"कृषि का इतिहास": अवतरणों में अंतर
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शुनं वाहा: शुनं नर: शुनं कृषतु लाङ्गलम्।
शनुं वरत्रा बध्यंतां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय।।
शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रयु: पय:।
तेने मामुप सिंचतं।
अर्वाची सभुगे भव सीते वंदामहे त्वा।
यथा न: सुभगाससि यथा न: सुफलाससि।।
इन्द्र: सीतां नि गृह् णातु तां पूषानु यच्छत।
सा न: पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्।।
शुनं न: फाला वि कृषन्तु भूमिं।।
शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहै:।।
शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभि:।
शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम्
एक अन्य [[ऋचा]] से प्रकट होता है कि उस समय जौ हल से जोताई करके उपजाया जाता था-
एवं वृकेणश्विना वपन्तेषं
दुहंता मनुषाय दस्त्रा।
अभिदस्युं वकुरेणा धमन्तोरू
ज्योतिश्चक्रथुरार्याय।।
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व्राहीमतं यव मत्त मथो
माषमथों विलम्।
एष वां भागो निहितो रन्नधेयाय
दन्तौ माहिसिष्टं पितरं मातरंच ।।
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संजग्माना अबिभ्युषीरस्मिन्
गोष्ठं करिषिणी।
बिभ्रंती सोभ्यं।
मध्वनमीवा उपेतन ।।
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