संगठन

सामुदायिक संगठन
(व्यवस्था से अनुप्रेषित)

संगठन (organisation) वह सामाजिक व्यवस्था या युक्ति है जिसका लक्ष्य एक होता है, जो अपने कार्यों की समीक्षा करते हुए स्वयं का नियन्त्रण करती है, तथा अपने परर्यावरण से जिसकी अलग सीमा होती है। संगठन तरह-तरह के हो सकते हैं - सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सैनिक, व्यावसायिक, वैज्ञानिक हर माह 5000 रु पाओ आदि।

संयुक्त राष्ट्र की संरचना

जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर किसी एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्यशील होते हैं तो संगठन की आवश्यकता पड़ती है। उद्देश्य के अल्पकालीन होने से संगठन की आवश्यकता में कमी नहीं आती। यदि कुछ व्यक्तियों को मिलकर भारी वजन उठाना हो तो इस क्षणिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए संगठन की आवश्यकता होती है। किसी भी व्यावसायिक उपक्रम के लिए व्यवसाय प्रारंभ करने के पूर्व से उसको संचालित करने के लिए संगठन का निर्माण कर लिया जाना चाहिए। बगैर संगठन के किसी भी उद्देश्य की प्रभावपूर्ण ढंग से पूर्ति संभव नहीं है। एक अच्छा संगठन किसी निष्क्रिय उपक्रम को भी जीवन प्रदान कर सकता है। एक कमजोर संगठन अच्छे उत्पाद को मिट्टी में मिला सकता है जबकि एक अच्छा संगठन जिसके पास कमजोर उत्पाद है, अपने से अच्छे उत्पाद को बाजार से निकाल सकता है। संगठन सम्पूर्ण प्रबन्ध के संचालन का केन्द्र है जिसके द्वारा मानवीय प्रयासों को समन्वित करके उन्हें सहक्रियाशील बनाया जाता है। संगठन कार्यों, साधनों व सम्बन्धों की एक औपचारिक अवस्था है जिसके माध्यम से प्रबन्ध अपना कार्य सम्पन्न करता है। यह प्रबन्ध का तंत्र एवं शरीर रचना है। संगठित प्रयासों के द्वारा ही उपक्रम की योजनाओं एवं आवश्यकताओं को साकार किया जा सकता है। एक सुदृढ़ संगठन व्यवसाय की प्रत्येक समस्या का उत्तर है।

अर्थ एवं परिभाषा

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जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर किसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए कार्य करते हैं तो उनके बीच स्थापित संबंधों एवं अन्तःक्रियाओं की संरचना को 'संगठन' कहते हैं। संगठन का आशय कर्मचारियों की इस प्रकार की व्यवस्था से है जिससे कार्यों तथा उत्तरदायित्वों के उचित विभाजन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों को आसानी से पूरा किया जा सके।

मनुष्य के लक्ष्यों की प्राप्ति का आधार संगठन ही है। संगठन कार्यों, साधनों एवं संबंधों की एक औपचारिक अवस्था है जिसके द्वारा प्रबन्ध अपना कार्य सम्पन्न करता है। जब दो या अधिक व्यक्ति मिलकर किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्यशील हो तो उन्हें संगठन की आवश्यकता होती है। उद्देश्य चाहे अल्पकालीन हो या दीर्घकालीन, संगठन की आवश्यकता में कमी नहीं आती। संगठन के विभिन्न स्तरों पर नियुक्त अधिकारियों के मध्य सह-सम्बन्धों की व्याख्या की जाती है। एक व्यावसायिक उपक्रम को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कुशल संगठन का निर्माण करना चाहिए क्योंकि एक कमजोर संगठन अच्छे उत्पाद को मिट्टी में मिला सकता है।

संगठन, प्रबन्ध अध्ययन का एक उत्तेजक एवं चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है। व्यवसाय में ही नहीं, बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में सफलता का आधार सुदृढ़ संगठन एवं समन्वय व्यवस्था ही है। आज मनुष्य की सभी क्रियाएँ संगठन के अन्दर ही होती है। संगठन के बिना मानव जीवन की कोई भी क्रिया व्यवस्थित रूप से नहीं चल सकती है। हम संगठन में ही जन्म लेते हैं, शिक्षा प्राप्त करते हैं तथा हममें से अधिकांश लोग संगठन में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। संगठन के बिना प्रबन्ध वैसे ही प्रभावहीन है जैसे बिना आत्मा के शरीर।

संगठन इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि व्यक्ति अपना अत्यधिक समय उनमें व्यतीत करते हैं। मानव शक्ति अर्थात् वयस्क जनसंख्या अपने जीवन का एक-तिहाई समय संगठनों में व्यतीत करती है।

व्यवसाय में संगठन के महत्त्व को 'एण्ड्र्यू कार्नेगी' के 1901 में अपनी विशाल सम्पत्ति (United States Steel Corporation) को बेचते समय कहे गये कथन से समझा जा सकता है-

हमारी समस्त मुद्रा, महान कार्य, खाने तथा कोयले की भट्टियाँ यदि सब कुछ ले जाओ, किन्तु हमारा संगठन हमारे पास छोड़ दो। कुछ ही वर्षों में ही हम स्वयं को पुनः स्थापित कर लेंगे।

किसी भी व्यवसायिक उपक्रम को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कुशल संगठन का निर्माण करना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि संगठन व्यक्तियों के कार्य स्थल पर आपसी सम्बन्धों, भूमिकाओं व पद स्थितियों का ढांचा है, जिसके अन्तर्गत सभी व्यक्ति एक एकीकृत इकाई के रूप में संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयास करते हैं।

संगठन निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण है-

(1) समन्वय में सुविधा - कृत्यों तथा विभागों का समाकलन करते समय समन्वय का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। प्रबन्ध का यह मुख्य कार्य है कि वह कर्मचारी के अलग-अलग कार्यों, प्रयासों, हितों व दृष्टिकोण में एक उचित समन्वय स्थापित करे। संगठन का निर्माण करते समय उपक्रम की क्रियाओं का वर्गीकरण एवं समूहीकरण किया जाता है। उपक्रम के सभी विभाग सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं जिसके परिणामस्वरूप समन्वय का कार्य सुविधाजनक हो जाता है।

(2) अधिकार प्रत्यायोजन में सुविधा - एक अच्छे संगठन में प्रत्येक अधिकारी को अपने कार्यक्षेत्र, उद्देश्यों एवं अधिकारों का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। वह अपने अधीनस्थों को आवश्यक कार्य एवं अधिकार सौंप सकता है। कुशल संगठन अधिकारों के प्रत्यायोजन को सुगम बनाता है। एक कुशल संगठन में एक अधिकारी को यह ज्ञात होता है कि उनके अधीनस्थ कौन-कौन व्यक्ति हैं और किसे क्या-क्या कार्य करना है। सुदृढ़ संगठन यथार्थ एवं प्रभावपूर्ण प्रत्यायोजन को सुविधाजनक बनाता है।

(3) भ्रष्टाचार की समाप्ति - संगठन के विभिन्न स्तरों पर निरन्तर नियंत्रण का कार्य किया जाता है। अच्छा संगठन अपने कर्मचारियों में वैयक्तिक गुणों, परिश्रम, दायित्व, भावना आदि को प्रोत्साहित करके भ्रष्टाचार एवं निष्क्रियता को समाप्त करता है।

(4) संचार में सुविधा - संगठन के द्वारा संस्था में अधिकारी, अधीनस्थ संबंध स्थापित हो जाते हैं एवं औपचारिक संचार के मार्गों का निर्धारण हो जाता है। जिसके कारण ऊपर से नीचे की ओर आदेशों के प्रवाह में और नीचे से ऊपर की और कर्मचारियों के विचारों, सुझावों एवं समस्याओं के प्रवाह में सुवि धा होती है।

(5) अच्छे मानवीय संबंधों को बढ़ावा - प्रभावी संगठन संरचना कार्मिकों में समूह भावना का विकास करती है, एक साथ मिलकर कार्य करने की प्रेरणा देती है तथा मानव के साथ मानवता का व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है। अधिकार-दायित्वों की स्पष्ट व्याख्या, कुशल संचार, प्रत्यायोजन, रूचि के अनुसार कार्य-वितरण, आदेश-निर्देशों की एकता आदि घटकों से श्रेष्ठ मानवीय संबंधों का विकास होता है।

(6) मनोबल का विकास - स्वस्थ संगठन में कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि होती है। कर्मचारियों को उनकी योग्यता के अनुरूप ही कार्य दिया जाता है जिससे कर्मचारियों को अपने दायित्वों एवं अधिकारों का स्पष्ट ज्ञान होता है। अतः कर्मचारियों को अच्छा कार्य करने पर प्रशंसा एवं खराब कार्य पर चेतावनी मिलती है जिससे कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि होती है।

(7) विशिष्टीकरण को बढ़ावा - संगठन संरचना का निर्माण श्रम विभाजन के आधार पर किया जाता है। संगठन संरचना का मुख्य आधार श्रम विभाजन होता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष कार्य ही करता है। विशिष्टीकरण से कर्मचारियों की कार्यक्षमता बढ़ती है तथा अधिक उत्पादन का मार्ग प्रशस्त होता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्तियों की कुशलता बढ़ती है। कुशलता बढ़ने से उत्पादन अधिक होता है तथा प्रति इकाई लागत घटती है जिससे लोगों को कम आय में अधिक वस्तुएँ प्राप्त होती है एवं जीवन स्तर में वृद्धि होती है।

(8) उपक्रम के कार्यों को व्यवस्थित करना - संगठन प्रत्येक व्यक्ति के लिए निश्चित कार्य, निश्चित स्थान तथा निश्चित साधनों की व्यवस्था करता है, जिससे उपक्रम के कार्य व्यवस्थित रूप से चलते रहते हैं। संगठन व्यवस्था को जन्म देता है। संगठन का अभाव ही अव्यवस्था को जन्म देता है।

(9) विकास को बढ़ावा - संगठन विकास का मूल मंत्र है। उपक्रम का विकास संगठन की कुशलता पर निर्भर करता है। बड़े-बड़े उपक्रमों के विकास का इतिहास अच्छे एवं कुशल संगठन की ही कहानी है। कोई भी उपक्रम संगठन के अभाव में विकास की आशा नहीं कर सकता है।

(10) रचनात्मक विचारधारा को प्रोत्साहन - संगठन में कार्य करने वाले कर्मचारी रचनात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। कर्मचारियों की इच्छा के अनुरूप कार्य मिलने पर वे उसे सम्पन्न करने में सक्षम होते हैं जिससे कर्मचारियों को संतोष प्राप्त होता है। अतः उनकी सोचने समझने की शक्ति बढ़ती है फलस्वरूप रचनात्मक विचारों को प्रोत्साहन मिलता है।

(11) व्यवस्था का निर्माण - एक संस्था में छोटी सी गलती समस्त पूंजी विनियोजन को व्यर्थ बना सकती है। अतः संगठन के द्वारा ही मतभेदों एवं अनियमितताओं को उत्पन्न होने से रोका जा सकता है।

(12) प्रबन्धकीय कार्य क्षमता में वृद्धि - कर्मचारियों में मधुर संबंध स्थापित करना, कार्य की आवश्यकता के अनुरूप कर्मचारियों की भर्ती, कार्र्यों का वैज्ञानिक आधार पर बंटवारा आदि के द्वारा प्रबन्धकीय कार्य-क्षमता में वृद्धि की जा सकती है।

(13) साधनों का अनुकूलतम उपयोग - कर्मचारियों की इच्छा के अनुरूप कार्य मिलने पर उसे वे भली-भांति सम्पन्न करने में सक्षम होते हैं तथा उचित समन्वय के द्वारा कार्यों के दोहराव व अपव्यय को समाप्त किया जा सकता है जिसके कारण साधनों का अनुकूलतम उपयोग होता है।

(14) व्यक्तिगत योग्यताओं के मापन का आधार - जब कर्मचारियों को कार्यभार सौंप दिया जाता है तो कर्मचारियों को अपने दायित्व का बोध हो जाता है अतः यह आसानी से पता किया जा सकता है कि कर्मचारी ने सौंपे गये कार्य को किस सीमा तक पूरा किया है जिसके फलस्वरूप कर्मचारी की व्यक्तिगत योग्यता एवं क्षमता का सही मापन हो जाता है।

(15) सामूहिक प्रयासों की प्रभावशीलता - संगठित प्रयासों के माध्यम से ही उद्देश्यों की पूर्ति की जा सकती है। इसके माध्यम से ही व्यक्तिगत प्रयासों का एकीकरण किया जाता है।

(16) नियंत्रण में सुविधा - कार्यों, अधिकारों एवं दायित्वों के निश्चित होने के कारण संगठन के विभिन्न स्तरों पर अनावश्यक हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है तथा उच्च प्रबन्धकों को केवल महत्त्वपूर्ण नियंत्रण केन्द्रों पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है।

(17) मानवीय प्रयासों का समुचित उपयोग - विशिष्टीकरण के माध्यम से जब कार्मिकों को अपनी योग्यता, अनुभव एवं रुचि के अनुसार कार्य मिल जाता है तो वे सौंपे गये कृत्य का अपनी योग्यता, कुशलता एवं अनुभव का पूरा उपयोग करके ठीक ढंग से निष्पादन करते हैं। इस प्रकार सुदृढ़ संगठन से “सही व्यक्ति को सही कार्य“ प्रदान करने से उनके प्रयास का समुचित उपयोग सम्भव होता है और समय, श्रम एवं धन का दुरुपयोग नहीं होता।

(18) तकनीकी सुधारों का समुचित उपयोग - इस वैज्ञानिक युग में शोध एवं अनुसंधानों के कारण औद्योगिक जगत में आये दिन परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों, सुधारों एवं विकसित नवीन तकनीकों की प्रयुक्ति न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए आवश्यक हो जाती है। प्रभावी संगठन द्वारा ही इन नवीन सुधारों का लाभ उठाया जा सकता है।

संगठन के उद्देश्य

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संगठन प्रणाली विभिन्न संघटकों से निर्मित होता है। इसकी संरचना में विभिन्न निवेशों का योगदान होता है, जिन्हें संगठन के उद्देश्य कहा जाता है।

(1) श्रम विभाजन - व्यक्तियों एवं विभागों के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं का उचित निर्धारण, स्पष्टीकरण एवं पृथक्करण किया जाना चाहिए। तत्पश्चात् कार्यों का वितरण व्यक्ति की रूचि एवं योग्यता के आधारपर किया जाना चाहिए। इससे कार्य निष्पादन में दोहराव समाप्त होता है तथा प्रयास प्रभावपूर्ण बन जाते हैं।

(2) मानव समूह - मानव समूह संगठन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। क्रियाओं के समूहीकरण व सत्ता के वितरण में व्यक्तियों की सीमाओं व क्षमताओं का पूर्ण विचार किया जाना चाहिए।

(3) भौतिक साधन - संगठन एक सीमा तक भौतिक संसाधनों - पूँजी, मशीनें, यंत्र, सामग्री, भूमि आदि का संकलन एवं संयोजन भी है। व्यक्तियों को उनके कार्य निष्पादन में सहायता पहुँचाते हैं।

(4) वातावरण - नियोजन की भाँंति प्रत्येक संगठन संरचना का एक आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं नैतिक वातावरण होता है जो कार्य निष्पादन में सहायक होता है।

(5) अधिकार सत्ता - अधिकार सत्ता अन्य व्यक्तियों को निर्देश देने व उनका पालन करवाने हेतु बाध्य करवाने की शक्ति होती है। कर्मचारियों को प्राप्त होने वाली सत्ता संगठन में उनकी स्थिति, वैधानिक नियमों, अनुभव, ज्ञान एवं प्रथाओं पर निर्भर करती है।

(6) संचार व्यवस्था- संगठन संचार व्यवस्था को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने का कार्य करता है क्योंकि यह संगठन में रक्त प्रवाह के समान है जो इसके समस्त अंगों को गति प्रदान करता है।

(7) संबंधों का ढांचा - कार्य के वितरण से कर्मचारियों के मध्य विभिन्न भूमिकाओं व स्थितियों का निर्माण होता है जो उन्हें परस्पर सम्बन्धित करती है। संगठन कार्य सम्बन्धों का जाल एवं ढांचा है।

क्षेत्र एवं प्रकृति

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(1) यह एक गतिशील क्रियात्मक प्रक्रिया है।

(2) यह सहकारी प्रयासों की एक व्यवस्था है।

(3) यह परस्परवादी चलों का समूह है।

(4) यह प्रबन्ध का कार्य, साधन एवं शरीर रचना है।

(5) इसमें सदस्यों के अधिकारों व कार्य क्षेत्र की सीमा स्पष्ट होती है।

(6) संगठन यांत्रिक नहीं है, न ही एक संकलन है। यह एक मानवीय एवं जैविक व्यवस्था भी है।

(7) संगठन व्यक्तियों का समूह है।

(8) इसमें सदस्यों के कार्यकारी सम्बन्ध निश्चित होते हैं।

(9) यह एक प्रबन्धकीय क्रिया है जो चक्रीय है, न कि एक दैनिक घटित होने वाली क्रिया।

(10) यह समूह एक कार्यकारी नेतृत्व के अन्तर्गत कार्य करता है।

(11) आधुनिक संगठन सामाजिक सम्बन्धों की प्रणाली है।

(12) इसमें सदस्यों की पद-स्थितियाँ, भूमिकाएँ एवं औपचारिक सत्ता भी निश्चित होती है।

संगठन के प्रकार

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किसी भी उपक्रम के संगठन का निर्माण करने के लिए जो आवश्यक कदम उठाये जाते हैं, वे निम्न प्रकार से हैं -

(1) उद्देश्यों का निर्धारण करना -संगठन प्रक्रिया का प्रथम कदम संस्था के उद्देश्यों का निर्धारण करना है। संस्था के उद्देश्यों के निर्धारण के अभाव में संगठन का कोई महत्त्व नहीं रहता। वास्तव में संगठन का अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं होता, यह तो उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन है।

(2) कार्यों को परिभाषित करना - कार्यों को परिभाषित करते समय संस्था द्वारा किये जाने वाले समस्त कार्यों को परिभाषित किया जाता है। कार्यों को परिभाषित करते समय संस्था के उद्देश्यों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। प्रत्येक कार्य को उपकार्यों में विभाजित किया जाता है जिससे कि उने कर्मचारियों में बाँटा जा सके और उनका दायित्व निर्धारित किया जा सके।

(3) कर्मचारियों के मध्य कार्य का विभाजन - क्रियाओं को श्रेणीबद्ध करने के उपरान्त अगला कदम है, कार्यों का कर्मचारियों के मध्य विभाजन करना। कार्य विभाजन में कर्मचारियों की रूचि, शारीरिक क्षमता, शैक्षणिक योग्यता, कार्य अनुभव आदि को ध्यान में रखना आवश्यक होता है।

(4) समन्वय - संगठन संरचना की अन्तिम प्रक्रिया है। विभिन्न विभागों के बीच समन्वय स्थापित करना, जिससे कि उपक्रम के समस्त विभाग एकजुट होकर संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में प्रयत्नशील हो सकें। विभिन्न विभागों के बीच सम्बन्धों को परिभाषित करना ही संगठन प्रक्रिया की अन्तिम कड़ी होती है।

(5) क्रियाओं को श्रेणीबद्ध करना - समान प्रकृति अथवा सम्बन्धित क्रियाओं को श्रेणीबद्ध किया जाता है। क्रियाओं के श्रेणीबद्ध करने से विभागों तथा उपविभागों का निर्माण होता है।

(6) व्युत्पन्न उद्देश्यों, नीतियों तथा योजनाओं का निर्माण

(7) क्रियाओं का उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक साधनों की दृष्टि से श्रेणीबद्ध करना जिससे कि साधनों का अधिकतम उपयोग हो सके।

(8) क्रियाओं की विभिन्न श्रेणियों का परस्पर गठबन्धन। इस प्रकार का गठबन्धन क्षितिजीत तथा ऊध्वधिर हो सकता है।

(9) अधिकारों का प्रत्यायोजन - कर्मचारियों के मध्य कार्य वितरण द्वारा उन्हें कार्य सम्पादन व उत्तरदायित्व सौंप दिया जाता है। उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए उत्तरदायित्व के अनुरूप अधिकार भी कर्मचारियों को सौंपे जाने चाहिए।

सिद्धान्त

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संगठन के सिद्धान्त निम्न हैं:-

(1) उद्देश्य का सिद्धान्त - उद्देश्य के बिना संगठन का निर्माण नहीं किया जा सकता है, अतः संगठन के प्रत्येक भाग का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए। संगठन में कार्यरत सभी व्यक्तियों को संगठन के उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिए। उद्देश्य निश्चित न होने पर मानव एवं मानव सामग्री का कुशल एवं प्रभावी उपयोग नहीं किया जा सकता है।

(2) समन्वय का सिद्धान्त - समन्वय संगठन के समस्त सिद्धान्तों को अभिव्यक्त करता है। संगठन का उद्देश्य ही उपक्रम के विभिन्न विभागों पर किये जाने वाले कार्य में समन्वय स्थापित करता है।

(3) विशिष्टीकरण का सिद्धान्त - व्यक्ति की इच्छा एवं कार्य क्षमता के अनुसार ही कार्य सौंपा जाना चाहिए जिसको करने में वह सक्षम है। तो वह उस कार्य में दक्षता प्राप्त करता है। इस सिद्धान्त के पालन से विभागों एवं कर्मचारियों की कार्य क्षमता में भी वृद्धि होती है।

(4) अधिकार का सिद्धान्त - सर्वोच्च सत्ता से अधिकारों के हस्तान्तरण के लिए पद श्रेणी क्रम का निश्चित निर्धारण होना चाहिए। प्रत्येक कार्य के संबंध में अधिकारों का उचित निर्धारण किया जाना चाहिए।

(5) उत्तरदायित्व का सिद्धान्त - अधिकार एवं दायित्व साथ-साथ होने चाहिए। अधीनस्थ कर्मचारियों के द्वारा किये गये कार्यों के लिए उच्च अधिकारियों का पूर्ण दायित्व होता है।

(6) व्याख्या का सिद्धान्त - प्रत्येक संगठन में हर एक की स्थिति लिखित में स्पष्टतः निर्धारित की जानी चाहिए। प्रत्येक कर्मचारी के कर्तव्य, दायित्व, अधिकार व संबंधों की स्पष्ट व्याख्या की जानी चाहिए।

(7) आदेश की एकता का सिद्धान्त - संगठन में कार्यरत व्यक्ति एक समय में एक ही अधिकारी की सेवा कर सकता है अतः एक समय में एक ही अधिकारी से आदेश प्राप्त कर सकता है। एक से अधिक अधिकारियों से आदेश प्राप्त होने पर उसकी कार्य रूचि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

(8) अनुरूपता का सिद्धान्त - यदि व्यक्ति के दायित्व अधिकारों की तुलना में अधिक है तो वह उन्हें पूरा नहीं कर सकता है तथा व्यक्ति के अधिकार दायित्वों की तुलना में अधिक है तो वह उनका दुरूपयोग करने की कोशिश करेगा। अतः दोनों ही स्थितियाँ संगठन के लिए अच्छी नहीं है।

(9) नियंत्रण के विस्तार का क्षेत्र - नियंत्रण के क्षेत्र से आशय एक अधिकारी द्वारा विभिन्न अधीनस्थों की क्रियाओं पर नियंत्रण बनाये रखने से है। कोई भी अधिकारी प्रत्यक्ष रूप से पांच या छः कर्मचारियों की क्रियाओं पर नियंत्रण कर सकता है।

(10) संतुलन का सिद्धान्त - यह सिद्धान्त संगठन की विभिन्न इकाईयों, नियंत्रण के विस्तार एवं आदेशों की श्रृंखला, रेखा व कर्मचारी प्रारूप आदि में उचित संतुलन बनाये रखने पर बल देता है।

(11) निरन्तरता का सिद्धान्त - संगठन संरचना में पर्याप्त लोच होनी चाहिए जिससे कि संगठन संरचना में आवश्यकता पड़ने पर इसका पुनर्गठन किया जा सके। संगठन एक प्रक्रिया है जो कि निरन्तर चलती रहती है। इसलिए संगठन आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए।

(12) अधिकार प्रत्यायोजन का सिद्धान्त - अधिकारों का प्रत्यायोजन संगठन के निम्न स्तर तक किया जाना चाहिए। यदि उस स्तर पर कार्य करने वाला व्यक्ति निर्णय के परिणामों से प्रभावित होता है। उच्च प्रबन्धकों को महत्वपूर्ण निर्णय लेने एवं भारी नियोजन के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है।

(13) सरलता का सिद्धान्त - संगठन संरचना सरल से सरल होनी चाहिए जिससे सेवारत सभी व्यक्ति आसानी से समझ सकें तथा निष्पादन में अधिक लागत न आये व कठिनाइयों को कम किया जा सके।

(14) लोचशीलता का सिद्धान्त - संगठन के लोचशील होने से, बिना भारी फेरबदल के ही संस्था में नवीन तकनीकों को लागू करके कार्य कुशलता में वृद्धि की जा सकती है। अतः संगठन संरचना लोचशील होनी चाहिए। यदि संगठन संरचना में भावी आवश्यकताओं के अनुसार समायोजन की व्यवस्था नहीं होगी तो संगठन अप्रभावशील हो जायेगा।

(15) न्यूनतम सत्ता-स्तरों का सिद्धान्त - ठोस एवं शीघ्र निर्णयन के लिए संगठन संरचना में सत्ता स्तरों को न्यूनतम किया जाना चाहिए। सत्ता स्तरों की निर्देश श्रृंखला लम्बी हो जाती है तो निम्न स्तर पर कार्यरत व्यक्ति की निर्देश प्राप्त होने में विलम्ब होने के साथ-साथ संदेशों की शुद्धता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।

(16) अनुरूपता का सिद्धान्त - समान कार्य करने वाले कर्मचारियों के अधिकारों एवं दायित्वों में भी एकरूपता होनी चाहिए जिसके कारण अधिकारों के टकराव समाप्त हो जायेंगे तथा निष्पादन में कुशलता आ जायेगी।

(17) पदाधिकारियों से सम्पर्क का सिद्धान्त - एक उपक्रम में संगठन के विभिन्न स्तरों पर प्रबन्धकों में ऊपर से नीचे की ओर वरिष्ठता तथा अधीनता के क्रम में परस्पर सम्पर्क होना चाहिए।

(18) निश्चितता का सिद्धान्त - संगठन के इस सिद्धान्त के अनुसार संस्था में कार्यरत व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया न्यूनतम प्रयासों द्वारा अधिकतम कार्यकुशलता से निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में योगदान प्रदान करने वाली होनी चाहिए।

(1) समन्वय - आदर्श संगठन विभिन्न विभागों, कर्मचारियों एवं अधिकारियों की क्रियाओं में प्रभावशाली समन्वय बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक समूह के प्रयासों की क्रमबद्ध व्याख्या करने, कार्यों में एकरूपता लाने के लिए समन्वय आवश्यक है।

(2) सरलता - संगठन संरचना इतनी सरल बनानी जानी चाहिए जिससे कि उसे प्रत्येक व्यक्ति द्वारा आसानी से समझा जा सके। जटिल संरचना संगठन में दबाव उत्पन्न करती है एवं कर्मचारियों को लक्ष्य से विचलित करती है।

(3) स्पष्टता - यह संगठन में कार्यरत सभी कर्मचारियों एवं अधिकारियों की स्थिति स्पष्ट करता है अर्थात् उसे अपने कार्यों, अधिकारों, दायित्वों व संबंधों का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए जिसके कारण मतभेद, शिथिलता आदि दोष दूर हो जाते है।

(4) स्थायित्व - एक आदर्श संगठन वह माना जाता है जो दीर्घकाल तक फर्म के उद्देश्यों को प्राप्त करने की क्षमता रखता है। साथ ही जिसमें विभिन्न उपद्रवों व परिवर्तित दशाओं के साथ समायोजित होने की क्षमता होती है।

(5) उद्देश्यों के प्रति सजगता - संगठन का उपक्रम के उद्देश्यों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए तथा इनकी प्राप्ति के लिए उसे प्रयत्नशील होना चाहिए। साथ ही संगठन के उद्देश्यों की व्याख्या भी की जानी चाहिए।

(6) संतुलन - एक अच्छे संगठन द्वारा प्रत्येक इकाई, साधन एवं लक्ष्य सन्तुलित किये जा सकते हैं। इसे ’संगठनात्मक साम्य’ कहते हैं।

(7) प्रयासों की मितव्ययिता - एक संगठन ढ़ाँचे को वे समस्याएँ ही अच्छा बनाती है जो यह उत्पन्न नहीं करता है। एक अच्छे संगठन में प्रबन्धकों का समय एवं प्रयत्न आन्तरिक संघर्षों एवं मतभेदों में व्यय उत्पन्न नहीं होते हैं।

(8) प्रभावी निर्णयन - एक सुदृढ़ संगठन में सहभागिता के आधार पर सही समस्याओं पर निर्णय लिये जाते हैं तथा निर्णयन की प्रक्रिया कार्यवाही प्रधान होती है।

(9) कार्यान्वयन में सुविधा - एक अच्छा संगठन कार्य निष्पादन में सहायक होता है। सर्वोत्तम संगठन वह है जो सामान्य व्यक्तियों को असामान्य कार्य करने में सहायता करता है।

प्राचीन भारत में संगठन

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रामायण में मन्त्रिपरिषद व सभा जैसी संस्थाओं को नीति निर्णयों के लिए प्राधिकृत निकायों के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है तथा नीति निर्णयों की शक्ति केवल राजा के हाथ में केन्द्रित न कर यह निहित किया गया है कि इस शक्ति का उपयोग शासक अनिवार्यतः शासकीय अभिकरणों के साथ मिलकर करे । मनुस्मृति में मन्त्रिपरिषद् शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है अपितु शासक को मन्त्रणा के लिए सात-आठ योग्य मन्त्री नियुक्त करने के लिए निर्देशित किया गया है। महाभारत में मन्त्रिपरिषद के संस्थागत व संरचनात्मक पक्षों का व्यापक व सटीक वर्णन उपलब्ध है। इसमें में राजा से मन्त्रिपरिषद् में समाज के सारे वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने की अपेक्षा की गई है। इसमें 37 सदस्यीय मन्त्रिमण्डल में विभिन्न वर्गों की संख्या में क्रमश: ब्राह्मण -४, क्षत्रिय - ८, वैश्य - 21, शूद्र - 3 व सूत - 1 को सम्मिलित किया गया है। राजा को परामर्श दिया गया है कि मन्त्रणा को गुप्त रखने के लिए वह छः मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करे।

अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने कहा है कि राजा को तीन या चार मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करनी चाहिए। परन्तु समय, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार मन्त्रियों की संख्या में कमी या वृद्धि की जा सकती है। प्रशासनिक कुशलता व प्रशासन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर कौटिल्य प्रति तीसरे, पाँचवें, सातवें, दसवें वर्ष मन्त्रियों के विभागों को बदलने का परामर्श देते हैं। गुणों के आधार पर कौटिल्य ने मन्त्रियों को अहम, मध्यम व क्षुद्र तीन श्रेणियों में विभाजित किया है। कौटिल्य ने पृथक-पृथक १८ तीर्थों में प्रशासनिक व्यवस्था को बाँटते हुए उनके सक्षम अधिकारी नियुक्त करने के लिए कहा है। शुक्रनीतिसार में शासन के संगठनात्मक व संस्थागत पक्षों के सम्बन्ध में व्यवस्थित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रन्थ में पुरोहित, प्रतिनिधि, प्रधान, सचिव, मन्त्री, प्राड्विवाक, पण्डित, सुमन्त्र, अमात्य व दूत को शासन के संगठन में महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी माना गया है। महाभारत, मनुस्मृति और अर्थशास्त्र में मन्त्रियों के नैतिक तथा चारित्रिक गुणों पर अधिक बल दिया है। मनुस्मृति में मन्त्री के लिए जातिगत योग्यता होना अनिवार्य है। वहीं महाभारत में शूद्र व सूत जाति को मन्त्रिमण्डल में अनिवार्य प्रतिनिधित्व दिए जाने पर बल दिया है। रामायण में प्रशासनिक व्यवस्था के संगठनात्मक पक्षों के सम्बन्ध में व्यवस्थित विवेचन उपलब्ध नहीं है। लेकिन कार्मिक पक्षों पर स्पष्ट दृष्टि का प्रतिपादन करते हुए उनके चयन परीक्षण, वेतन, नीति, आचार संहिता आदि पक्षों पर विभिन्न प्रसंगों में एक स्पष्ट नीति बताई गई है।

मनुस्मृति में राज्य के शासन को दो भागों पुर व राष्ट्र में विभाजित कर प्रशासन के नगरीय एवं ग्रामीण दो स्वरूपों पर प्रकाश डाला गया है। ग्राम सबसे छोटी इकाई फिर क्रमश: 10, 20, 100 व 1000 ग्रामों के पृथक-पृथक संगठनों की व्यवस्था की गई है। याज्ञवल्क्य स्मृति में ग्रामीण स्तर से लेकर केन्द्रीय स्तर तक शासन की इकाईयों की पूरी शृंखला का चित्रण किया गया है। निम्न स्तर पर ग्रामीण, संस्था, समूह फिर उत्तरोतर क्रमशः कुल, जाति, श्रेणी, गण व जनपद के रूप शासन की विभिन्न इकाईयों के क्रम का प्रतिपादन किया है। महाभारत में प्रशासनिक संगठन की एक सुस्पष्ट योजना का उल्लेख मिलता है। अर्थशास्त्र में स्पष्टतः निम्न स्तर से लेकर शीर्ष स्तर तक शासन की शक्ति को भली भाँति व्यवस्थित करने के लिए एक सुस्पष्ट योजना प्रस्तुत की गई है। अमात्य व मन्त्रीपद के व्यक्तियों का पर्याप्त परीक्षण करके ही निर्धारित योग्यतानुसार पद देने के लिए कहा गया है। कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ में विभिन्न श्रेणियों के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए उनके कार्यां एवं योग्यताओं के अनुसार भिन्न-भिन्न वेतन दरें निर्धारित की है। आवश्यकता होने पर कर्मचारियों को अग्रिम वेतन देने का परामर्श दिया है। शुक्रनीति में बहुस्तरीय प्रशासनिक व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है। जाति तथा विशेषतः चरित्र तथा कार्यक्षमता के आधार पर कार्मिकों की नियुक्ति किए जाने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। शुक्रनीति में एक पद पर तीन अधिकारियों की नियुक्ति करने, समय-समय पर इनके कर्मों का परीक्षण करते रहने तथा एक निश्चित समय के पश्चात् अधिकारियों के स्थानान्तरण करने के सम्बन्ध में निर्देश भी उपलब्ध होते हैं। आकस्मिक स्थिति में तदर्थ नियुक्ति की भी व्यवस्था की गई है। वेतनमान तीन आधारों कार्यमान, कार्यकरण व कालमान के आधार पर होगा । शुक्रनीति में यह दृढ़ता से प्रतिपादन किया गया है कि कर्मचारियों को इतना वेतन अवश्य मिले किवह अपने आश्रितों का पालन भली भांति कर सके, अन्यथा वह भ्रष्टाचार की ओर प्रवृत्त होता है।[1]

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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  1. राजनीतिक चिन्तन की भारतीय दृष्टि, लेखक - संजीव कुमार शर्मा]