विश्वेदेव (संस्कृत: विश्वेदेवाः ; शाब्दिक अर्थ : सभी देवता) से तात्पर्य 'सभी देवताओं' से है। ऋग्वेद में अनेकों मंत्रों में 'विश्वदेवाः' की स्तुति की गई है जैसे 1.89, 3.54-56, 4.55, 5.41-51, 6.49-52, 7.34-37, 39, 40, 42, 43, 8.27-30, 58, 83 10.31, 35, 36, 56, 57, 61-66, 92, 93, 100, 101, 109, 114, 126, 128, 137, 141, 157, 165, 181 आदि। ऋग्वेद के मंत्र 3.54.17 में इन्द्र को विश्वेदेवाः का अध्यक्ष कहा गया है।

'विश्वेदेवाः' अग्नि तथा श्राद्ध देवता का भी नाम है और इस नाम का एक राक्षस भी हुआ है, पर प्राय: विश्वेदेवा: उन सभी नौ या दस देवताओं के समूह के लिए आता है जिनके नाम वेद, संहिता तथा अग्निपुराण आदि में दिए गए हैं। भागवत में इन्हें धर्म ऋषि तथा (दक्षकन्या), विश्वा के पुत्र बताया है और इनके नाम दक्ष, व्रतु, वसु, काम, सत्य, काल, रोचक, आद्रव, पुरुरवा तथा कुरज दिए हैं। इन सबों ने राजा मरुत के यज्ञ में सभासदों का काम किया था।

वर्तमान मन्वन्तर में सात ही विश्वेदेव मान गए हैं और मार्कण्डेय पुराण के अनुसार विश्वामित्र के तिरस्कार करने के कारण इन्हें द्रौपदी के गर्भ से उनके पाँच पुत्रों के रूप में जन्म लेना और अश्वत्थामा के हाथों मरना पड़ा था। ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में विश्वेदेवा की स्तुति की गई है और शुक्ल यजुर्वेद में इन्हें गणदेवता के रूप में माना गया है। वेद संहिता में इनकी सख्या केवल नौ है और इन्हें इंद्र, अग्नि आदि से कुछ निम्न श्रेणी का माना है। ये मानवों के रक्षक तथा सत्कर्मों के पुरस्कारदाता कहे जाते हैं और ऋक्संहिता के एक मंत्र में इन्हें विश्व के अधिपति की उपाधि दी गई है।