Mahasvin.Mittal
Mahasvin.Mittal 23 जून 2017 से सदस्य हैं
झाबुआ का अद्भुत त्योहार
संपादित करें
हिंदुस्तान एक सांस्कृतिक देश है जो अपने अंदर तरह-तरह की संस्कृति छिपाए हुए हैं। झाबुआ और अलीराजपुर भारत के दूसरे सबसे बड़े प्रदेश, मध्य प्रदेश में दो प्रमुख जिलो में आते हैं जहां होली के पूर्व मनाए जाने वाला त्यौहार भगोरिया है ,जिसे यह आदिवासी बड़े ही अनोखे ढंग से मनाते हैं। ग्दोनों जिलों के ५००० से ६०० किलोमीटर मैं कई गांव बसे हैं। इन गांव में हफ्ते के एक निश्चित दिन साप्ताहिक हाट लगती है। होली के पहले वाली इस हाट में एक खास प्रकार की हाट लगती है जिसमें की भगोरिया मेला भरा जाता है। यह होली के 1 सप्ताह पहले से शुरु होकर होलिका दहन तक चलता है।
गांव के हात
संपादित करेंअलग-अलग गांव में अपने-अपने हाट के दिन अलग-अलग मेला लगता है। इस हाट को गुलाललिया हाट या त्योहारीआ हाट भी कहा जाता है। गांव में अलग अलग दिन हाट लगती है जैसे की सोंडवा में सोमवार को,बखतगढ़ में मंगलवार को इस तरह से हर गांव का अपना एक निश्चित दिन होता है,जब हाट लगती है। वैसे तो यहां बहुत गांव है परंतु उमराली छकतला नानपुर बालपुर गांव के मेले सबसे प्रसिद्ध है। बखतगढ़ की गैर भी बहुत मशहूर है। इन गांव में बसने वाली आदिवासी जातियां भील भीलाला पटालिया है और सब अपने-अपने खास अंदाज में भगोरिया मेला भरते हैं। इन दिनों मेले का माहौल कुछ अलग ही होता है। लकड़ी के पारंपरिक झूले तरह-तरह के खेल तमाशे जैसे कि अंधा कुआं जादू शारीरिक करतब घूमना फिरना कुल्फी खाना बर्फ के गोले आइसक्रीम खाना मस्ती मजाक करना चलते रहता है। कहां जाता है कि यह आदिवासी साल भर पुराने वस्त्रों में रहते हैं परंतु इस मेले में यह नए वस्त्र ही पहन कर आते हैं। इस मेले की एक खास बात यह है कि यहां युवक-युवती छोटे-छोटे झुंड में आते हैं और हर झुंड एक जैसे वस्त्रों में होता है जैसे की युवतियों अगर हरे पेटीकोट चोली और लाल चुनरी में है तो उस उस झुंड की सारी युवतियां उसी रंग के वस्त्र में आएंगी। यही तरीका युवकों के लिए भी है इस कारण इस मेले में रंग-बिरंगे झुंड अलग ही छटा बिखेरते हैं।
मेलो कि मनोरंजन आधारित गतिविधियां
संपादित करेंसाधारणत मेले में यह लोग चटक और चमकीले रंगों के वस्त्र दिखाई पड़ते हैं पारंपरिक वेशभूषा पेटीकोट चोली और चुनरी औरतों के लिए एवं पुरुष धोती कमीज उसके साथ फेटा या पगड़ी परंतु चाट दार या सुर्ख लाल अलग किस्म से सजाई हुई पगड़ी पहनते हैं। स्त्रियों के शरीर में चांदी या गिलट के बड़े-बड़े आभूषण जैसे कानो में झुमके बड़े बड़े हार हाथों और पैरों में मोटे कड़े कमर में कमर बंद होते हैं परंतु पुरुष भी पीछे नहीं रहते उनके कानों में लटकन हाथों में कड़े कमर में कदो दे और कमीज में बटन अलंकारिक रहते हैं। हाथों पर नाम या चित्र गुदबवाने का भी रिवाज है इसलिए यह कला दिखाने वाले लोग मेले में जगह जगह दिखाई देते हैं और गांववासी भी बड़े उत्साह से अपने अपने हाथों में अलग अलग किस्म के चित्र बनवाते हैं। मेले में चांदी के और अन्य आभूषण भी खरीदे जाते है। एक बेजोड़ संगीतमई माहौल बड़े-बड़े ढोल नगाड़े के साथ-साथ विशेष रूप का वाद्ययंत्र मांडल एवं हाथों से बनी बांसुरी छोटी शहनाई में तरह तरह के लोकगीत गीत बजाए जाते हैं और यह झुंड मस्ती और जुनून मे नाचते गाते हैं। इस अनुपम दृश्य को देखने का अपना ही एक मजा है।कहां जाता है कि भगोरिया मेले में आदिवासी युवक युवतियों एक दूसरे से मिलते हैं और कई युगल शादी के बंधन में भी बंध जाते हैं। एक दूसरे के चेहरे पर गुलाल लगाना और पान खिलाना भी इस त्योहार की परंपरा है।
भगोरिया मेला
संपादित करेंयह भी अफवाह है कि कुछ युवक-युवतियों को लेकर भाग जाते हैं इसलिए इस मेले का नाम भगोरिया है परंतु ऐसा नहीं है,राजा भोज के समय दो भील राजाओ ने अपनी राजधानी भगोर में यह हाट और मेले का आयोजन किया था तभी से यह सिलसिला शुरु हुआ है जो कि बाद में भगोरिया के नाम से प्रसिद्ध हो गया। मुख्यतः नई फसलों के आने की खुशी में मनाई जाने वाला यह त्यौहार है। इस मेले का इन आदिवासियों के जीवन में एक अलग ही प्रभाव है। जीवन यापन के लिए दूरदराज शहरों में गए हुए यह लोग इस मेले के लिए अपने गांव वापस आते हैं और इस आयोजन का हिस्सा बनते हैं। हर परिवार अपने घर के सदस्यों के साथ यह पर्व धूमधाम से बनाता है। इन क्षेत्रों में ताड़ी के पेड़ बहुत पाए जाते हैं जो कि एक नशीला तरल पदार्थ है,जिससे कि स्थानीय लोग नशा करते हैं। इनमें युवक बुजुर्ग और कुछ बुजुर्ग स्त्रियां भी शामिल होती है। हरगांव का मेला अपनी विशेषता लिए होता है जिसे देखने हर क्षेत्र का आदमी अपने अपने तरीके से पहुंचने की कोशिश करता है ।मुख्यतः यह लोग जीप मे सवार होकर जाते हैं। वाहन की कमी के कारण जीप पर यह लद एवं लटक कर जाते हैं ।चालक के सामने की जगह के अलावा हर जगह भर जाती है यहां तक की गाड़ी का बोनट भी इनके मुख्य भोजन के रूप में गेहूं की रोटी तुवर की दाल चटनी मिर्ची आलू के गोटे एवं सबसे प्रसिद्ध मुर्गा जिसका कि खून काला होता है।कड़कनाथ पकाया जाता है। कड़कनाथ की मुर्गियों के अंडे भी काले होते हैं।यह भी अपने आप में एक अनोखा व्यंजन है। वैसे तो यह लोग बहुत ही सरल और सीधे होते हैं परंतु कोई भी अगर इनको परेशान करे तो यह बहुत ही खूंखार हो जाते हैं और मारपीट के साथ-साथ यह खून खराबे पर भी आ जाते हैं।भील जाति मुख्यतः तीर चलाती है। प्रशासन एवं स्थानीय पंचायत ने इन का समय भी निर्धारित किया हुआ है। सुबह के 11:00 बजे से शाम के 4:00 बजे तक यह मेला चलता है।समय सीमा का निर्धारण व्यवस्था बनाए रखने के लिए किया गया है। कहा जाता है कि ताड़ी का प्रभाव सूर्य की गर्मी के साथ-साथ बढ़ जाता है इसलिए किसी भी प्रकार की अव्यवस्था को बचाने के लिए समय सीमा का उल्लंघन नहीं किया जाता है। आधुनिकीकरण के इस युग में इन सरल सच्चे लोगों का यह मेला या त्यौहार अपने आप में एक अनोखा पर्व तो है ही साथ ही भारतीय संस्कृति की एक अद्भुत मिसाल है। देश के अलग-अलग हिस्सों के लोगों को इस संस्कृति का एवं पर्व का आनंद लेने के लिए राज्य सरकार एवं स्थानीय प्रशासन ने काफी सुविधाएं करवा दी है। देश के साथ विदेशों से भी पर्यटक इस पर्व को देखने आते हैं इसके लिए इन प्रांतों में सुविधाएं उपलब्ध होने लगी है वाहन एवं टेंट भी मिल जाते हैं। इस अनोखी माहौल का मजा लेने के लिए स्थानीय राजा अपने खेतों में छोटे-छोटे टेंट लगवाकर एवं मनोरंजन के लिए स्थानीय नाच गाने की व्यवस्था करके पर्यटकों के लिए एक अनोखा माहौल बना देते हैं।अलाव जलाए जाते हैं।यह दृश्य देखने लायक होता है। इस स्थान तक पहुंचने के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन एवं हवाई अड्डा इंदौर एवं भोपाल है जहां पर देश के हर क्षेत्र से संपर्क जुड़ा हुआ है। झाबुआ के त्यौहार का यह रंग गुलाल बनकर हर देशवासी के चेहरे पर एक अलग ही रंग बिखेरता है।