बाबा श्री चन्द्र जी (8 सितम्बर 1494 – 13 जनवरी 1629) गुरु नानक के ज्येष्ट पुत्र थे जिन्होने उदासीन सम्प्रदाय की स्थापना की थी।

श्री चन्द्रमुनि

आप लुप्तप्राय उदासीन संप्रदाय के पुनः प्रवर्तक आचार्य है। उदासीन गुरुपरंपरा में आपका १६५ वाँ स्थान हैं। आपकी आविर्भावतिथि संवत १५५१ भाद्रपद शुक्ला नवमी तथा अंतर्धानतिथि संवत् १७०० श्रावण शुक्ला पंचमी है। आपके प्रमुख शिष्य श्री बालहास, अलमत्ता, पुष्पदेव, गोविन्ददेव, गुरुदत्त भगवद्दत्त, कर्ताराय, कमलासनादि मुनि थे।

बाबा श्रीचंद का जन्म 8 सितम्बर 1494 को पंजाब के कपूरथला जिला के सुल्तानपुर लोधी में हुवा था। उनका माता का नाम सुलखनी था। जन्म के समय उनके शरीर पर विभूति की एक पतली परत तथा कानों में मांस के कुंडल बने थे। अतः लोग उन्हें भगवान शिव का अवतार मानने लगे। जिस अवस्था में अन्य बालक खेलकूद में व्यस्त रहते हैं, उस समय बाबा श्रीचंद गहन वन के एकान्त में समाधि लगाकर बैठ जाते थे। कुछ बड़े होने पर वे देश भ्रमण को निकल पड़े। उन्होंने तिब्बत, कश्मीर, सिन्ध, काबुल, कंधार, बलूचिस्थान, अफगानिस्तान, गुजरात, पुरी, कटक, गया आदि स्थानों पर जाकर साधु-संतों के दर्शन किये। वे जहां जाते, वहां अपनी वाणी एवं चमत्कारों से दीन-दुखियों के कष्टों का निवारण करते थे।

श्रीचंद जी ने बहुत छोटी उम्र में ही योग के तरीकों में महारथ हासिल कर ली थी। वे अपने पिता गुरु नानक के प्रति हमेशा समर्पित रहे तथा उन्होंने उदासीन सम्प्रदाय की नीव रखी। उन्होंने दूर-दूर तक यात्रा की और गुरु नानक के बारे में जागरूकता फैल गई।

बाबा श्रीचंद की मृत्यु माघ सदी में 13 जनवरी 1629 को किरतपुर में हुई। उदासीन सम्प्रदाय परम्पराओं का मानना है की बाबा श्रीचंद कभी मर नहीं सकते। वे चम्बा के जंगल में गायब हो गए। बाबा श्रीचंद के अदृश्य होने के बाद बाबा गुरदित्ता उदासीन सम्प्रदाय के प्रमुख उत्तराधिकारी बने।

जहागीर से मुलाकात

संपादित करें

एक दिन जांहरगीर ने पीर सांई मीयां से पूछा कि क्या आपकी नजर है कोई हैं जो ईश्वर से जुड़ा हों। उन्होने कहा कि इस समय तो केवल गुरू नानक देव जी के नंदन बाबा श्री चंद जी ब्रहमगिआनी हैं। उन्होने आपकों अपने पास लाने के लिए कई साथियों सहित एक हाथी भेजा।

बाबा जी अक्सर एक कंबली लेते थे बाबा जी ने कहा कि हमारी कंबली को पहले हाथी पर रख आओं। जैसे ही उन्होने उस कंबली को हाथी पर रखा। तो हाथी को लगा जैसे कि उनकें उपर किसी ने तीनों लोकों का भार रख दिया हैं। और वह नीचे धंसने लगा। बाबा जी ने उन्हे कहा कि तुम्हारा कट्टा तो हमारी कंबली नही सहन कर सका। वह हमे कैसे ले जाएगा।

बाबा जी ने कहा कि हम अपने साथी के पीठ पर चढ़कर जाएगें। जब बाबा श्री चंद जी जहांगीर के दरबार में आए तो उसने उनका काफी स्वागत किया और उसने उनसे बात करनी शुरू की। बाबा जी ने एक कंबली ले रखी दी जो उन्होने उसके सामने रख दी। वह कंबली कभी अपने आप ही उठती, सिकुड जाती; जैसे कोई उसमें हों। जहांगीर ने कहा कि बाबा जी यह क्या है।

उन्होने कहा कि कंबली में जो भी है वह इनके पास आ जाए। कुछ देर बार जहांगीर को भी वह चिमड गया। वह अपने आसन से ही नीचे गिर गया। और कांपना शुरू कर दिया। उसने श्रीचंद जी को कहा कि इसे हटाओं। बाबा जी ने कहा ​कि 10 मिनट तो रूक जा। लेकिन उसने कहा कि इसे अभी हटाओं।

उसने बाबा जी से पूछा कि यह क्या था। बाबा जी ने कहा कि हमें तईया ताप हो रखा था लेकिन तुमने इसके बावजुद भी हमें अपने पास बुलाया फिर हमने बात करने के लिए उसे इस कंबली में भेज दिया। उसने फिर कहा कि यह तईया ताप आप इसे दुर भी कर सकते हों, किसी और को भी दे सकते हों फिर इसे हमेशा के लि ही अपने से दुर कर दों।

बाबा जी ने कहा कि हम नही कर सकतें। यह ईश्वर के भाणे में हैं। हमारे इतनी हिम्मत नहीं है कि हम इसे दुर करें। जहांगीर को समझ आ गया। और उसे यह भी महसूस हुआ कि गुरू अरजन देव जी को शहीद करवारकर उसने अच्छा नहीं किया।

बाबा जी फिर वहां से चले गए और उन्होने अपनी गदृी गुरू हरगोंंबिंद साहिब जी के पुत्र बाबा गुरादित्ता जी को दे दी।