्ययसर्ग के कुल 50 भेद हैं (विपर्यय - 5 , अशक्ति - 28 , तुष्टि - 9 , सिद्धि - 8 )।
 
विपर्यय बन्धन का कारण है। ज्ञान से अपवर्ग की प्राप्ति होती है।
 
सांख्य दर्शन ने 3 [[प्रमाण]] स्वीकार किए हैं- [[प्रत्यक्ष प्रमाण|प्रत्यक्ष]], [[अनुमान]] और [[आप्तवाक्य]]। प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण है - "प्रतिविषयाध्यवसाय"। प्रत्यक्ष प्रमाण दो प्रकार के होते हैं - निर्विकल्पक और सविकल्पक। अनुमान का लक्षण है - "लिङ्गलिङ्गी पूर्वकम् "। अनुमान तीन प्रकार के हैं-
 
== बाहरी कड़ियाँ ==