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साधारण बोलचाल की भाषा में '''कर्म''' का अर्थ होता है 'क्रिया' । [[व्याकरण]] में क्रिया से निष्पाद्यमान फल के आश्रय को कर्म कहते हैं। "राम घर जाता है' इस उदाहरण में "घर" गमन क्रिया के फल का आश्रय होने के नाते "जाना क्रिया' का कर्म है।
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'''कर्म''' कोई भी कार्य जो किया जाये।
===कर्म===
कार्य का दूसरा नाम ही कर्म कहा जाता है,कर्म के विभिन्न नाम और दिये गये है,विरति,कारज,काज और जो भी संसार का जीवित जगत कर रहा है,वही कर्म कहलाता है,बिना कर्म के कोई अच्छा या बुरा परिणाम नही होसकता है,अच्छा कर्म किया जायेगा तो अच्छा फ़ल मिलेगा,और खराब कार्म को करने पर खराब फ़ल मिलेगा,"जो जस करिय सो तस फ़ल चाखा",गोस्वामी तुलसी दासजी की रामायण में बहुत ही अच्छी तरह से समझाकर लिखा गया है,रामायण में ही ज्योतिष शास्त्र के गूढ शब्दों का भी विवेचन किया गया है,जो लोग रामायण को अपने जीवन का आदर्श ग्रंथ मानकर चलते है,वास्तव में वे सदाचारी होते है.तुलसीकृत रामायण में कर्म के लिये बहुत ही अच्छी चौपाई लिखी गयी है,"धर्म से विरति,विरति से ज्ञाना,ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना",संसार मे सभी किये जाने वाले कर्म केवल धर्म से ही पैदा होते है,और जब धर्म से कर्म पैदा होते हैं,तो कर्म को किये जाने के बाद उनसे ज्ञान नाम फ़ल मिलता है,और जो ज्ञान नाम फ़ल का प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों मे किया जाता है,तो मोक्ष नाम शांति मिलती है.यह चौपाई ज्योतिष के नवें भाव धर्म,और दसवें भाव कर्म,ग्यारहवें भावफ़ल की प्राप्तियां,और बारहवें भाव खर्च करने की क्रिया को बहुत ही सुन्दर रूप से प्रस्तुत करती है.
कर्म को सरल शब्दो मे एक उदाहर द्वारा समझ सकते हे " बोया बीज बबुल का तो आम काहा से होई" अर्थात जो कर्म हम करते आ रहे है उसके अनुरुप ही हमे फल कि प्राप्ती होती है, हमने बबुल बोया है तो हमे काटें ही मिलेगे आम नही।
 
[[दर्शन]] में '''कर्म''' एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है। जो कुछ मनुष्य करता है उससे कोई फल उत्पन्न होता है। यह फल शुभ, अशुभ अथवा दोनों से भिन्न होता है। फल का यह रूप क्रिया के द्वारा स्थिर होता है। [[दान]] शुभ कर्म है पर हिंसा अशुभ कर्म है। यहाँ कर्म शब्द क्रिया और फल दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह बात इस भावना पर आधारित है कि क्रिया सर्वदा फल के साथ संलग्न होती है। क्रिया से फल अवश्य उत्पन्न होता है। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं का इसमें समावेश नहीं है। आँख की पलकों का उठना, गिरना भी क्रिया है, परंतु इससे फल नहीं उत्पन्न होता। दर्शन की सीमा में इस प्रकार की क्रिया का कोई महत्व इसलिए नहीं है कि वह क्रिया मन:प्रेरित नहीं होती। उक्त सामान्य नियम मन:प्रेरित क्रियाओं में ही लागू होता है। जान बूझकर किसी को दान देना अथवा किसी का वध करना ही सार्थक है। परंतु अनजाने में किसी का उपकार देना अथवा किसी को हानि पहुँचाना क्या कर्म की उक्तपरिधि में नहीं आता? कानून में कहा जाता है कि नियम का अज्ञान मनुष्य को क्रिया के फल से नहीं बचा सकता। [[गीता]] भी कहती है कि कर्म के शुभ अशुभ फल को अवश्य भोगना पड़ता है, उससे छुटकारा नहीं मिलता। इस स्थिति में जाने-अनजाने में की गई क्रियाओं का शुभ-अशुभ फल होता ही है। अनजाने में की गई क्रियाओं के बारे में केवल इतना ही कहा जाता है कि अज्ञान कर्ता का दोष है और उस दोष के लिए कर्ता ही उत्तरदायी है। कर्ता को क्रिया में प्रवृत्त होने के पहले क्रिया से संबंधित सभी बातों का पता लगा लेना चाहिए। स्वाभाविक क्रियाओं से अज्ञान में की कई क्रियाओं का भेद केवल इस बात में है कि स्वाभाविक क्रियाएँ बिना मन की सहायता के अपने आप होती हैं पर अज्ञानप्रेरित क्रियाएँ अपने आप नहीं होतीं-उनमें मन का हाथ होता है। न चाहते हुए भी आँख की पलकें गिरेंगी, पर न चाहते हुए अज्ञान में कोई क्रिया नहीं की जा सकती है। क्रिया का परिणाम क्रिया के उद्देश्य से भिन्न हो, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि क्रिया की जाए। अत: कर्म की परिधि में वे क्रियाएँ और फल आते हैं जो स्वाभाविक क्रियाओं से भिन्न हैं।
===धर्म से कर्म===
[[धर्म]] को समझने के लिये [[धर्म]] को ही पढना पडेगा,लेकिन जो बृह्त रूप से अर्थ लिया जाता है,वह सुबह से लेकर शाम तक की क्रियायें,महिने के शुरुआत से लेकर महिने के अन्त तक की क्रियायें,और साल के शुरु से लेकर साल के अन्त तक की क्रियायें,जीवन के शुरु से लेकर जीवन के अन्त तक की क्रियाओं के अन्दर जो मुख्य बात छुपी है वह [[धर्म]] ही छुपा हुआ है,[[हिन्दू]] [[धर्म]] के अन्दर पैदा होने वाला जातक जो भी कर्म करेगा वह [[हिन्दू]] [[धर्म]] के अनुसार ही करेगा,अपने को जो प्राथमिक रूप से ध्यान रखने वाली बात के अन्दर रखेगा वह [[धर्म]] पहली बात ही होगी,[[धर्म]] का [[अर्थ]] केवल मन्दिर,मस्जिद,चर्च और गुरुद्वारा में पूजा पाठ या इबादत करने से ही नही लिया जाता है,सबसे बडा [[अर्थ]] जो लिया जाता है वह अपने पिछले [[संस्कार]],पुरानी मान्यतायें,और पूर्वजों के अनुसार ही माना जा सकता है.[[हिन्दू]] के कर्म होंगे वे पहले अपने पूर्वजों के द्वारा अपनाये गये कर्मों के अनुसार ही माने जायेंगे,अधिक नही तो जीवन की पहली सीढी तक तो अपनाने जरूरी ही माने जा सकते हैं,जैसे बच्चा जब समझदार होता जाता है,वैसे ही जो भी कर्म करता है,वे अपने माता पिता के अनुसार ही करता जाता है,वह बात अलग है कि जब वह अपने में इतना सक्षम हो जाता है कि वह अलावा धर्म के अनुसार अपने को ढालना चाहता है,तो ढाल भी लेता है,लेकिन अगर वह अलावा धर्मों की तरफ़ जाता है तो या तो वह अपने को अपने धर्म से पीछे रख देता है,या फ़िर अपने [[धर्म]] से बिमुख ही हो जाता है.जैसे एक उदाहरण है कि मैं खुद ही एक क्षत्रिय राजपूत खानदान भदौरिया जाति में पैदा हुआ हूँ,जबतक समर्थ नही हुआ,पिता के साथ मिलकर घर के कामों के लिये जो भी काम खेती आदि के होते हैं करता रहा,शादी होने के बाद जब [[अर्थ]] की जरूरत पडी तो माता पिता को छोडने के लिये मजबूर होना पडा,गांव जन्म स्थान सभी को छोड कर जयपुर में आकर बसा,और मेहनत वाले काम जानने के कारण केवल मेहनत करने वाले लोगों के साथ ही रहना पडा,मेहनत करने वाले कर्मों का एक ही उद्देश्य होता है,वह होता है केवल [[अर्थ]] सिद्धि,पैसा कमाना,मेहनत मे अपने शरीर को प्रयोग करना और बुद्धि का प्रयोग केवल मेहनत वाले कामों के अन्दर किस तरह से मेहनत करनी है में ही लगाना,जिन लोगो के साथ मेहनत वाले कर्म करने थे,वे सभी पूजा पाठी धर्मों के लोग थे,लेकिन उनका केवल एक ही [[धर्म]] था,और वह था,पेट पूजा का [[धर्म]],पेट पूजा के [[धर्म]] में कर्म का करना बहुत ही जरूरी हो जाता है,वह कर्म चाहे मेहनत करने के द्वारा फ़ावडा चलाकर शाम को मिलने वाली मजदूरी के द्वारा हो या फ़िर हाथ ठेली से लोगों का सामान ढोकर मिलने वाली मजदूरी से हो,इस मेहनत वाले कर्मों के अन्दर कितने ही काम आ जाते है,जो शरीर को प्रयोग करने के बाद [[अर्थ]] साधन की जरूरत को पूरा करदेते है.लेकिन इन सब कामों के अन्दर शरीर की बहुत अधिक जरूरत पडती है,शरीर को पालने के लिये माता पिता और समाज की जरूरत पडती है,शरीर की रक्षा करने के लिये भी समाज और गांव की जरूरत पडती है,तो जिस जगह पर मनुष्य निवास करता है,उस स्थान की खुशी में खुश रहना,उस स्थान की गमी में गम करना भी मुख्य [[धर्म]] माना जाता है,[[धर्म]] को न पालने पर कर्म के अन्दर हील हुज्जत आ जाती है,जैसे एक ईसाई मुहल्ले मे रहना है,क्रिसमिस के दिन सभी अपने घरों को गुब्बारों और सितारों से सजाते हैं,"ईसामसीह" जिनका उल्टा नाम समझने से "हंसी मे सांई" का सीधा [[अर्थ]] आ जाता है,की इबादत और प्रार्थना करनी पडती है,को न करने पर बगल वाला पडौसी ही नफ़रत भरी द्रष्टि से देखना चालू कर देता है,और कोई मिलने वाला भी आता है बगल वाले पडौसी से पता पूंछता है,तो वह पता नही है कहकर सीधा मानसिक प्रहार करता है,मानसिक प्रहार के कारण जो मिलने जुलने वाले लोग है,वे भी दूर और दूर होते जाते हैं,अक्सर कहा जाता है,कि अगले को तो पडौसी भी नही जानते,तो उसका क्या भरोसा,और कर्म के अन्दर कितनी ही दखलंदाजी पैदा हो जाती हैं.आज के राजनीतिक लोग जो फ़ायदा उठा रहे हैं वह [[धर्म]] का फ़ायदा ही तो उठा रहे हैं,[[काग्रेस]] मुसलमानों और पंडितों का फ़ायदा उठा रही है,मुसलमानों का इसलिये के भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरू के दादाजी,का असली नाम ग्यासुद्दीन गाजी था{{तथ्य}},और उन्होने ब्रिटिस सेना से बचने के लिये अपना नाम बदल कर "गंगाधर" रख लिया था,इन्हीं बने हुए ब्राहम्ण गंगाधर के मोतीलाल हुए और कालचक्र की कसौटी पर पंडित बन गये,फ़िर इतिहास स्वर्गीय इन्दिरा गांधी ने अपनाया और फ़िरोजखांन से शादी करने के बाद उन्हें गांधी जी ने गांधी बना दिया.[[भाजपा]] भी [[धर्म]] को भुनाकर अपनी राजनीति कर रही है,सुश्री मायावती भी समाज को वर्गीकृत करने के बाद राजनीति कर रही है.लेकिन जो सबसे बडा [[धर्म]] पेट पूजा वाला [[धर्म]] न किया जाये,तो किये जाने वाले कर्म को व्यक्ति कहां से कर पायेगा.
===कर्म से अर्थ===
कर्म के कितने ही रूप आज सामने है,कोई नौकरी करने को कर्म मानते है,नौकरी दूसरों की सेवा करने के बाद मिली हुई तन्खाह यानी [[अर्थ]] है,और कोई अपने सामान को बेचने और दूसरों का खरीदने का कर्म कर रहे है,वे व्यवसायी कहलाते है,कोई खेती का कर्म करने के बाद लोगों का पेट पालने के लिये अन्न आदि का उत्पादन कर रहे है, और बदले में अन्न को बेच कर अपने परिवार की अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे है,कुन्डली का दूसरा भाव ही भौतिक धन का का कारक कहा जाता है,और व्यक्ति के शरीर और नाम के बाद धन की मात्रा का ही ज्ञान किया जाता है,वह धन जो भौतिक रूप से दिखाई देने वाले होता है,सोना,चांदी,जेवरात,हीरे जवाहारात,नगद रुपया आदि इसी भाव से देखे जाते है.व्यक्ति का प्रत्येक कार्य धन कीमापना से देखने के कारण जो लोग दूसरों के प्रति उनकी भलाई आदि का भाव भी रखते है वह भी समय आने पर भुनाने की कोशिश करते है,एक बाप अपने बेटे को पालता है पढाता है लिखाता है और जब वह समर्थ हो जाता है तो बुढापे के लिये आशा रखता है, कि वह उनकी कमजोरी की हालात में सहायता करता है,लेकिन वही लडका अगर किसी कारण से उस समाज में जाकर घिर जाता है,जहां पर माता पिता को मान्यता ही नही देते है,माता और पिता बच्चे को पैदा जरूर करते है उनकी समय की जरूरतों को भी पूरा करते है लेकिन अधिकतर मामलो मे वे जब स्वतन्त्र प्रकृति के हो जाते है तो उनको ख्याल ही नही रहता है कि कोई उनके लिये जीवन रूपी रास्ते मे आशा लगाकर भी बैठा है,कर्म किया जाता है,कर्म का मतलब अगर हर तरह से अर्थ से लिया जायेगा तो माता पिता का प्यार बच्चे को पैदा करने के बाद प्रसव की पीडा उसकी हर प्रकार की परवरिश का परिमाप किसी भी प्रकार से धन से तो लगाया नही जा सकता है,अपने से छोटे भाई बहिनो को बताये जाने वाले रास्तों के लिये उनसे समाधान की फ़ीस तो नही ली जा सकती है,अपने साथ अपने घर मे रखने पर उनसे किराया तो नही लिया जा सकता है,उनको जो भी शिक्षात्मक बातें बताईं जाती है,उनके लिये चार्ज तो नही किया जाता है,बीमारी कर्जा और दुश्मनी मे उनसे सभी खर्च तो नही लिये जाते है,उनकी शादी करने और और उनके लिये पति या पत्नी खोजने के लिये मैरिज ब्यूरो की तरह् से धन का कमीशन तो नही लिया जाता है,उनमे अगर किसी की मृत्यु हो जाती है,तो उनसे शमशानघात तक लेजाने और उनकी क्रिया कर्म करने की फ़ीस तो चार्ज नही की जा सकती है,उनके जन्म के बाद जो भी जायदाद का हिस्सा होत अहै उसमे से उनको बेदखल तो नही किया जा सकता है,वे जिसे पिता कहते है वही पिता सामने वाले का भी होता है,उससे अंकल कह कर तो नही बुलाया जाता है,अगर रास्ते में कोई मित्र मिल जात अहै और पूंछता है कि क्या आप अमुक के ब्डे भाई है तो आप यह तो नही कह सकते कि नही उससे मेरा कोई रिस्ता नही है,और वक्त पर जब उसे कही जाना होता है तो वह अगर आपकी सहायता चाहता है,तो आप मना तो नही कर सकते है कि नही आप किसी अजनबी की तरह यह कह देम्गे कि अभी आपके पास समय नही है,यह सब बाते कर्म और कर्म के बदले में धन की चाहत परिवार और खासकर अपने लोगो के साथ नही मानी जाती है,मैने कितने ही राजस्थानी लोगो को देखा है,हम सब तो भाई बहिनो तक ही सीमित होकर रह गये है,यहां पर जब जमात जुडती है तो पिता के भाई की पत्नी के भाई का साला और उसके भी रिस्ते दारों का ख्याल किया जाता है,और इसका प्रभाव यह भी होता है कि कोई भी काम सरकारी रूप मे अटक जाता है,या पुलिस आदि किसी को परेशान करती है तो व्यक्ति सीधी जान पहिचान करने के बाद ही बेदाग बच जाता है और उसी जगह पर जो राजस्थान का निवासी नही है,कितनी ही कोशिश करे,वह नही बच पाता है,तो जो फ़ायदा वंशानुगत जान पहिचान से कर्म करने से होता है,वह साधारण रूप से केवल मुद्रा तक ही सीमित होता है,उस मुद्रा में अपनत्व नही होता है.
 
क्रिया और फल का संबंध [[कार्य-कारण-भाव]] के अटूट नियम पर आधारित है। यदि कारण विद्यमान है तो कार्य अवश्य होगा। यह प्राकृतिक नियम आचरण के क्षेत्र में भी सत्य है। अत: कहा जाता है कि क्रिया का कर्ता फल का अवश्य भोक्ता होता है। बौद्धों ने कर्ता को क्षणिक माना है परंतु इस नियम को चरितार्थ करने के लिए वे क्षणसंतान में एक प्रकार की एकरूपता मानते हुए कहते हैं कि एक व्यक्ति की संतान दूसरे व्यक्ति की संतान से भिन्न है। क्षणभेद होने से भी व्यक्तित्व में भेद नहीं होता; अत: व्यक्ति पूर्वनिष्पादित क्रिया का उत्तर काल में भोग करता ही है। यिद हम यह न मानें तो कहना पड़ेगा कि किसी दूसरे के द्वारा की गई क्रिया का फल का कोई दूसरा भोगता है जो तर्क विरुद्ध है। यदि इस नियम पर पूर्ण आस्था हो तो तर्क हमें इसके एक अन्य निष्कर्ष को भी स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है। यदि सभी क्रियाओं का फल भोगना पड़ता है तो उन क्रियाओं का क्या होगा जिनका फल भोगने के पहले ही कर्ता मर जाता है? या तो हमें कर्म के सिद्धांत को छोड़ना होगा या फिर, मानना होगा कि कर्ता नहीं मरता, वह केवल शरीर को बदल देता है। भारतीय विचारकों ने एक स्वर से दूसरा पक्ष ही स्वीकार किया है। वे कहते हैं कि मरना शरीर का स्वाभाविक कर्म है, परंतु भोग के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वही शरीर भोगे जिसने क्रिया की है। भोक्ता अलग है और वह कर्मफल का भोग करने के लिए दूसरा शरीर धारण करता है। इसी को पुनर्जन्मवाद कहते हैं। मृत्यु शरीर की आनुषंगिक स्वाभाविक क्रिया है जिसका कर्म पर कोई प्रभाव नहीं होता। अत: कर्म के सिद्धांत को पुनर्जन्म से अलग करके नहीं रखा जा सकता।
===अर्थ से संतुष्टि===
 
कार्य करने के बाद जो भी बदले मे पारिश्रमिक मिलता है,उसे ही किये जाने वाले कार्य की संतुष्टि या फ़ल कहते हैं,नौकरी करने के बाद जो तन्खाह मिली उसे अपने परिवार या निजी इच्छा पूर्ति के लिये खर्च करने के बाद जो मानसिक प्रतिफ़ल मिला वही अर्थ की सम्तुष्ति कहलाती है.यह बात ज्योतिष के अनुसार ग्यारहवां घर तो फ़ल का है और उस मिले फ़ल को प्रयोग करना,जैसे पैसे के रूप में फ़ल मिला तो खर्च करने से और अगर खाने के रूप मे फ़ल मिला तो शरीर को पालने के लिये,और नाम के रूप मे फ़ल मिला तो उसे समाज मे बताकर आगे की प्रभुता लेने के लिये प्रयोग करने पर जो भावनात्मक इच्छापूर्ति होती है वही शांति या मोक्ष कहलाती है.इस प्रकार से तुलसीदास जी की रचित चौपाई का अर्थ धर्म से विरति,विरति से ज्ञाना,और ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना,को माना जकता है.
इतना ही नहीं, जब क्रिया का संबंध फलभोग के साथ माना जाता है तब यह भी मानना पड़ेगा कि भोग-जो शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार सुखमय या दु:खमय होता है-अवश्यंभावी है। उससे बचा नहीं जा सकता, न तो उसको बदला जा सकता है। फल के क्षय का एकमात्र उपाय है उसको भोग लेना। इस जन्म में प्राणी जैसा है उसके पूर्व जन्मों की क्रियाओं का फल मात्र है। फल एक शक्ति है जो जीवन की स्थिति को नियंत्रित करती है। इस शक्ति का पुंज भी कर्म कहा जाता है और कुछ लोग इसे भाग्य या नियति भी कहते हैं। नियतिवाद में माना गया है कि प्राणी नियति से नियंत्रित अत: परवश है। वह स्वयं कुछ नहीं करता। परंतु पूर्वजन्मों की क्रिया का फल भोगने के अलावा वह इस जन्म में स्वतंत्र कर्ता भी है, अत: पूर्व कर्मों को भोगने के साथ ही वह भविष्य के लिए कर्म करता है। इसी में उसका स्वातंत््रय है। आचार के लिए स्वतंत्रता परमावश्यक है और प्राय: सभी भारतीय दार्शनिक इसे मानते हैं। क्रिया, क्रियाफल तथा क्रियाफल का समूह, जिसे अदृष्ट भी कहते हैं, भारतीय दर्शन में कर्म शब्द से अभिहित होता है।
===अर्थ को प्राप्त करने के नियम===
 
एक बार महाराज विक्र्मादित्य शिकार खेलने के लिये वन में गये और रास्ता भटक कर किसी ऋषि की कुटिया में पहुंच गये,पूरा दिन रास्ता भटकने के कारण भूख भी खूब लगी थी,ऋषि से उन्होने अपना परिचय दिया कि वह उज्जयनी नगरी के महाराज है,ऋषि ने उनकी तरफ़ उसी तरह से ध्यान दिया जैसे एक भिखमंगे को द्वार पर आने के बाद एक साधारण गृहस्थ देता है,महाराजा को बहुत आश्चर्य हुआ,और उन ऋषि से पूंछा कि " हे ! ऋषिजी आपने मेरे सवाल का जबाब भी नही दिया और मुझे एक याचक की तरह से देख रहे हैं,ऋषि ने जबाब दिया कि जो याचक होता है उसे याचक की नजर से देखा जाता है,आप भले ही एक नगर या राष्ट्र के महाराजा हैं,मुझे आपसे कुछ लेना देना नही है,मै आपके राज्य में भीख मांगने नही जाता,मुझे जो भी वनदेवी कंदमूल फ़ल खाने को देती है,वह ही मै खाता हूँ,और जब नही होता है तो नदी की बालू मिट्टी खाकर अपनी क्षुधा पूर्ति करता हूँ,और आप ने आजतक मेरे लिये कभी कुछ राज्य से भेज दिया होता तो मै भी आपके सम्मान के लिये बन्दोबस्त करता,अब बताइये कि आप क्या है,महाराजा अकेले थे,उनके साथ भी कोई नही था,और रास्ता भी उनको पता नही था भूख उनको बहुत जोर से लगी थी,किसी भी तरह से वे रात्रि का विश्राम और क्षुधा की पूर्ति चाहते थे,ऋषि ने एक प्रस्ताव उनके सामने रखा कि वह एक रोटी के बदले में एक सहस्त्र असर्फ़ी लेंगे,महाराजा ने हां करदी,उनको बहुत भूख लगी थी,और उन्होने दस रोटियां उन ऋषि से लेकर खाली,जैसे ही रोटी खाने लगे पानी की आवश्यकता हुई ऋषि ने एक लोटा पानी की पचास असर्फ़ी लेने के वचन के बाद उनको पानी भी पिला दिया,अब जैसे ही खाना और पानी उनके पेट में गया,ऋषि ने अपना कमंडल उठाया और जंगल की तरफ़ चलने लगे,राजा को परेशानी यह हुई कि अब रोटी खाने के बाद उनसे एक कदम भी नही चला जायेगा,उन्होने ऋषि से रात भर उसी जगह रुकने और उनकी रक्षा करने लिये कहा क्योंकि उस भयंकर जंगल में बहुत सारे हिंसक जानवर थे,ऋषि ने कहा कि जब एक रोटी की एक सहस्त्र असर्फ़ी कीमत होती है तो शरीर की कितनी कीमत होगी,महाराजा ने कोई जबाब नही इस लिये नही दिया कि उनको भी पता नही था कि उनके शरीर की कितनी कीमत होगी,बात आधे राजपाट पर टिक गयी,और राजा ने मंजूर कर लिया,रात भर महाराजा अपने स्थान पर सोते रहे,और सुबह होते ही ऋषि से रास्ता नगर के लिये पूंछा,ऋषि ने एक रास्ते की तरफ़ इशारा करते हुए बताया कि यह रास्ता सीधा नगर की तरफ़ ही जाता है,मगर नगर तुम्हारे राज्य का है या तुम्हारे किसी शत्रु के राज्य का,यह बात तो हमे भी पता नही है,महाराजा के मन में और भी डर भर गया कि,अगर वह नगर किसी शत्रु राजा का हुआ हो,तो राज्य भी गया,और जान भी गयी,उन्होने ऋषि से प्रार्थना की कि वे ही उनके राज्य तक पहुंचा दें,ऋषि ने कहा कि आधा राज्य तो दे ही चुके हो अब घर पहुंचाने का क्या मिलेगा,बात चौथाई राज्य की और हो गयी,महाराजा ने मन मे सोचा कि पहले घर तो पहुंच जायें,राज्य तो और भी बढा लेंगे,ऋषि ने उनको बल्कल वस्त्र पहिनाये और उनके घोडे को वन में ही छोड कर राजा को पैदल ही शिष्य के वेश मे लेकर चल दिये,आगे जाने पर जो नगर आया वह वास्तव में ही महाराजा के शत्रु का राज्य का था,लेकिन ऋषि के साथ होने पर राजा को शिष्य वेश में नही पह्चानने के कारण वे सकुशल अपने राज्य में पहुंच गये और अपने महल के अन्दर चले गये,उन ऋषि को वे बाहर ही छोड गये,अन्दर जाकर वे अपने वचन के अनुसार एक चौथाई राज्य अपने लिये रखने के बाद निश्चित की गयी मुद्रा और राज्य का भार उन ऋशि को देने के लिये बाहर आये और राजकीय घोषणा करने के बाद उन्होने वह राजपाट और मुद्रायें उन ऋषि को अर्पित कर दीं,यह सब अर्पित करने के बाद उन्होने कहाकि हे! ऋषि महाराज अब आप अपना यह सामान लेकर उसी वन में जाकर रहो,ऋषि ने जबाब दिया कि,"वन में क्यों अपने राज्य ही मे रहकर राज पाट सम्भालूंगा",राजा ने कहा कि ठीक है,सम्भाल लो,ऋषि जैसे ही चलने के लिये तैयार हुऐ,महाराजा ने कहा कि ऋषि जी,यह शरीर और सम्पदा लेकर किस तरीके से जंगल तक पहुंचोगे,कोई भी चार आदमी इस माल को छीन कर तुम्हारी जान ले लेंगे,इसलिये के एक सेना की टुकडी तो साथ लेते जाओ,ऋषि समझ गये थे,कि राजा न्यायवान है,और उपकार का बदला भी देना जानते है,वे हंसे और बोले,जिस माया से मै अभी तक दूर रहा वही आज लेकर क्या मैं अपना परलोक थोडे ही बिगाडूंगा,यह आपकी ही है और आपकी ही रहेगी,यह कह कर वे वन की ओर प्रस्थान कर गये,इस कहानी से अर्थ प्राप्त करने का नियम और उसे बचाने के नियम से वाकिफ़ होना पडता है,कि समय और परिस्थिति के अनुसार ही धन का मोह होता है,अलावा समय में नही.
पहले कहा गया है कि मन:प्रेरणा कर्म का आवश्यक उपकरण है। मन:-प्रेरणा के शुभ या अशुभ होने से ही कर्म शुभ या अशुभ हाता है। डाक्टर रोगी की भलाई के लिए उसकी चीरफाड़ करता है। यदि इस चीरफाड़ से रोगी को कष्ट होता है तो डाक्टर उसका उत्तरदायी नहीं है। डाक्टर शुभ कर्म कर रहा है। अत: दु:ख, जो अशुभ मन:प्ररेणा से की गई क्रिया का फल है, तभी दूर हो सकता है जब मन को अशुभ प्रभावों से बचाया जाए। सर्वदा शुभ कर्म करना सर्वदा शुभ सोचने से ही हो सकता है। कष्ट के बचने का यही एक उपाय है। परंतु शुभ कर्म करनेवाले व्यक्ति को फलभोग के लिए जन्म लेना ही होगा, चाहे स्वर्ग में, चाहे पृथ्वी पर। जन्म लेना अपने आपमें महान्‌ कष्ट है क्योंकि जन्म का संबंध मृत्यु से है। मृत्यु का कष्ट दु:सह कष्ट माना गया है। अत: यदि इस कष्ट से भी छुटकारा पाना है तो जन्म की परंपरा को भी समाप्त करना होगा। इसके लिए शुभ कर्मों का भी परित्याग आवश्यक है क्योंकि बिना उसके जन्म से मुक्ति नहीं है। अत: शुभाशुभ परित्यागी ही वास्तविक दु:खमुक्त हो सकता है।
 
क्या शुभाशुभ परित्याग संभव है? शरीर रहते यह संभव नहीं मालूम होता। पर एक उपाय है। मन के शोधन से यह सिद्ध हो सकता है। यदि मन में किसी फल की आकांक्षा के बिना, पलक उठने गिरने की तरह, सारी क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से की जाएँ तो उनसे शुभ अशुभ फल उत्पन्न नहीं होंगे और जन्म मृत्यु से भी छुटकारा मिल जाएगा। निष्काम कर्म का यही आदर्श है। इसके विपरीत सारे कर्म-जो शुभ अशुभ होते हैं-सकाम कर्म हैं और वे बंधन के कारण हैं।
 
कर्म के इस सिद्धांत के साथ [[स्वर्ग]]-[नरक]] की कल्पनाएँ भी जुड़ी हैं। शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप सकल सुखों से पूर्ण स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत नरक की प्राप्ति होती है। स्वर्ग नरक में भी शुभ अशुभ कर्म की मात्रा के अनुसार अनेक स्तर माने गए हैं, जैसे पृथ्वी पर अनेक स्तर हैं। कर्म के सिद्धांत को मानने पर स्वर्ग नरक की कल्पना को भी मानना आवश्यक हो जाता है।
 
जिन्हें हम शुभ कर्म कहते हैं वे पुण्य तथ अशुर्भ कर्म पाप कहलाते हैं। पुण्य और पाप मुख्यत: क्रिया के फल का बोध कराते हैं। ये कर्म तीन प्रकार के हाते हैं। नित्यकर्म वे हैं जो न करने पर पाप उत्पन्न करते हैं, किंतु करने पर कुछ भी नहीं उत्पन्न करते। नैमित्तिक कर्म करने से पुण्य तथा न करने से पाप होता है। काम्य कर्म कामना से किए जाते हैं अत: उनके करने से फल की सिद्धि होती है। न करने से कुछ भी नहीं होता। चूँकि तीनों कर्मों में यह उद्देश्य छिपा है कि पुण्य अर्जित किया जाए, पाप से दूर रहा जाए, अत: ये सभी कर्म मन:प्रेरित हैं। जन्म से छुटकारा पाने के लिए नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों का परित्याग अत्यंत आवश्यक माना गया है।
 
==बाहरी कड़ियाँ==
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