"गौरीदत्त": अवतरणों में अंतर

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==हिन्दी के प्रथम उपन्यास के रचयिता==
पंडित गौरीदत्त ने जहां देवनागरी लिपि के प्रचार तथा प्रसार के लिए इतने ग्रन्थ लिखे और अनेक पत्र-पत्रिकाएं सम्पादित कीं वहां अपने ‘देवरानी जेठानी की कहानी‘ नामक एक उपन्यास भी लिखा। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र|भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र]] ने हिन्दी गद्य-लेखन सन् 1873 में प्रारंभ किया था। पंडित गौरीदत्त के इस उपन्यास का प्रकाशन सन् 1870 में हुआ था। इससे पूर्व हिन्दी-गद्य में सैयद [[इंशा अल्ला खां]] की ‘[[रानी केतकी की कहानी]]‘ (सन् 1800 के आस-पास) नामक पुस्तक ही थी। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि हिन्दी का पहला उपन्यास ‘देवरानी-‘[[देवरानी जेठानी की कहानी‘कहानी]]‘ ही है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी के इतिहासकारों के अग्रणी आचार्य [[रामचन्द्र शुक्ल]] तक ने इसकी अपेक्षाउपेक्षा करके पंडित [[श्रद्धाराम फिल्लौरी]] की ‘भाग्यवती‘‘[[भाग्यवती]]‘ (प्रकाशन-वर्ष सन् 1877) [[लाला श्रीनिवासदास]] की ‘परीक्षा‘[[परीक्षा गुरु‘गुरु]]‘ (प्रकाशन-वर्ष सन् 1882) नामक पुस्तकों को अपने ‘हिंदी साहित्य की इतिहास‘ नामक गं्रथग्रन्थ में क्रमशः ‘हिन्दी का पहला सामाजिक उपन्यास' और ‘अंग्रेजी ढंग का पहला हिन्दी उपन्यास‘ माना है। इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि इस उपन्यास के प्रकाशन पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर ने ‘सौ रुपए‘ का पुरस्कार भी प्रदान किया था। आपके द्वारा अनूदित ‘गिरिजा‘ (1904) नामक एक और उपन्यास भी उल्लेखनीय है।
 
पंडित गौरीदत्त जी जहां अच्छे गद्य-लेखक थे वहां [[खड़ी बोली]] कविता के क्षेत्र में भी आपकी प्रतिभा अद्भुत थी। इसका सुपुष्ट प्रमाण आपके ‘देवरानी जेठानी की कहानी‘ नामक उपन्यास की भूमिका के अन्त में दिए गए उस पद्य से मिल जाता है जो आपने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर द्वारा पुरस्कार प्राप्त होने पर लिखा थाः
 
दया उनकी मुझ पर अधिक वित्त से
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छिपावें बुरों को भले प्रीति से
इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि गद्य-लेखन और पद्य-लेखन दोनों ही क्षेत्रों में पंडित गौरीदत्त का नाम सर्वथा अग्रणी और अनन्य है। यह प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के कुछ विवेकी अध्येताओं का ध्यान गौरीदत्त जी की इस प्रतिभा की ओर गया है और यह भ्रम अब धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है कि हिन्दी का प्रथम उपन्यास ‘भाग्यवती' और 'परीक्षा गुरु‘ न होकर ‘देवरानी-जेठानी की कहानी‘ ही है। इस उपन्यास का प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1870 में [[मेरठ]] के ‘जियाई छापेखाने‘ में लीथो-पद्धति से हुआ था और इसकी प्रति अब भी ‘नेशनल लायबे्ररीलायब्रेरी कलकत्ता‘ में सुरक्षित है। इस उपन्यास का पुनर्प्रकाशन अब [[पटना विश्वविद्यालय]] के प्राध्यापक और ‘समीक्षा‘ नामक शोध-पत्रिका के सम्पादक डॉ. गोपाल राय ने करके वास्तव में एक अभिनन्दनीय कार्य किया है।
 
आपका निधन 8 फरवरी सन् 1906 को हुआ था।