"ख़िलाफ़त आन्दोलन": अवतरणों में अंतर

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== इतिहास ==
सन् 1908 ई. में [[तुर्की]] में [[युवा तुर्क आन्दोलन|युवा तुर्क दल]] द्वारा शक्तिहीन ख़लीफ़ा के प्रभुत्व का उन्मूलन ख़लीफ़त (ख़लीफ़ा के पद) की समाप्ति का प्रथम चरण था। इसका भारतीय मुसलमान जनता पर नगण्य प्रभाव पड़ा। किन्तु, 1922 में तुर्की-इतालवी तथा [[बाल्कन]] युद्धों में, तुर्की के विपक्ष में, [[ब्रिटेन]] के योगदान को [[इस्लामी संस्कृति]] तथा सर्व इस्लामवाद पर प्रहार समझकर भारतीय मुसलमान ब्रिटेन के प्रति उत्तेजित हो उठे। यह विरोध भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रोषरूप में परिवर्तित हो गया। इस उत्तेजना को [[अबुल कलाम आज़ाद|अबुलकलाम आज़ाद]], ज़फ़र अली ख़ाँ तथा [[मुहम्मद अली|मोहम्मद अली]] ने अपने समाचारपत्रों अल-हिलाल, जमींदार तथा कामरेड और हमदर्द द्वारा बड़ा व्यापक रूप दिया।
 
[[पहला विश्व युद्ध|प्रथम महायुद्ध]] में तुर्की पर ब्रिटेन के आक्रमण ने असन्तोष को प्रज्वलित किया। सरकार की दमननीति ने इसे और भी उत्तेजित किया। राष्ट्रीय भावना तथा मुस्लिम धार्मिक असन्तोष का समन्वय आरम्भ हुआ। महायुद्ध की समाप्ति के बाद राजनीतिक स्वत्वों के बदले भारत को रौलट बिल, दमनचक्र, तथा [[जलियाँवाला बाग हत्याकांड|जलियानवाला बाग हत्याकांड]] मिले, जिसने राष्ट्रीय भावना में आग में घी का काम किया। अखिल भारतीय ख़िलाफ़त कमेटी ने जमियतउल्-उलेमा के सहयोग से ख़िलाफ़त आन्दोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में ख़िलाफ़त घोषणापत्र प्रसारित किया। राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व [[महात्मा गांधी|गांधी जी]] ने ग्रहण किया। गांधी जी के प्रभाव से ख़िलाफ़त आन्दोलन तथा [[असहयोग आन्दोलन|असहयोग आंदोलन]] एकरूप हो गए। मई, 1920 तक ख़िलाफ़त कमेटी ने महात्मा गांधी की अहिंसात्मक असहयोग योजना का समर्थन किया। सितम्बर में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ने असहयोग आन्दोलन के दो ध्येय घोषित किए - स्वराज्य तथा ख़िलाफ़त की माँगों की स्वीकृति। जब नवम्बर, 1922 में तुर्की में [[कमाल अतातुर्क|मुस्तफ़ा कमालपाशा]] ने सुल्तान ख़लीफ़ा [[महमद षष्ठ]] को पदच्युत कर [[अब्दुल मजीद द्वितीय|अब्दुल मजीद आफ़न्दी]] को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार अपहृत कर लिए तब ख़िलाफ़त कमेटी ने 1924 में विरोधप्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमण्डल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफ़ा कमाल ने उसकी सर्वथा उपेक्षा की और 3 मार्च 1924 को उन्होंने ख़लीफ़ी का पद समाप्त कर ख़िलाफ़त का अन्त कर दिया। इस प्रकार, भारत का खिलाफ़त आन्दोलन भी अपने आप समाप्त हो गया।
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== भारतीय उपमहाद्वीप में खिलाफ़त आन्दोलन ==
हालाँकि राजनीतिक गतिविधियों और खलीफ़ा की ओर से बहुत आक्रोश मुस्लिम दुनिया भर में उभरा किन्तु भारत में सबसे प्रमुख गतिविधियाँ हुईं।
 
एक प्रमुख ऑक्सफ़ोर्ड शिक्षित मुस्लिम पत्रकार, मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने औपनिवेशिक सरकार के प्रतिरोध की वकालत करने और खलीफ़ा के समर्थन में चार वर्ष जेल में बिताए थे। तुर्की स्वतन्त्रता युद्ध की शुरुआत में, मुस्लिम पान्थिक नेताओं ने उस खिलाफत / खलीफ़ा की आशंका जताई थी, जिसकी रक्षा के लिए यूरोपीय शक्तियाँ अनिच्छुक थीं। भारत के कुछ मुसलमानों के लिए, तुर्की में साथी मुसलमानों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किए जाने की सम्भावना एक अनाथ / अभिशप्त थी।<ref>However, at the same time, note must also be made that in the North Punjab and part of the NWFP, a huge number of Muslims did actively volunteer to serve in the British Indian Army in World War I</ref> अपने संस्थापकों और अनुयायियों के लिए, खिलाफत एक पान्थिक आन्दोलन नहीं था, बल्कि तुर्की में अपने मुस्लिम मुसलमानों के साथ एकजुटता का प्रदर्शन था।<ref>{{cite book|author=A. C. Niemeijer|title=The Khilafat movement in India, 1919–1924|url=https://archive.org/details/khilafatmovement0000niem|url-access=registration|year=1972|publisher=Nijhoff|page=[https://archive.org/details/khilafatmovement0000niem/page/84 84]}}</ref>
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कांग्रेस नेता मोहनदास गांधी और खिलाफ़त नेताओं ने खिलाफ़त / खलीफ़ा और ''' स्वराज ''' के लिए एक साथ काम करने और लड़ने का वादा किया। औपनिवेशिक सरकार पर दबाव बढ़ाने का प्रयास करते हुए, खिलाफतवादी [[असहयोग आंदोलन|असहयोग आन्दोलन]] का एक बड़ा हिस्सा बन जाते हैं - जन, शान्तिपूर्ण नागरिक अवज्ञा का एक राष्ट्रव्यापी अभियान। कुछ लोग अमानुल्लाह खान के तहत उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त से अफ़गानिस्तान तक एक विरोध प्रदर्शन में भी शामिल हुए।<ref>{{Cite book|last=Clements|first=Frank|url=https://books.google.com/books?id=bv4hzxpo424C&pg=PA109|title=Conflict in Afghanistan: A Historical Encyclopedia|last2=Adamec|first2=Ludwig W.|date=2003|publisher=ABC-CLIO|isbn=978-1-85109-402-8|language=en}}</ref> डॉ॰ अंसारी, मौलाना आज़ाद और हकीम अजमल खान जैसे खिलाफ़त नेता भी व्यक्तिगत रूप से गांधी के करीब बढ़ते गए। इन नेताओं ने 1920 में मुसलमानों के लिए स्वतन्त्र शिक्षा और सामाजिक कायाकल्प को बढ़ावा देने के लिए ''' जामिया मिलिया इस्लामिया ''' की स्थापना की।<ref>Gail Minault, ''The Khilafat movement'', p. 69</ref>
 
 
असहयोग अभियान पहले सफल रहा। कार्यक्रम की शुरुआत विधायी परिषदों, सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से हुई। सरकारी कार्य और उपाधियों और सम्मानों का समर्पण। बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, हड़तालें और सविनय अवज्ञा के कार्य पूरे भारत में फैल गए। हिन्दू और मुसलमान अभियान में शामिल हुए, जो शुरू में शान्तिपूर्ण था। गांधी, अली बन्धुओं और अन्य लोगों को औपनिवेशिक सरकार द्वारा तेजी से गिरफ्तार किया गया था।
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* एक वर्ग का कहना था कि गांधी की उपरोक्त रणनीति व्यवहारिक अवसरवादी गठबन्धन का उदाहरण था। वे समझ चुके थे कि अब भारत में शासन करना अंग्रेजों के लिए आर्थिक रूप से महंगा पड़ रहा है। अब उन्हें हमारे कच्चे माल की उतनी आवश्यकता नहीं है। अब सिन्थेटिक उत्पादन बनाने लगे हैं। अंग्रेजों को भारत से जो लेना था वे ले चुके हैं। अब वे जायेंगे। अत: अगर शान्ति पूर्वक असहयोग आन्दोलन चलाया जाए, सत्याग्रह आन्दोलन चलाया जाए तो वे जल्दी चले जाएँगे। इसके लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता आवश्यक है। दूसरी ओर अंग्रेजों ने इस राजनीतिक गठबन्धन को तोड़ने की चाल चली।
 
* एक दूसरा दृष्टिकोण भी है। वह मानता है कि गांधी ने इस्लाम के पारम्परिक स्वरूप को पहचाना था। पन्थ के ऊपरी आवरण को दरकिनार करके उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के स्वभाविक आधार को देख लिया था। 12वीं शताब्दी से साथ रहते रहते हिन्दु-मुसलमान सह-अस्तित्व सीख चुके थे। दबंग लोग दोनों समुदायों में थे। लेकिन फिर भी आम हिन्द-मुसलमान पारम्परिक जीवन दर्शन मानते थे, उनके बीच एक साझी विराजत भी थी। उनके बीच आपसी झगड़ा था लेकिन सभ्यतामूलक एकता भी थी। दूसरी ओर आधुनिक पश्चिम से सभ्यतामूलक संघर्ष है। गांधी यह भी जानते थे कि जो इस सभ्यता में समझ-बूझकर भागीदारी नहीं करेगा वह आधुनिक दृष्टि से भले ही पिछड़ जाएगा लेकिन पारम्परिक दृष्टि से स्थितप्रज्ञ कहलायेगा।
 
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[[श्रेणी:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम]]
[[श्रेणी:T500 2022]]