सदस्य:Deepshika09lunia/बाल साहित्य:अपेक्षा और उपेक्षा

बाल साहित्य का परिचय

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अपने आस-पास कितने लोग हमें मिलते है,जिनके बारे मे हम दावा कर सकें कि वे भाविक सांवेदनिक दृष्टि से भी परिपक्व हैं अर्थात सही मानों में 'इमोशनली एजुकेतदड' है? खासी तेज़तर्रार बुद्धि वाले लोग भी भाव-संवेद्नात्म्क स्थर पर कच्चे साबित होते है। रोज़्मर्रा की अभ्यस्ति के जालों को हटाकर चीज़ों को, घटनाओं को एकदम ताज़ा आंखों से देख समझ सकने को सामर्थ्य को संवेदन की ताज़गी को अक्षुण्ण बनाए रखना अलग बात है। बचपन का समय इस सामर्थ्य के पनपने विकसित होने के लिये सबसे उप्युक्त समय है।इन्द्रियों पर तब अभ्यास के जालें नहीं पडे होते, कल्पना शक्ति भी तब सहज रूप से सक्रिय रहती है। यही सही समय है अपने पुराण, महाकाव्य, पंचतन्त्र, बेताल पच्चीसी आदि को टिकाऊ छाप ग्रहण करने का। यहीं पर कठिनाई उपस्थित होती है, मानविक विकास को हमारी भयानक रूप से एकरैखिक और एकांगी समझ के कारण जो उनकी भूमंडलाक्रित सभ्यता को लाइलाज व्याधि बन गयी है। बच्चे की आंखों से दुनिया को देख सकने की हमारी तथाकथित सयानी (?) अक्षमता के चलते। क्या बचपन का पटाक्शेप बचपन बीतने के साथ हो जाना लाज़मी है? बचप्न के अनुभवों का मूल्य सयानेपन के अनुभवों से कम नहीं होता। बचपन के गहरे संस्कार ही अकसर हमें वयस्क जीवन की चुनौतियों को झेलने-पचाने की शक्ति प्रदान करते है। जिसे हम कल्पना शक्ति कहते है, उसका उत्स दरअसल यह बाल-मन ही है। किसी भी बडे लेखक कलाकार का उदाहरण ले लिजिए। बालक अपने अनुभवों को उस तरह व्यक्त नहीं कर सकता, पर वह अपने ही ढंग का साक्शी सर्जक होता है। बचपन के इस बीजधर्मी महात्मय को यथावत समझे स्वीकरे बिना, हम कथाकथित विकास और युगधर्म और तदनुकूल शैक्षिक प्रविधि के नाम पर जो भी करते है वह अनर्थ ही उपजाएगा। ऐसी व्यवस्था में शिशू का वयस्क में सहज-स्वाभाविक विकास नहीं होता।

 
पंचतंत्रों की एक कहानी का अंश

अपेक्षा व उपेक्षा

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बच्चों के बस्ते भारी होतए जाते है। बचपन जो कम से कम ५ बरसों तक विस्त्र्त होता, वह अब कर छंटकर ढाई-तीन साल क रह गया है। माता-पिता मात्र अभी अभिभावक है। वह भी आधे-अधुरे शिक्षा या तो एक भयानक प्रतिस्पर्धा है। लगता है, हम सब जिस दिग्विजयी सभ्यता मे जुडे हुए है, उसके कर्कश कोलाहल में शालीन संवेदनशील और ज़िम्मेदार आवाज़ों की सुने जाने की संभावना नहींवत है। अगर थोडे ठंडे दिमाग से विचार करने पर लगेगा कि यह संभावना अभी भी है। वैकल्पिक स्वभाव का स्वप्न अभी भी मरा नहीं है, सिर्फ मुरकझाया हुआ है। बचपन की मूल्यवता को भी नये सिरे से पेहचाना जा सकता है। इस आंधी के भीतर जो कयी संवेदनशील लोग है वे सजगता का परिचय देने लगे है। वे साहित्यकारों एवं कलाकारों के महत्व का परिचय इस संदर्भ में नए सिरे से दे रहे है जिनको ज्ञानात्मक चेतना उस 'रेडिकल इनोसेंस' से कभी विच्छिन्न नही होता जोएक बच्चे की आंखों से देखने कि सामर्थ्य को अक्षुण्ण अप्रतिहित रख सकती है। बच्चों को ही नहीं, बडों को, अध्यापकों को भी उस महान रूपहले में दिक्शित होना चाहिए जो उन्होनें जिक्र नहीं किया या विसम्रत कर दिया। मसलन वर्डस्वर्थ को इम्मोटेलिटी मोड, सुमित्रानंदन पंत की प्रारंभिक कविताओं को, रविन्द्रनाथ ठाकुर की अन्त्रत्मिक स्ंस्कर्नों को, आदि। हमारी जीवन की दिशा और भविष्य में हमारी चेतना के पुरषार्थ की रूपरेखा हमारे बालकाल के आरंभिक दसेक वर्षों के जीवनानुभव के दौरान ही काफी कुछ तय हो चुकी होती है। निशच्य ही वयस्क होने की प्रक्रिया का भी महत्व है, किन्तु वह महत्व अधिकांशितः उन प्रारंभिक अनुभूतियों के म्र्म को ही खुले उजाले में खींच लाने और उनके जोवनयापी भाष्य में ही है। तभी वह मर्म व्यापक मानवीय अर्थ्वत्ता में उजागर होकर मानव-जीवन को सभी अवस्थाओं को एक गहरी अन्तः संगति में आलोकित करता है। इससे अधिक अवयस्क विचार कुछ नहीं हो सकता कि बच्चे को जल्दी से जल्दी बडों के कथाकथित तौर-तरीकों और तरक्की करने के ढ्रों में ढल दिया जाए। कई बार बचपन के गहरे गडे अनुभव-संस्कार ही हमें वयस्क जीवन की चुनोतियों को सही मानों में झेलने-पालने की शक्ति भी प्रदान करते है। इसका एक दुखद पहलू यह भी है कि बचपन में जिसे स्नेह और समझ जकी सहानुभूति नहीं मिलती, लगातार तिरस्कार लाँछन ही मिलता है, वह आगे चलकर अपने अकेले संकल्प के बूते चाहे जितना जो कुछ कर ले जाए, वो भी उसके आत्मविश्वास में एक दरार पडी रहती है, जिसे भरना दुष्कार होता है। इसी के चलते अच्छे खासे सफल लोगों में भी ऐसी अर्धचेतन विक्रतियाँ पर कर लेती है जिनका अनुमान तक हम उनके क्रियाकलापों से नहीं लगा सकते। कई बार एसे व्यक्ति में भी अपनी विकृतियों की चेतना नहीं होती और एक अचेतन प्रतिशोध सा अपने अनजाने वह समाज से लेता रहता है। अपने प्रति सुदूर बचपन में हुए गहरे अन्याय को प्रतिक्रियावश। आखिर जिस परिवार के बीच हम उगते-पनपते है, वह भी तो अपने-आप में समाज ही है: आगे मिलने वाले समाज कहो लघु संस्करण। हम तो समाज के पापों का दंड समाज को ही मिले, इसमें आश्चर्य क्या?

बाल साहित्य का महत्व

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बचपन- और सारे विश्व-साहित्य में प्रतिबम्बित हुआ बचपन यही जगह है, जहाँ पूर्व और पश्चिम, काले और गोरे, मज़हबी और काफिर जैसे मानव-द्रोही, और सॄष्ति-द्रोही विभाजनों की कुत्सा भी एक्दम साफ पकड में आ जाती है। बाल-मानवता के सपनों और प्रौढ -मानवता को उप्लब्धियों के बीच कोई अन्तर्विरोध नहीं, सीधा-सच्च संबंध है। असली अन्तर्विरोध और मौलिक विसंगति हो उस हिसाबी-किताबी बुद्धि और पाखंडी भावुक्ता में है, तो बचपन के सबसे बडें दुश्मन सोशल इंजीनियर और बुद्धिजीवी तक अक्सर बच्चों पर न्योछावर करते देखे जा सकते है। चूँकी साहित्यकार की रचना शक्ति का उत्स उसके भीतर जीवित और सक्रिय इसी बचपन में होता है,अतः उन्हीं से यह अपेक्षा जायज़ है कि वे बच्चे के घट में पैठकर, बच्चे की आँखों से इस जीवन जगत को देखने-दिखाने वाले स्वतः प्रमाण बाल-साहित्य की रछना में भी प्रवृत्त हों। क्योंकि वास्तव में प्रामाणिक बाल साहित्य भी वही है जो सर्जकों द्वारा रचा जाता है। मात्र बाल- साहित्य के कथाकथित विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तुत कीगयी सामग्री उस आवश्यक्ता की प्रकार का पर्याप्त प्रत्युत्त्र नहीं हो सकती।

 
साहित्य द्वारा बाल मनोविकास

[1] [2] [3]

  1. http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/38/baal-sahitya.html
  2. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A5%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%B0_%E0%A4%9A%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80_'%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81'
  3. http://www.jansatta.com/sunday-magazine/creation-children-literature-overlooked/50426/