शक्ति (देवी)
शक्ति, ईश्वर की वह कल्पित माया है जो उसकी आज्ञा से सब काम करनेवाली और सृष्टिरचना करनेवाली मानी जाती है। यह अनंतरूपा और अनंतसामर्थ्यसंपन्ना कही गई है। यही शक्ति जगत्रूप में व्यक्त होती है और प्रलयकाल में समग्र चराचर जगत् को अपने में विलीन करके अव्यक्तरूपेण स्थित रहती है। यह जगत् वस्तुत: उसकी व्यवस्था का ही नाम है।
गीता में वर्णित योगमाया यही शक्ति है जो व्यक्त और अव्यक्त रूप में हैं। कृष्ण 'योगमायामुवाश्रित:' होकर ही अपनी लीला करते हैं। राधा उनकी आह्वादिनी शक्ति है। शिव शक्तिहीन होकर कुछ नहीं कर सकते। शक्तियुक्त शिव ही सब कुछ करने में, न करने में, अन्यथा करने में समर्थ होते हैं। इस तरह भारतीय दर्शनों में किसी न किसी नाम रूप से इसकी चर्चा है। पुराणों में विभिन्न देवताओं की विभिन्न शक्तियों की कल्पना की गई है। इन शक्तियों को बहुधा देवी के रूप में और मूर्तिमती माना गया है। जैसे, विष्णु की कीर्ति, कांति, तुष्टि, पुष्टि आदि; रुद्र की गुणोदरी, गोमुखी, दीर्घजिह्वा, ज्वालामुखी आदि। मार्कण्डेयपुराण के अनुसार समस्त देवताओं की तेजोराशि देवी शक्ति के रूप में कही गई है जिसकी शक्ति वैष्णवी, माहेश्वरी, ब्रह्माणी, कौमारी, नारसिंही, इंद्राणी, वाराही आदि हैं। उन देवों के स्वरूप और गुणादि से युक्त इनका वर्णन प्राप्त होता है।
तंत्र के अनुसार किसी पीठ की अधिष्ठात्री देवी शक्ति के रूप में कही गई है, जिसकी उपासना की जाती है। इसके उपासक शाक्त कहे जाते हैं। यह शक्ति भी सृष्टि की रचना करनेवाली और पूर्ण सामर्थ्यसंपन्न कही गई है। बौद्ध, जैन आदि संप्रदायों के तंत्रशास्त्रों में शक्ति की कल्पना की गई है, इन्हें बौद्धाभर्या भी कहा गया है। तांत्रिकों की परिभाषा में युवती, रूपवती, सौभाग्यवती विभिन्न जाति की स्त्रियों को भी इस नाम से कहा गया है और विधिपूर्वक इनका पूजन सिद्धिप्रद माना गया है।
प्रभु, मंत्र और उत्साह नाम से राजाओं की तीन शक्तियाँ कही गई हैं। कोष और दंड आदि से संबंधित शक्ति प्रभुशक्ति, संधिविग्रह आदि से संबंधित मंत्रशक्ति और विजय प्राप्त करने संबंधी शक्ति को उत्साह शक्ति कहा गया। राज्यशासन की सुदृढ़ता के निमित्त इनका होना आवश्यक कहा गया है।
शब्द के अंतर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार शब्दशक्ति नाम से अभिहित है। ये व्यापार तीन कहे गए हैं - अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। आचार्यों ने इसे शक्ति और वृत्ति नाम से कहा है। घट के निर्माण में मिट्टी, चक्र, दंड, कुलाल आदि कारण है और चक्र का घूमना शक्ति या व्यापार है और अभिधा, लक्षणा आदि व्यापार शक्तियाँ हैं। मम्मट ने व्यापार शब्द का प्रयोग किया है तो विश्वनाथ ने शक्ति का। 'शक्ति' में ईश्वरेच्छा के रूप में शब्द के निश्चित अर्थ के संकेत को माना गया है। यह प्राचीन तर्कशास्त्रियों का मत है। बाद में 'इच्छामात्र' को 'शक्ति' माना गया, अर्थात् मनुष्य की इच्छा से भी शब्दों के अर्थसंकेत की परंपरा को माना। 'तर्कदीपिका' में शक्ति को शब्द अर्थ के उस संबंध के रूप में स्वीकार किया गया है जो मानस में अर्थ को व्यक्त करता है।