विशिष्ट आपेक्षिकता

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(विशेष सापेक्षता से अनुप्रेषित)

विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धांत अथवा आपेक्षिकता का विशिष्ट सिद्धांत (जर्मन: Spezielle Relativitätstheorie, अंग्रेज़ी: special theory of relativity or STR) गतिशील वस्तुओं में वैद्युतस्थितिकी पर अपने शोध-पत्र में अल्बर्ट आइंस्टीन ने १९०५ में प्रस्तावित जड़त्वीय निर्देश तंत्र में मापन का एक भौतिक सिद्धांत दिया।

गैलीलियो गैलिली ने अभिगृहीत किया था कि सभी समान गतियाँ सापेक्षिक हैं और यहाँ कुछ भी निरपेक्ष नहीं है तथा कुछ भी विराम अवस्था में भी नहीं है, जिसे अब गैलीलियो का आपेक्षिकता सिद्धांत कहा जाता है। आइंस्टीन ने इस सिद्धांत को विस्तारित किया, जिसके अनुसार प्रकाश का वेग निरपेक्ष व नियत है, यह एक ऐसी घटना है जो माइकलसन-मोरले के प्रयोग में हाल ही में दृष्टिगोचर हुई थी। उन्होने एक अभिगृहीत यह भी दिया कि यह सभी भौतिक नियम, यांत्रिकी व स्थिरवैद्युतिकी के सभी नियमों, वो जो भी हों, समान रहते हैं।

इस सिद्धांत के परिणामों की संख्या वृहत है जो प्रायोगिक रूप से प्रेक्षित हो चुके हैं, जैसे- समय विस्तारण, लम्बाई संकुचन और समक्षणिकता। इस सिद्धांत ने निश्चर समय अन्तराल जैसी अवधारणा को बदलकर निश्चर दिक्-काल अन्तराल जैसी नई अवधारणा को जन्म दिया है। इस सिद्धांत ने क्रन्तिकारी द्रव्यमान-ऊर्जा सम्बन्ध E=mc2  दिया, जहां c निर्वात में प्रकाश का वेग है, यह सूत्र इस सिद्धांत के दो अभिगृहीतों सहित अन्य भौतिक नियमों का सयुंक्त रूप से व्युत्पन है। आपेक्षिकता सिद्धांत की भविष्यवाणियाँ न्यूटनीय भौतिकी के परिणाम को सहज ही उल्लेखित करते हैं, विशेषतः जब प्रेक्षणिय वस्तु का वेग, प्रकाश के वेग की तुलना में नगण्य हो। विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धांत के अनुसार प्रकाश का वेग c किसी परिकल्पना का वेग मात्र नहीं है जैसे विद्युतचुम्बकीय विकिरण (प्रकाश) का वेग बल्कि समष्टि व समय के एकीकरण का दिक्-काल (space-time) के रूप में करने के लिए एक मूलभूत लक्षण है। इस सिद्धांत का एक परिणाम यह भी है कि ऐसी कोई भी वस्तु अथवा कण जिसका विराम द्रव्यमान शून्य नहीं है किसी भी परिस्थिति में प्रकाश के वेग तक त्वरित नहीं किया जा सकता।

इस सिद्धांत को विशिष्ट (special) कहने का कारण यह है कि यह सिद्धांत केवल जड़त्वीय निर्देश तंत्रों में ही लागू होता है। इसके कुछ वर्षों पश्चात् सामान्य आपेक्षिकता नामक व्यापक सिद्धांत दिया गया, जो व्यापक निर्देशांकों पर कार्य करता है और इससे गुरुत्वाकर्षण समझने में भी सहायता मिलती है।

अभिगृहीत

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हिन्दी अनुवाद: इस तरह के कुछ विचारों ने कई वर्षों पूर्व सन् १९०० के पश्चात, अर्थात् प्लांक के भारी कार्य की न तो यांत्रिकी और न ही विद्युतगतिकी (केवल सीमान्त सम्बंधों को छोडकर) यथार्थ वैधता तक ज्ञात किया जा सकता है, के तुरन्त बाद यह स्पष्ट कर दिया था। धीरे-धीरे मैं सत्य नियमों के आविष्कार मतलब ज्ञात तथ्यों पर आधारित प्रयासों की रचनात्मकता की सम्भावना को लेकर निराश हो गया। लम्बे समय तक और अधिक निराशा के साथ मैंने कोशिश की और मेरा विश्वास और दृढ़ होता गया कि केवल सार्वभौमिक औपचारिक सिद्धांत का आविष्कार ही हमें आश्वस्त परिणामों तक पहुँचा सकता है....    कैसे, तब, क्या एक ऐसा सार्वभौमिक सिद्धांत प्राप्त किया जा सकता है?

—अल्बर्ट आइंस्टीन : आत्मकथात्मक टिप्पणियाँ[1]

आइन्सटीन ने दो मूलभूत प्रस्ताव दिए जो सबसे अधिक सही प्रतीत होते हैं, जो तत्कालीन यांत्रिकी और विद्युत्गातिकी के नियमों की परिपूर्ण वैधता की अनदेखी करके दिए गये। यह प्रस्ताव प्रकाश के वेग पर निर्भर और भौतिक नियमो (उस समय के प्रकाश के वेग से सम्बंधित भौतिक नियमों) व जड़त्वीय निर्देश तंत्र से स्वतंत्र थे। उन्होंने १९०५ में अपनी प्रथम प्रस्तुति में इन अभिग्रिहितों का उल्लेख किया[2]

  • आपेक्षिकता का सिद्धांत - भौतिक घटनाएँ एक जड़त्वीय निर्देश तंत्र से दूसरे में जाने पर परिवर्तित नहीं होती चाहे वो एक दूसरे के सापेक्ष किसी नियत वेग से गतिशील क्यों ना हों।[2]
  • प्रकाश के वेग की निश्चरता का सिद्धांत - "...प्रकाश हमेशा खाली समष्टि (निर्वात) में वेग (चाल) c से संचारित होता है जो उत्सर्जन पिण्ड (स्रोत) की गति पर निर्भर नहीं करता।[2] अर्थात प्रकाश का निर्वात में वेग c (एक स्थायी नियतांक जो दिशा पर निर्भर नहीं करता) होता है जो निर्देश तंत्र पर निर्भर नहीं करता।[3]

विशिष्ट आपेक्षिकता की व्युत्पत्ति न केवल उपरोक्त दो अभिगृहीतों पर है बल्कि समष्टि (दिक्) की समदैशिकता व समरूपता, छड़ मापन की स्वतंत्रता और अपने अतीत के इतिहास से घड़ियाँ (समय) सहित विभिन्न निहित परिकल्पनाओं (लगभग सभी भौतिक सिद्धान्तों में बनते हैं।) पर निर्भर करती है।[4]

विशिष्ट आपेक्षिकता पर १९०५ में आइन्सटीन की मूल प्रस्तुति के अनुसार, विभिन्न परिवर्ती व्युत्पन विधियों द्वारा प्राप्त विभिन्न अभिगृहीत दिए जा चुके हैं।[5]

निरपेक्ष निर्देश तंत्र का अभाव

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विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धांत के अनुसार कोई भी निर्देश तंत्र निरपेक्ष नहीं होती। पृथ्वी पर स्थिर निर्देश तंत्र जड़त्वीय निर्देश तंत्र नहीं है क्योंकि यह पृथ्वी की घूर्णन गति के साथ यह भी घूर्णन करता है। एक जड़त्वीय निर्देश तंत्र के सापेक्ष नियत वेग से गतिशील निर्देश तंत्र भी जड़त्वीय होता है। अतः निरपेक्ष जड़त्वीय निर्देश तंत्र की परिकल्पना निराधार है।

निर्देश तंत्र, निर्देशांक और लोरेन्ज रूपान्तरण

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यहाँ दो निर्देश तंत्र प्रदर्शित हैं जिनमें एक का मूल बिन्दु O है तथा काले रंग से प्रदर्शित है और दूसरे का O' जिसका रंग नीला है। यहाँ काले निर्देश तंत्र पर पर स्थित प्रेक्षक के लिए, नीला निर्देश तंत्र, काले निर्देश तंत्र के सापेक्ष x-अक्ष की दिशा में नियत वेग v से गतिशील है। विशिष्ट आपेक्षिकता के सिद्धांत से नीले निर्देश तंत्र पर स्थित प्रेक्षक के लिए वैसी ही परिघटनाएँ प्रेक्षित होंगी केवल अंतर यह होगा कि यहाँ वेग -v होगा। अन्योन्य क्रिया के संचरण की चाल में परिवर्तन निरपेक्ष (आपेक्षिकता से पूर्व) प्रक्रिया में अनन्त तक संभव थी जिसका एक निश्चित मान तक सिमित होना रुपान्तरण समीकरणों में संशोधन की आवश्यकता की और ध्यान खींचती है।

माना निर्देश तंत्र S में दिक्-काल निर्देशांक (t,x,y,z) हैं और निर्देश तंत्र S′ में निर्देशांक (t′,x′,y′,z′) हैं। तब लोरेन्ज रूपांतरण के अनुसार इन निर्देशांकों को निम्न सम्बन्धों द्वारा ज्ञात किया जा सकता है :

 

जहाँ

 

लोरेन्ज गुणक है और c निर्वात में प्रकाश का वेग है और निर्देश तंत्र S′ का वेग v x-अक्ष के समान्तर है। y और z निर्देशांक प्रभावित नहीं हैं; केवल x और t निर्देशांकों का स्थानान्तरण होता है। यहाँ x-अक्ष में कुछ विशेष नहीं है, स्थानान्तरण y अथवा z अक्षों पर भी लागू हो सकता है, अथवा किसी भी दिशा में जो दिशा गति की दिशा के समान्तर और लम्बवत हो।

एक राशि जो लोरेन्ज रूपांतरण में निश्चर रहती है लोरेन्ज निश्चर कहलाती है।

भिन्न निर्देशांकों में लोरेन्ज रूपांतरण और इसके व्युत्क्रम लिखने पर, जहाँ एक एक घटना के निर्देशांक (x1, t1) और (x1, t1) हैं तथा दूसरी घटना के निर्देशांक (x2, t2) और (x2, t2) तब उनके अन्तराल निम्न तरह से परिभाषित किये जाते हैं :

 

अतः हम लिख सकते हैं

 

लोरेन्ज रूपान्तरण से व्युत्पन्न परिणाम

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विशिष्ट आपेक्षिकता के परिणाम लोरेन्ज समीकरणों से व्युत्पन्न किये जा सकते हैं।[6] ये रूपांतरण और विशिष्ट आपेक्षिकता भी, न्यूटनीय परिणामों से भिन्न परिणाम देते हैं जब सापेक्ष वेग का मान प्रकाश के वेग की कोटि का हो। प्रकाश का वेग मानव निर्मित किसी भी समागम से बहुत अधिक है जो विशिष्ट आपेक्षिकता द्वारा कुछ प्रभाव प्राप्त किये गये। समक्षणिकता, समय विस्तारण, लम्बाई संकुचन जैसे उदाहरण प्रायोगिक रूप से सिद्ध किए जा चुके हैं। [7]

समक्षणिकता की आपेक्षिकता

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हरे (चित्र में प्रदर्शित रंग) निर्देश तंत्र में घटना B घटना A के साथ घटित होती है अर्थात समक्षणिक है लेकिन नीले निर्देश तंत्र में यह पहले घटित हो चुकी है और लाल निर्देश तंत्र में बाद में प्रेक्षित होती है।

दो भिन्न घटनाएँ जो एक जड़त्वीय निर्देश तंत्र में समक्षणिक हैं, हो सकता है दूसरे जड़त्वीय निर्देश तंत्र में स्थित प्रेक्षक के लिए समक्षणिक नहीं हैं (निरपेक्ष समक्षणिकता का आभाव)।

भिन्न निर्देशांकों में लोरेन्ज रूपांतरण की प्रथम समीकरण

 

यहाँ यह स्पष्ट है कि जो एक निर्देश तंत्र S में समक्षणिक हैं (Δt = 0 सही है), आवश्यक नहीं की अन्य निर्देश तंत्र S′ में भी समक्षणिक हों (Δt′ = 0 सही है)। यदि ये घटनाएँ निर्देश तंत्र S में समस्थानीक हैं (Δx = 0 सही है), तब वो दूसरे निर्देश तंत्र S′ में भी समक्षणिक होंगी।

समय विस्तारण

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एक प्रेक्षक से दूसरे प्रेक्षक तक किन्हीं दो घटनों के मध्य समय निश्चर नहीं है, बल्कि प्रेक्षकों की गति पर निर्भर करता है (उदाहरण के लिए यमल विरोधाभास देखें जिसमें दो जुड़वांओं के बारे में विचार करता है जो समष्टि में प्रकाश के वेग के समकक्ष वेग वाले अन्तरिक्षयान से उड़ते हैं और वापस आने पर देखते हैं कि उसका/उसकी जुड़वा भाई/बहिन की आयु बहुत अधिक हो गयी है।)

माना की एक घड़ी निर्देश तंत्र S में विरामावस्था में है। इस घड़ी के दो भिन्न टिक-टिक को Δx = 0 द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। इन दोनों टिक के मध्य समय का मापन दोनों तंत्रों में किया जाता है, इसके लिए प्रथम समीकरण निम्न प्रकार प्राप्त हुआ :

     घटनाएँ जिनके लिए       है।

इससे प्रदर्शित होता है कि दो टिक के मध्य का समयांतर (Δt') निर्देश तंत्र (S) जिसमें घड़ी विराम अवस्था में थी की तुलना में निर्देश तंत्र (S') जिसमें घड़ी गतिशील थी में अधिक था। समय विस्तारण की सहायता से हम कई भौतिक परिकल्पनाओं को समझ सकते हैं जैसे पृथ्वी के वायुमण्डल में ब्रह्माण्ड किरणों से जनित म्युओंनो की क्षय दर।[8]

लम्बाई संकुचन

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एक प्रेक्षक द्वारा किसी वस्तु की विमा (उदहारण के लिए लम्बाई) का मापन अन्य प्रेक्षक द्वारा प्रेक्षित मापन से भिन्न हो सकती है। (उदाहरण के लिए सीढ़ी विरोधाभास देखें, जिसमें प्रकाश के वेग के तुल्य वेग से गतिशील वस्तु को इससे कम आकर वाले म्यान में रखा जा सकता है।)

इसी प्रकार, माना रेखक (स्केल) विरामावस्था में निर्देश तंत्र S में x-अक्ष की तरफ संरेखित है। इस तंत्र में रेखक की लम्बाई Δx लिखी जाती है। रेखक की लम्बाई का मापन S' निर्देश तंत्र में करने पर जिसमें घड़ी गतिशील है जहां छड़ के छोरों पर x′ का मापन S' तंत्र में समक्षणिक किया जाता है। अन्य शब्दों में, इस मापन को Δt′ = 0 में किया गया, जिसे चतुर्थ समीकरण द्वारा युग्मित किया जा सकता है के लिए लम्बाईयों Δx और Δx′ में निम्न सम्बंद स्थापित किया जाता है:

     उन घटनाओं के लिए जिनमें      है।

इससे स्पष्ट होता है कि निर्देश तंत्र जिसमें छड़ गतिशील थी में छड़ की लम्बाई (Δx') का मान इसके स्वयं के विराम निर्देश तंत्र (S) से कम है।

वेगों का संयोजन

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वेगों (चालों) के सयोंजन के लिए इन्हें साधारण रूप से नहीं जोड़ा जाता। यदि निर्देश तंत्र S में प्रेक्षक के अनुसार कोई वस्तु x अक्ष की ओर वेग u से गतिशील है, तो निर्देश तंत्र S′ जो निर्देश तंत्र S के सापेक्ष x-अक्ष की और v वेग से गति कर रही है में स्थित प्रेक्षक द्वारा प्रेक्षित गतिशील वस्तु का वेग u' है जहां (उपर लिखित लोरेन्ज रूपांतरणों की सहायता से) :

 

अन्य निर्देश तन्त्र (S) में प्रेक्षित :

 

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि वस्तुएँ जो निर्देश तंत्र S में प्रकाश के वेग से गतिशील हैं (अर्थात u=c) तब वह वस्तु निर्देश तंत्र S′ में भी प्रकाश के वग से गतिशील होगी। यदि u और v के मान प्रकाश के वेग के सापेक्ष बहुत न्यून हैं तो हमें वेगों के सहज गैलिलियीय रूपांतरण प्राप्त होते हैं

 

सामान्य उदहारण जो दिया जाता है वह यह है कि एक ट्रेन (निर्देश तंत्र S) पूर्व दिशा की और पटरियों (निर्देश तंत्र S′) के सापेक्ष v वेग से गति कर रही है। एक बच्चा जो ट्रेन के अन्दर बैठा है ने एक गेंद पूर्व दिशा की और ट्रेन के सापेक्ष वेग u से फेंका। चिरसम्मत भौतिकी में, पटरियों पर विरामावस्था में पर स्थित प्रेक्षक गेंद का वेग का मान पूर्व दिशा में u = u′ + v प्रेक्षित करेगा, जबकि विशिष्ट आपेक्षिकता यह सत्य नहीं है; बल्कि गेंद का वेग पूर्व दिशा में दूसरी समीकरण द्वारा दिया जाता है : u = (u′ + v)/(1 + uv/c2)। पुनः, यहाँ x अथवा पूर्व दिशा के लिए कुछ विशेष नहीं है। ये सूत्र किसी भी दिशा में लागू होगें जिसके लिए हमें सापेक्ष वेग v के परस्पर समान्तर व लम्बवत गतियों का ध्यान रखना होगा।

आइन्सटीन का वेगों के संयोजन का नियम फिज़ाऊ प्रयोग (Fizeau experiment) में सही पाया गया, जिसने प्रकाश के वेग का मापन प्रकाश के वेग के समान्तर गतिशील तरल के सापेक्ष किया था। लेकिन आज तक किसी भी प्रयोग ने असमान्तर गति के व्यापक रूप के लिए सूत्र का परिक्षण नहीं किया।[9]

अन्य परिणाम

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थॉमस अग्रगमन

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थॉमस अग्रगमन को थॉमस घुर्णन के नाम से भी जाना जाता है, यह कणों के प्रचक्रण पर लागू होने वाला आपेक्षिक शोधन है। किसी वस्तु का अभिविन्यास (अर्थात इसकी अक्षों का प्रेक्षक की अक्षों के सापेक्ष संरेखण) विभिन्न प्रेक्षकों के लिए भिन्न हो सकता है। अन्य आपेक्षिक प्रभावों के विपरीत, यह प्रभाव अति निम्न वेगों पर भी सार्थक है, जैसा गतिशील कणों के प्रचक्रण में देखा जा सकता है।[10][11]

द्रव्यमान-ऊर्जा समतुल्यता

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जैसे-जैसे किसी वस्तु की चाल प्रेक्षक के दृष्टिकोण से प्रकास के वेग के समकक्ष पहुँचती है, तो इसके आपेक्षिक द्रव्यमान भी बढ़ता है जिससे इसका त्वरित होना और अधिक कठिन हो जाता है, यह सब प्रेक्षक के निर्देश तंत्र से प्रतीत होता है।

विराम अवस्था में किसी वस्तु की ऊर्जा का मान mc2 होता है जहां m वस्तु का द्रव्यमान है। ऊर्जा सरंक्षण के नियम से किसी भी क्रिया में द्रव्यमान में कमी क्रिया के पश्चात इसकी गतिज ऊर्जा में वृद्धि के तुल्य होनी चाहिए। इसी प्रकार, किसी वस्तु का द्रव्यमान को इसकी गतिज ऊर्जा को इसमें लेकर बढाया जा सकता है।

इसके अलावा उपरोक्त के सन्दर्भ - लोरेन्ज रूपांतरण को व्युत्पन्न करते हैं और विशिष्ट आपेक्षिकता की व्याख्या - तुल्यता (और क्रांतिक विचार) के लिए स्व आनुभविक तर्क देते हुए आइन्स्टीन ने भी कम से कम चार पेपर लिखे।

द्रव्यमान-ऊर्जा समतुल्यता विशिष्ट आपेक्षिकता का एक परिणाम है। न्यूटनीय यांत्रिकी में जहां ऊर्जा और संवेग भिन्न भौतिक राशियाँ हैं विशिष्ट आपेक्षिकता में एक चतुर्सदिश का निर्माण करते हैं और यह समय घटक (ऊर्जा घटक) को समष्टि घटक (संवेग) से सम्बंधित करता है। विराम अवस्था में स्थित एक वस्तु, ऊर्जा द्रव्यमान चतुर्सदिश (E,0,0,0) होता है : इसका समय घटक ऊर्जा है और अन्य तीन समष्टि (दिक्) घटक हैं जो शून्य हैं। x-अक्ष दिशा में अल्प वेग v के साथ लोरेन्ज रूपांतरण के साथ निर्देश तंत्र बदलने पर ऊर्जा-संवेग चतुर्सदिश (E,Ev/c2, 0, 0) होगा। सवेग का मान ऊर्जा व वेग के गुणनफल को c2 से विभाजित करने पर प्राप्त मान के सामान होगा। जैसे किसी वस्तु का न्यूटनीय द्रव्यमान, जो निम्न वेगों के लिए संवेग व वेग के अनुपात के सामान होता है, E/c2 के बराबर होगा।

ऊर्जा व संवेग, द्रव्य व विकिरण का नैज गुणधर्म है और यह परिणाम निकलना असम्भव है कि विशिष्ट आपेक्षिकता के दो मूलभूत अभिग्रिहितों से वे अपने आप चतुर्सदिश रूप में प्राप्त होंगे, क्योंकि ये (अभिगृहीत) पदार्थ अथवा विकिरण के विषय में नहीं बताते, बल्कि समष्टि (दिक्) व समय (काल) के बारे में बताते हैं। अतः इसकी व्युत्पति के लिए अधिक भौतिक ज्ञान की आवश्यकता है। इसके लिए आइन्स्टीन ने अतिरिक्त सिद्धांत का उपयोग किया जिसके अनुसार निम्न वेगों पर न्यूटनीय यांत्रिकी से सही परिणाम मिलते हैं, अतः निम्न वेगों पर केवल ऊर्जा अदिश व तीन-संवेग सदिश होते हैं। इससे आगे उन्होंने परिकल्पना दी कि प्रकश की ऊर्जा और आवृति समान डॉप्लर विस्थापन घटक से रूपांतरित होगा, जिसे उसने मैक्सवेल समीकरणों द्वारा पहले ही सत्य सिद्ध कर दिया था[2] आइन्सटीन द्वारा १९०५ में प्रकाशित प्रथम पेपर का विषय "क्या किसी पिण्ड का जड़त्व उस ऊर्जा पर निर्भर करता है? (Does the Inertia of a Body Depend upon its Energy Content?)" था।[12] यद्यपि पेपर में आइन्सटीन का तर्क भौतिक विज्ञानियों द्वारा सत्य के रूप में बिना किसी प्रमाण के लगभग सार्वभौमिकता से स्वीकार किया जाता है और बहुत लेखकों ने पिछले कुछ वर्षों तक सुझावित किया कि यह गलत है।[13] अन्य लेखकों के अनुसार यह कथन काफी अनिर्णायक था क्योंकि यह कुछ अंतर्निहित मान्यताओं पर आधारित था।[14]

आइन्सटीन ने स्वीकार किया कि विशिष्ट आपेक्षिकता पर उनके १९०७ के आलेख में उसकी व्युत्पति पर विवाद हुए। वहां उन्होंने महसूस किया कि अनुमानित ऊर्जा-द्रव्यमान तर्क के लिए मैक्सवेल समीकरणों पर भरोसा करना समस्यात्मक है। उनके १९०५ में प्रकाशित पेपर में तर्क था कि द्रव्यमान रहित कण का उत्सर्जन किया जा सकता है, लेकिन मैक्सवेल समीकरणों के अनुसार इसे निसन्देह प्रत्येक्ष बनाया कि केवल कार्य के परिणामस्वरूप प्रकाश का उत्सर्जन प्राप्त किया जा सकता है। विद्युतचुम्बकीय तरंगों के उत्सर्जन के लिए, किसी आवेशित कण की हलचल ही प्रयाप्त है और यह निश्चित ही कार्य है, अतः यह ऊर्जा का उत्सर्जन है।[15][16]

पृथ्वी से कितनी दूर यात्रा सम्भव

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चूँकि प्रकाश के वेग से तेज गति सम्भव नहीं है, जिसका निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मानव पृथ्वी से 40 प्रकाश वर्षों से अधिक दूर यात्रा नहीं कर सकता यदि यात्री 20 से 60 वर्ष की आयु में सक्रीय रहे। यह भी सरलता से सोचा जा सकता है कि यात्री कुछ ही सौरमंडलों तक पहुँच पाने में सक्षम हो सकता है जो पृथ्वी से 20-40 प्रकाश वर्षों की दूरी पर स्थित हैं। लेकिन यह एक गलत परिणाम है। क्योंकि समय-विस्तारण की परिकल्पना के अनुसार पायलट के सक्रीय 40 वर्ष के दौरान काल्पनिक अन्तरिक्षयान सैकड़ों प्रकाशवर्ष यात्रा कर सकता है। यदि एक ऐसा अन्तरिक्षयान बनाना सम्भव हो पाया जिसका त्वरण 1g (पृथ्वी का गुरुत्वीय त्वरण) हो, तो एक वर्ष से भी कम समय में पृथ्वी से लगभग प्रकाश के वेग के सामान वेग से गतिशील प्रेक्षित होगा। समय विस्तारण की वजह से पृथ्वी पर स्थित निर्देश तंत्र से प्रेक्षित उसका जीवन विस्तार बढेगा, लेकिन उसके साथ यात्रा कर रही घड़ी में यह परिवर्तन नहीं होगा। उसकी यात्रा के दौरान, पृथ्वी पर स्थित व्यक्ति यात्री की तुलना में अधिक समय अनुभव करेगा। यात्री द्वारा प्रेक्षित 5 वर्ष भ्रमण यात्रा पृथ्वी के 6½ वर्ष के तुल्य होगी और 6 प्रकाशवर्ष दुरी तय करेगा। एक 20 वर्ष की भ्रमण यात्र (5 वर्षों तक त्वरित और 5 वर्षों तक मन्दित) के पश्चात यदि पृथ्वी पर वापस आता है तो वह पृथ्वी के 335 वर्ष व्यतीत कर चुका है और 331 प्रकाशवर्ष दूरी तय कर चुका है।[17] 1 g त्वरण के साथ 40 वर्ष की यात्रा पृथ्वी के 58,000 वर्षों के तुल्य होगी और 55,000 प्रकाशवर्ष दूरी तय होगी। 1.1 त्वरण के साथ 40 वर्ष की यात्रा पृथ्वी के 148,000 वर्षों के तुल्य होगी और 140,000 प्रकाशवर्ष दूरी तय होगी। इसी विस्तारण कारण से एक म्युऑन जो प्रकाश के वेग c के लगभग सामान वेग से गतिशील होता है c×विराम अर्द्ध-आयु दूरी से बहुत आगे भी प्रेक्षित होता है।[18]

प्रकाश का वेग सबसे तीव्र और कारणता

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चित्र २ : प्रकाश शंकु

चित्र २ में अन्तराल AB 'समय-समरूप' है; जैसे यहाँ निर्देश तंत्र है जिसमें A और B दो घटनाएँ समष्टि में एक ही बिन्दु पर घटित होती हैं केवल अलग समय पर घटित होने पर ही अलग की जा सकती हैं। यदि इस निर्देश तंत्र में घटना A, घटना B, से पहले घटित होती है तो सभी निर्देश तंत्रों में घटना A, B से पहले ही घटित होगी। यह द्रव्य के लिए संभव है कि वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर गति करे, अतः यहाँ एक कारन्त्व सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। (A के साथ कारण व B पर प्रभाव)

चित्र में अन्तराल AC समष्टि-समरूप (space-like) अर्थात यहाँ एक निर्देश तंत्र ऐसा है जिसमें घटना A और C एक ही समय पर घटित होती हैं केवल समष्टि (दिक्) अलग-अलग होता है। यहाँ पर ऐसे निर्देश तंत्र भी प्राप्त कर सकते हैं जिनमें A, C से पहले (जैसा की चित्र में दिखाया गया है) घटित होती है और निदेश तंत्र जिनमें C, A से पहले घटित होती है। यदि यह कारण-और-प्रभाव सम्बन्ध के लिए सम्भव होता कि कुछ घटनाएँ A और C के बीच घटित हो जायें तब कारणता का विरोधाभाष इसका परिणाम होगा। उदहारण के लिए, यदि A कारण था और C प्रभाव है तो कुछ निर्देश तंत्र ऐसे भी हैं जिनमें प्रभाव कारण से पहले घटित हुआ। यद्यपि यह अपने आप में विरोधाभाष नहीं है, इससे प्रदर्शित किया जा सकता है[19][20] कि प्रकाश के भी वेग से तेज गति से स्वयं के निर्देश तंत्र के भूत में भेज जा सकता है। कारणता विरोधाभाष का सिग्नल भेजकर निर्माण किया जा सकता है यदि और केवल यदि पूर्व में कोई सिग्नल नहीं मिला था।

इसलिए, यदि कारणता को परिरक्षित किया जाए, तब विशिष्ट आपेक्षिकता के परिणामस्वरूप निर्वात में कोई सूचना अथवा पदार्थ प्रकाश के वेग से तेज गति नहीं कर सकता। तथापि, कुछ वस्तुएं प्रकाश के वेग से भी तेजी से गति करती हैं जैसे : स्थान जहां बिजली की चमक के कारण किरणें बादल के निचले हिस्से से टकराती है तो उस समय यह किरण प्रकाश के वेग से भी अधिक गति से दूरी तय कर सकती है जब यह शीघ्रता से मुड़ती है।[21]

कारणता को ध्यान में रखे बिना यहाँ और भी बहुत प्रबल कारण हैं प्रकाश के वेग से तीव्र गति विशिष्ट आपेक्षिकता द्वारा निषेद्ध है। उदाहरण के लिए एक नियत बल असीमित समय के लिए एक वस्तु पर लागू किया जाये तो निम्न व्यंजक का बिना सीमा के समाकलन करने पर F = dp/dt सरलता से संवेग प्राप्त किया जाता है लेकिन यह केवल इसलिए क्योंकि   अनन्त की और अग्रसर होता है जैसे-जैसे  , c की अग्रसर होता है। एक प्रेक्षक ले लिए जो त्वरित नहीं है को यह दृष्टांत होता है यद्यपि वस्तु का जड़त्व बढ़ता है, अतः सामान बल के प्रभाव में एक लघु त्वरण उत्पन्न होता है। यह व्यवहार वास्तव में कण त्वरकों में प्रेक्षित होते हैं, जहां प्रत्येक आवेशित कण विद्युतचुम्बकीय बल द्वारा त्वरित होता है।

गुंटर निम्त्ज़ (Günter Nimtz) और पेत्रिस्सा एक्क्ले द्वारा प्रतिपादित सैद्धांतिक और प्रायोगिक सुरंगन अध्ययन ने[22] गलत दावा किया की विशेष परिस्थितियों में सिग्नल प्रकाश के वेग से भी अधिक गति से चल सकता है।[23][24][25][26] यह मापन किया गया की फाइबर अंकीकरण सिग्नल c से 5 गुना वेग तक गति करता है और शून्य समय सुरंगन इलेक्ट्रान द्वारा ले जाने वाली सूचना कि परमाणु का फोटोन से आयनीकरण और इसके बावजूद भी इलेक्ट्रान सुरंगन में शून्य समय लगाता है। निम्त्ज़ और एक्क्ले के अनुसार, इस अति-प्रदीपन प्रक्रिया में केवल आइन्स्टीन कारणता और विशिष्ट आपेक्षिकता लेकिन प्राचीन कारणता नहीं, का उल्लंघन होता है : अति-प्रतिदीप्त संचार किसी भी तरह की समय यात्रा का परिणाम नहीं होता।[27][28] विभिन्न वैज्ञानिकों के अनुसार न केवल निम्त्ज़ की व्याख्याएँ गलत हैं बल्कि प्रयोग वास्तव में विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धांत का सामान्य प्रायोगिक सत्यापन है।[29][30][31]

दिक्-काल की ज्यामिति

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समतल यूक्लिडीय व मिन्कोसकी समष्टि में तुलना

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लम्ब कोणीय और घूर्णन निर्देशांक तंत्र, बाएं: वृतीय कोण के माध्यम से φ यूक्लिडीय समष्टि और दायें: अति-परवलयिक कोण φ (c द्वारा अंकित लाल रेखायें प्रकाश सिग्नल की जगत रेखा को निर्देशित कराती हैं और एक सदिश इसके लम्ब कोणीय स्थिति में होता है यदि यह रेखा पर स्थित है) के माध्यम से मिन्कोसकी समष्टि।[32]

विशिष्ट आपेक्षिकता में ४-विमीय मिन्कोवसकी समष्टि का उपयोग किया जाता है; - यह दिक्-काल का उदहारण है। मिन्कोवसकी दिक्-काल मानक त्रिविम यूक्लिडीय समष्टि के बहुत समान प्रतीत होती है, लेकिन समय के साथ इसमें क्रांतिक परिवर्तन आ जाता है।

त्रिविम समष्टि में अवकल रेखा अल्पांश ds निम्न प्रकार से परिभाषित होता है

 

जहां dx = (dx1, dx2, dx3) त्रिविम समष्टि में अवकल अल्पांश हैं। मिन्कोवासकी ज्यामिति में, समय से व्युत्पन निर्देशांक x0 अधि-विमा होती है अतः दूरिक अवकल निम्न है

 

जहाँ dx = (dx0, dx1, dx2, dx3) चतुर्विम दिक्-काल में अवकल अल्पांश है। यह एक गहरी सैद्धांतिक अन्तर्दृष्टि का सुझावित करता है: विशेष आपेक्षिकता दिक्-काल में सामान्य घूर्णन सममिति के तुल्य है, जो यूक्लिडियन समष्टि (दायाँ चित्र) में घूर्णन सममिति के अनुरूप।[33] यूक्लिडियन समष्टि की तरह यूक्लिडियन दूरिक का भी उपयोग होता है अतः दिक्-काल मिन्कोवसकी दूरिक को उपयोग करता है। मूल रूप से विशिष्ट आपेक्षिकता को "दिक्-काल अन्तराल की निश्चरता" (किन्हीं दो घटनाओं के मध्य चतुर्विम दुरी है) के रूप में देखा जाता है जब इसे "किसी जड़त्वीय निर्देश तंत्र" में देखा जाता है। विशिष्ट आपेक्षिकता की सभी समीकरणों व प्रभावों को मिन्कोसकी दिक्-काल की घूर्णन सममिति (पोइनकेयर समूह) से व्युत्पन किया जा सकता है।

उपरोक्त "ds" का वास्तविक रूप दूरिक पर और x0 निर्देशांक के चुनाव पर निर्भर करता है। समय निर्देशांक को समष्टि निर्देशांक के सदृश बनाने के लिए, इसे काल्पनिक की तरह उपयोग किया जाता है : x0 = ict (इसे विक्स घूर्णन कहा जाता है)। मिसनर, थोर्ने और व्हीलर (1971, §2.3) के अनुसार, अंततः विशिष्ट व सामान्य आपेक्षिकता दोनों की गहरी समझ मिन्कोसकी दूरिक (नीचे उल्लिखित) के अध्ययन से प्राप्त होती है और अभेद्य यूक्लिडियन दूरिक समय निर्देशांक ict के स्थान पर x0 = ct लेते हैं।

कुछ लेखक x0 = t का उपयोग करते हैं जहां c के गुणक को अन्यत्र समाहित कर लेते हैं; उदहारण के लिए, समष्टि निर्देशांकों को c से विभाजित किया जाता है अथवा c±2 के गुणक को दूरिक प्रदिश में प्रयुक्त करते हैं।[34] यहाँ विभिन्न प्रथाओं को प्राकृत इकाई से प्रतिस्थापित किया जा सकता है जहाँ c=1। इसमें समय व समष्टि दोनों की इकाइयाँ समतुल्य होती हैं और कोई c का गुणक भी कहीं भी प्रकट नहीं होता।

त्रिविम दिक्-काल

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शून्य गोलीय समष्टि

यदि हम समष्टिय विमा को एक कम कर दें (अर्थात् २ रखें), जिससे कि भौतिकी को त्रिविम में निरुपित कर सकें

 

तब द्वैत शंकु कि दिशा में शून्य परिवर्तन मिलेगा, समीकरण के रूप में

 

या

 

जो c dt त्रिज्या वाले वृत का समीकरण है।[35]

चतुर्विम दिक्-काल

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जब हम तीन दिक्-विमाओं में इसकी वृद्धि करते हैं, तब यह राशी चतुर्विमा शंकु में दृष्टांत होती है :

 

अतः

 

यह अशक्त द्वैत-शंकु, समष्टि में एक बिन्दु को एक-विमा के रूप में प्रदर्शित करता है। यह जब हम तारों का अध्ययन करते हैं और कहते हैं कि "इस तारे से आपतित प्रकाश जो मैं अब देख रहा हूँ वह अमुक वर्ष पुराना है", हम इस बिन्दु को विमा के रूप में देखते हैं : एक अशक्त जियोडेसिक है। हम इस घटना को दूरी   पर स्थित व d/c समय पूर्व घटित हो चुकी थी। इस कारण से अशक्त द्वैत शंकु को 'प्रकाश शंकु' के रूप में भी जाना जाता है। (यहाँ प्रदर्शित चित्र में तार प्रदर्शित है, मूल बिन्दु प्रेक्षक को निरुपित करता है और रेखा अशक्त जियोडेसिक में बिन्दु विमा को निरुपित करती है।)

शंकु में -"t" क्षेत्र का मतलब बिन्दु से सूचना प्राप्त कर रहा है और शंकु के +"t" क्षेत्र में बिन्दु सूचना भेज रहा है।

मिन्कोसकी समष्टि की ज्यामिति मिन्कोसकी आरेखों के उपयोग से चित्रित कर सकते हैं, जो विशिष्ट आपेक्षिकता में विभिन्न प्रायोगिक विचारों को समझने में उपयोगी भी हैं।[36]

दिक्-काल में भौतिक विज्ञान

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विशिष्ट आपेक्षिकता की समीकरणों को व्यक्त परिवर्ती रूप में लिखा जा सकता है। किसी घटना की दिक्-काल में स्थिति प्रतिपरिवर्ती चतुर्सदिश द्वारा दी जाती है जिसके घटक निम्न हैं :

 

हम x0 = ct परिभाषित करते हैं ताकि समय निर्देशांक की विमा भी दूरी के समान हो जैसा कि अन्य दिक्-विमाएँ हैं; अतः दिक् व काल समान रूप से सम्बन्धित हैं[37][38][39] शीर्षांक प्रतिपरिवर्ती सूचकांक के लिए उपयोग किये हैं ना कि उनकी घात के लिए (यह प्रसंग से स्पष्ट हो जाना चाहिए) और पादांक परिवर्ती सूचकांक हैं जो शून्य से तीन तक की परास में हैं जैसे कि अदिश क्षेत्र φ की चतुर्प्रवणता को लिखा जाता है :

 

भौतिक राशियों का निर्देश तंत्रों में परिवर्तन

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जड़त्वीय निर्देश तंत्रों में निर्देशांक रूपांतरण लोरेन्ज रूपांतरण Λ द्वारा दिए जाते हैं। गति की विशेष अवस्था के लिए जब यह x-अक्ष की दिशा में हो :

 

जो xct निर्देशांकों के मध्य अभिवर्धन (वेग वर्धक) मैट्रिक्स (घूर्णन के समान) है, जहां μ' पंक्तियों को तथा ν स्थम्भ का सूचक है और

 

यह किसी भी दिशा में वेग के लिए व्यप्किकृत किया जा सकता है और आगे घूर्णन को भी शामिल किया जा सकता है, अधिक जानकारी के लिए लोरेन्ज रूपांतरण सम्बन्धी विषय देखें।

एक जड़त्वीय निर्देश तंत्र से दूसरे में चतुर्सदिश का रूपांतरण (सरलता के लिए स्थानांतरण रहित) लोरेन्ज रूपांतरण द्वारा दिए जाते हैं:

 

यहाँ पर μ' और ν' पर 0 से 3 तक के लिए जोड़ा जाता है। व्युत्क्रम रूपांतरण निम्न हैं :

 

जहाँ  ,   की व्युत्क्रम मैट्रिक्स कहलाती है।

लोरेन्ज रूपांतरण की स्थिति में उपरोक्त x-अक्ष की दिशा में लिया गया है :

 

अधिक व्यापक रूप में, अधिकतर भौतिक राशियों को प्रदिश के घटकों के रूप में परिभाषित किया जाता है। अतः एक निर्देश तंत्र से दूसरे में रूपांतरण, व्यापक प्रदिश रूपांतरण नियमों का पालन कर सकें[40]

 

यहाँ  ,   की व्युत्क्रम मैट्रिक्स है। सभी प्रदिश नियमानुसार रुपांतरित होते हैं।

दिक्-काल की चतुर्विम प्रकृति का मिन्कोसकी दुरिक η के घटकों (सभी निर्देश तंत्रों में वैध) को 4 × 4 के आव्यूह (मैट्रिक्स) के रूप में लिखा जा सकता है :

 

जो उन निर्देश तंत्रों में अपने व्युत्क्रम   के सामान है।

पोइनकेयर समूह रूपांतरण का वृहत् व्यापक समूह है जिसमें मिन्कोवसकी दूरिक समाहित होता है

 

और यह विशिष्ट आपेक्षिकता की आधारभूत भौतिक सममिति है।

निश्चरता

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चतुर्सदिश स्थिति में लम्बई में अल्प परिवर्तन   के वर्ग को निम्न प्रकार लिखा जाता है

 

यह एक निश्चर राशी है। निश्चर से मतलब सभी जड़त्वीय निर्देश तंत्रों में इसका मान समान रहता हैं क्योंकि यह एक अदिश (शून्य कोटि का प्रदिश) राशी है अतः इसके सामान्य रूपांतरण में कोई Λ प्रकट नहीं होता। जब रेखांश dx2 का मान ऋणात्मक होता है

 

तब मानक समय का अवकलज है, जबकि dx2 धनात्मक है, (dx2) मानक दुरी का अवकलज है।

प्रसिश रूप में भौतिक समीकरणों का प्राथमिक मान पियोनकेयर समूह में निश्चर रहता है, अतः यह प्रभाव कलित करने के लिए हमें विशिष्ट व कठिन गणनाएं नहीं करनी पड़ती।

चतुर्विम में वेग व त्वरण

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प्रदिश के रूप में परिचित अन्य भौतिक राशियाँ भी रूपांतरण नियमों का पालन करती हैं। चतुर्वेग सदिश Uμ निम्न समीकरण द्वारा दिया जाता है

 

इसके पश्चात हम कण के एक निर्देश तंत्र से दूसरे निर्देश तंत्र में चतुर्वेगों के रूपांतरण से सम्बंधित सरल वाक्य में वेगों के संयोजन पर विचार करते हैं। Uμ का भी एक निश्चर रूप होता है :

 

अतः सभी चतुर्वेग सदिश का परिमान c होता है। यह समीकरण यह साबित करती है कि आपेक्षिकता में स्थायी निर्देश तंत्र की परिकल्पना को असत्य सिद्ध करती है : क्योंकि हम कम से कम समय में हमेशा अग्रगामी हैं। चतुर्त्वरण सदिश निम्न समीकरण द्वारा दिया जाता है :

 

इसके पश्चात उपरोक्त समीकरण को τ के सापेक्ष अवकलित करने पर

 

अतः आपेक्षिकता में, त्वरण चतुर्सदिश और वेग चतुर्सदिश लंब कोणीय होते हैं।

चतुर्विम में संवेग

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संवेग व ऊर्जा को covariant 4-सदिश में सम्मिलित किया जाता है :

 

जहाँ m निश्चर द्रव्यमान है।

चतुर्संवेग सदिश का निश्चर मान संवेग-ऊर्जा सम्बन्ध व्युत्पन करता है :

 

यह निश्चर क्या है हम सिद्ध कर सकते हैं जिसके लिए हमें यह सिद्ध करना होगा कि यह एक अदिश है, यह इस पर निर्भर नहीं करता कि हम किस निर्देश तंत्र में गणना कर रहे हैं और निर्देश तंत्र के रूपांतरण से हमें कुल संवेग शुन्य प्राप्त होता है।

 

यहाँ यह स्पष्ट है कि स्थायी द्रव्यमान स्वतन्त्र व निश्चर है। स्थिर द्रव्यमान की गणना गतिशील कणों व निकायों के लिए भी की जाती है, इसके लिए इनका रूपांतरण उस निर्देश तंत्र में किया जाता है जिसमें इनका संवेग शुन्य हो।

स्थिर ऊर्जा का सम्बंध द्रव्यमान से है और यह चिरपरिचित सम्बंध समीकरण ऊपर उल्लेखित की गई :

 

यहाँ ध्यान रहे निकाय का द्रव्यमान उनके द्रव्यमान केन्द्र निर्देश तंत्र में कलित किया जाता है (जहाँ संवेग शुन्य हो) जो इस निर्देश तंत्र में इसकी कुल ऊर्जा द्वारा दिया जाता है। यह अन्य निर्देश तंत्र में मापन किये गये निजी निकाय द्रव्यमानों के योग के समान हो आवश्यक नहीं।

चतुर्विम में बल

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न्यूटन के गति के तृतीय नियम का उपयोग करने के लिए, दोनों बलों को समान समय निर्देश तंत्र में वेग में परिवर्तन की दर के रूप में परिभाषित होने चाहिएं। जहाँ, ऊपर परिभाषित त्रिविम बलों का होना आवश्यक है। दुर्भाग्यवश, चतुर्विम में ऐसा कोई प्रदिश नहीं है जो त्रिविम बल सदिश के घटकों को अपने घटकों में समाहित करता हो।

यदि कण का वेग c नहीं है तब कण के सहगामी निर्देश तंत्र से प्रेक्षक निर्देश तंत्र में त्रिविम बलों का रूपांतरण सम्भव है। इससे 4-सदिश का निर्माण होता है जिसे चतुर्बल कहा जाता है। यह उपरोक्त मानक समय के सापेक्ष ऊपर परिभाषित ऊर्जा संवेग चतुर्सदिश में परिवर्तन की दर है। चतुर्बल का covariant संस्करण:

 

जहाँ τ मानक समय कहलाता है।

वस्तुओं के स्थिर निर्देश तंत्र में, तब तक चतुर्बल का समय घटक शुन्य रहता है जब तक वस्तु का निश्चर द्रव्यमान परिवर्तित (इसमें खुले निकाय की आवश्यकता होती है जहाँ ऊर्जा/द्रव्यमान को वस्तु से आसानी से जोडा अथवा हटया जा सके) नहीं होता जिस परिस्थिति में द्रव्यमान में परिवर्तन की दर का ऋणात्मक मान से c गुणा होता है। व्यापक रूप में, यद्यपि, चतुर्बल के घटक त्रिविम बल के घटकों के समान नहीं होते क्योंकि त्रिविम बलों को संवेग में परिवर्तन की दर के रूप में निर्देश तंत्र समय के सापेक्ष परिभषित किया जाता है जो dp/dt होता है बल्कि चतुर्विम बल को मानक समय में परिवर्तन की दर से परिभाषित किया जाता है अर्थात dp/dτ।

एक सतत माध्यम में, त्रिविम बलों का घनत्व covariant ४-सदिश रूप में शक्ति के घनत्व के रूप में सम्मिलित होता है। समष्टिय भाग लघु कक्ष (त्रिविम समष्टि में) पर बलों को कक्ष के सम्पूर्ण आयतन द्वारा विभाजित करने का परिणाम है। समय घटक कक्ष के आयतन से विभाजित कक्ष के शक्ति रूपांतरण का -1/c के गुणक के बराबर होता है। इसका उपयोग निम्नलिखित वैद्युतचुम्बकत्व के अनुच्छेद में किया गया है।

आपेक्षिकता और वैद्युतचुम्बकत्व समेकक

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चिरसम्मत वैद्युतचुम्बकीकी में सैद्धांतिक अन्वेषण से तरंग संचरण का आविष्कार हुआ। समीकरणें वैद्युतचुम्बकीय प्रभाव को व्यापक रूप में से प्राप्त किया जा सकता है कि EB क्षेत्रों के वेगों के परिमित संचरण के लिए आवेशित कण पर निश्चित व्यवहार आवश्यक है। आवेशित कणों का व्यापक अध्ययन लिनार्ड-विचर्ट विभव के रूप में होता है, जो विशिष्ट आपेक्षिकता की तरफ एक स्तर अधिक है।

स्थिर प्रेक्षक निर्देश तंत्र में गतिशील आवेश के विद्युत क्षेत्र का लोरेन्ज रूपांतरण के परिणामस्वरूप चुम्बकीय क्षेत्र नामक गणितीय व्यंजक प्रकट होती है। इसी प्रकार गतिशील आवेश से व्युत्पन चुम्बकीय क्षेत्र सहगामी निर्देश तंत्र में लुप्त हो जाता है और केवल स्थिरवैद्युत बल में बदल जाता है। अतः मैक्सवेल समीकरणें ब्रह्माण्ड के चिरसम्मत प्रतिमान में विशिष्ट आपेक्षिक प्रभाव सरलता व आनुभाविक रूप से उचित हैं। जैसे विद्युत व चुम्बकीय क्षेत्र निर्देश तंत्र पर निर्भर हैं और एक दूसरे में समाहित हैं अतः इन्हें वैद्युतचुम्बकीय बल भी कहते हैं। विशिष्ट आपेक्षिकता के माध्यम से हम एक जड़त्वीय निर्देश तंत्र से दूसरे जड़त्वीय निर्देश तंत्र में इनके रूपांतरण नियम प्राप्त होते हैं।

त्रिविम रूप में मैक्सवेल समीकरण विशिष्ट आपेक्षिकता के भौतिक गुणों के समरूप हैं यद्यपि इन्हें सरलता से प्रकट सहपरिवर्ती रूप में अन्तर्वेषित करते हैं।[41] अधिक जानकारी के लिए मुख्य सूत्र देखें।

(प्रायोगिक) स्थिति

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अपने मिन्कोसकी दिक्-काल में विशिष्ट आपेक्षिकता केवल उसी स्थिति में यर्थाथ है जब गुरुत्वीय विभव का निरपेक्ष मान अध्ययन के क्षेत्र में c2 से बहुत कम हो[42] प्रबल गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में, सामान्य आपेक्षिकता का उपयोग करना चाहिए। सामान्य आपेक्षिकता दुर्बल क्षेत्र की सीमा में विशिष्ट आपेक्षिकता के तुल्य हो जाती है। अतिसुक्ष्म पैमाने पर जैसे प्लांक लम्बाई और इससे भी निम्न, क्वांटम प्रभावों को क्वांटम गुरुत्वाकर्षण के अधीन लेना चाहिए। यद्दपि सुक्ष्म (माइक्रो) स्तर के पैमानों पर और प्रबल गुरुत्वीय क्षेत्र के अभाव में, विशिष्ट आपेक्षिकता पूर्ण रूप से परिक्षण उच्च शुद्धता के साथ (10−20) किया का चुका है।[43] और अतः भौतिक विज्ञानियों द्वारा प्रमाणित है। इसके विरोधाभाष में प्राप्त प्रायोगिक परिणाम पुनःप्राप्त नहीं हो पाते हैं अतः इन्हें व्यापक रूप से प्रायोगिक त्रुटी माना जाता है।

विशिष्ट आपेक्षिकता गणित में स्वतःतर्कसंगत है और आधुनिक सिद्धांतों का सामान्य भाग बन गया है, मुख्य रूप से क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत, स्ट्रिंग सिद्धांत और आपेक्षिकता (नगण्य गुरुत्वीय क्षेत्र की सीमा के साथ)।

न्यूटनीय यांत्रिकी गणितीय रूप से निम्न वेगों (प्रकाश के वेग की तुलना में) पर विशिष्ट आपेक्षिकता का पालन करती है - अतः न्यूटनीय यांत्रिकी को धीमे वेग वाली वस्तुओं की विशिष्ट आपेक्षिकता के रूप में देखा जाता है। अधिक जानकारी के लिए चिरसम्मत यांत्रिकी देखें।

विभिन्न प्रयोग आइंस्टीन के सन् १९०५ के पेपर को आज आपेक्षिकता के प्रमाण के रूप में उल्लेखित करते हैं। इनमें से यह जाना जाता है कि सन् १९०५ में आइन्सटीन को फिज़ाऊ प्रयोग (Fizeau Experiment) के बारे में पहले से जानकारी थी[44] और इतिहासकार मानते हैं कि आइन्सटीन १९९९ से कम से कम माइकल मोर्ले प्रयोग से अवगत होने के बावजूद उन्होने बाद के वर्षों में कोई सैद्धांतिक विकास नहीं किया[45]

  • फिज़ाऊ प्रयोग (Fizeau experiment) (1851, 1886 में माइकलसन व मोर्ले द्वारा पुनवृर्ती) ने गतिशील माध्यम में प्रकाश के वेग का मापन किया, जो रेखीक वेगों के आपेक्षिक संयोजन से मेल खाती हैं।[46]
  • प्रसिद्ध माइकलसन मोर्ले प्रयोग (1881, 1887) ने निरपेक्ष प्रकाश के वेग के संसूचन के अभिगृहित को भावी सहारा दिया। यह यहाँ आरम्भ होना चाहिेए कि अन्य कई दावों के विपरीत था, इसने अल्प मात्रा में स्रोत व प्रेक्षक के वेग के सापेक्ष प्रकाश के वेग की निश्चरता के बारे में कहा था जहाँ सभी स्रोत व प्रेक्षक समान वेग से सभी समयों पर एकसाथ गतिमान थे।
  • ट्रोउटन-नोबल प्रयोग (1903) ने प्रदर्शित किया कि एक संधारित्र पर लगा बलाघूर्ण निर्देश तंत्र व स्थिति से स्वतन्त्र होता है।
  • रेले व ब्रेस के प्रयोगों (1902, 1904) ने दर्शाया कि लम्बाई में संकुचन सह-गतिशील प्रेक्षक के लिए विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धांत के अनुसार विपाटित हो जाता है।

कण त्वरकों में नियमतः त्वरित और लगभग प्रकाश के वेग से गतिशील कणों के गुणधर्म प्रेक्षित किए जाते हैं, जहाँ इनका व्यवहार आपेक्षिकता सिद्धांत के संगत होता है और न्यूटनीय यांत्रिकी से असंगत। य यन्त्र केवल उन्ही परिस्थितियों में सुगमता से कार्य करते हैं जब अभियांत्रिकी रूप से आपेक्षिकता के सिद्धांतो के अनुसार बनाया जाता है। पर्याप्त संख्या में आधुनिक प्रयोग विशिष्ट आपेक्षिकता के परिक्षण के लिए तैयार किए गये। कुछ उदाहरण निम्न हैं:

आपेक्षिकता के सिद्धांत और क्वांटम यांत्रिकी

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विशिष्ट आपेक्षिकता को क्वांटम यांत्रिकी के साथ मिलाकर आपेक्षिक क्वांटम यांत्रिकी का विकास किया जा सकता है। यह भौतिकी में अनसुलझी पहेलियों की सूची में शामिल है, सामान्य आपेक्षिकता व क्वांटम यांत्रिकी को समेकक कैसे किया जाए; क्वांटम गुरुत्वाकर्षण और सर्वतत्व सिद्धांत, जिसके लिए एकीकरण की आवश्यकता है और सैद्धांतिक शोध का सक्रिय व वर्तमान में प्रगतिशील विषय है।

पूर्व बोर मॉडल द्वारा उस समय के क्वांटम यांत्रिकी ज्ञान व विशिष्ट आपेक्षिकता के उपयोग से क्षार धातु परमाणुओं की उत्तम संरचना की व्याख्या की गई।[47]

१९२८ में, पॉल डिरॅक ने प्रभावशाली आपेक्षिक तरंग समीकरण का प्रतिपादन किया, जिसे उनके समान के रूप में आज डिराक समीकरण के नाम से जाना जाता है,[48] जो विशिष्ट सापेक्षिकता व १९२६ के पश्चात तक की अन्तिम क्वांटम सिद्धांत दोनों के अनुकूल है। यह समीकरण न केवल इलेक्ट्रानों नैज कोणीय संवेग (intrinsic angular momentum) जिसे प्रचक्रण कहते है कि व्याख्या करती है बल्कि इसने इलेक्ट्रान के प्रति-कण (पोजीट्रॉन) के अस्थित्व की भविष्यवाणी भी की।[48][49] और उत्तम संरचना केवल विशिष्ट आपेक्षिकता के साथ ही पल्लवित किए गये। यह आपेक्षिक क्वांटम यांत्रिकी का प्रथम आधाष था। सामान्य क्वांटम यांत्रिकी में, प्रचक्रण एक नई घटना है और इसको समझाया नहीं जा सकता।

अन्य उदाहरण के तौर पर देखें तो, प्रति-कणों की खोज से सिद्ध होता है कि इन घटनाओं को आपेक्षिक क्वांटम यांत्रिकी समझाने में सक्षम नहीं है और यह कणों की अन्योन्य क्रिया के लिए एक पूर्ण सिद्धांत नहीं है। बल्कि आवश्यक रूप से उन कणों का सिद्धांत है जो क्वांटीकृत क्षत्रों से सम्बन्धित हैं अतः इसे क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत कहा जाता है; जिसमें कणों का दिक्-काल के साथ निर्मण व विलोपन किया जा सकता है।

ये भी देखें

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लोग:हेंड्रिक लारेंज़ | आन्री पांकरे | अल्बर्ट आइंस्टीन | मैक्स प्लांक | माक्स वान लो | माक्स बोर्न
आपेक्षिकता: आपेक्षिकता का सिद्धान्त | प्रकाश का वेग | निर्देश तंत्र |
भौतिक विज्ञान: चिरसम्मत यांत्रिकी | दिक्-काल | प्रकाश का वेग | डॉप्लर प्रभाव
गणित: ज्यामिति | प्रदिश
विरोधाभास: यमल विरोधाभास
  1. आइंस्टीन आत्मकथात्मक लेख, १९४९
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विषय से सम्बन्धित पुस्तकें

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पत्रिका लेख

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बाहरी कड़ियाँ

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मौलिक कार्य

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समान्य श्रोता के लिए विशिष्ट आपेक्षिकता (गणितीय ज्ञान आवश्यक नहीं)

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विशिष्ट आपेक्षिकता की व्याख्या (साधारण व उन्नत गणित के साथ)

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प्रत्यक्ष-दर्शन

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